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________________ ३८५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का. * मुक्तावली-मयूसकाग्मतयाः समालोचनम् * || अपास्ता । मूर्तत्वेनैव द्रव्यारम्भकत्वं, न च मनसोऽपि मूर्तत्वात् तदारभकत्वापत्तिः, मनोऽन्यमूर्तत्वेनैव तथात्वादियेके । == =.. -* जयलता है। रिक्तवृत्तित्वात् । एतेन -> 'जन्यरनेहजनकतावच्छेदकतया जन्यजलत्यजातेः सिद्धौ तदवच्छिन्नजनकतावच्छेदकतया जलत्वजातिसिद्धेः' - (मुक्ता. ३२० पृ. ) इति मुक्तावलीकारवचनं प्रतिक्षिप्तम् । यत्तु मुक्तावलीमयूखे सूर्यनारायणेन "सर्वस्मिन्नपि जले जलान्तरसंयोगेन बृहज्जलजननयोग्यतासत्वात जलस्याऽन्त्या वयवित्वानुपगमेनाऽदोषादि'' (मु.मयू. पृ.१०४) त्युक्तम् तदसत्, जलस्यान्त्याध्ययवित्वानुपगमे शरीरलक्षणस्य जलीयशरीरे व्याप्त्या पत्तेः । ततश्च जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्ननिरूपितजनकत्तावच्छेदकत्वमन्त्पावयविव्यावृत्तजातेरेवोपगन्तव्यम् । तथा च जलत्यादिना सार्यं दुर्निवारम । तथाहि घटारम्भकत्वात् कपाले जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकत्वेन सिद्धा निरुक्तजातिः वर्तते, जलत्वञ्च नास्ति । अन्त्या वयविनि जले जलत्वमस्ति, निरुक्तजाति स्ति । अनन्त्यावयविनि जले जलत्वं दर्शितजातिश्च वर्तेते इति परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयोरेका समावेशलक्षणं साकर्य दुर्वारमिति वर्धमानाशयः । प्रागक्तयुक्त्याऽयमपि न समीचीनः । जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकजातेरन्त्यावयविन्यपि स्वीकारेण जलवादिना साङ्कर्यप्रच्यवात् । न चैवमन्त्यावयबिन्यपि समवायेन द्रव्यान्तरापत्तिरिति वाच्यम्, समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्यनान्त्याऽवयविनः प्रतिबन्धकत्वाऽगीकारेण तदयोगात । ततश्च जन्यदन्यत्वावच्छिन्ननिरूपितकारणतावच्छेदक द्रव्यत्वमेक्त्याशयः । अत्रैव साम्प्रतमेकेषां मतमाबेट्यति प्रकरणकार: - पूर्तत्लेटेनेति ! प्रकारेण दव्यत्वव्यवच्छेदः कृतः । द्रव्यारम्भकत्वं = द्रव्यसमवायिकारणत्वम् । द्रव्यसमवायिकारणताया मूर्त्तत्यावच्छिन्नत्वे मनस्यपि समवायेन द्रव्यान्तरमुत्पद्येत, तत्र मूर्तत्वस्य वृत्तित्वादित्याशकानिराकरणाय वदन्ति । न चेति । तदारम्भकत्वापत्तिः = द्रव्यान्तरसमवायिकारणत्वप्रसङ्गः । तदपाकरणाय व्याचक्षते - मनोऽन्यमूर्तत्वेनैव तथात्वात् = द्रव्यारम्भकत्यात् । मनोभिन्नत्वे सति मूर्त्तत्वस्य द्रव्यसमायिकारणतावछेदकल्लम् । मनसि विशेष्यसत्त्वेऽपि विशेषणविरहेण विशिष्टकारणत्वावच्छेदकाऽसत्त्वान्न तत्र समवायेन द्रव्यान्तरप्रसङ्गः । द्रव्यत्वं तु व्यापकत्वान्न द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकम्, अनतिरिक्तवृत्तित्वात्, अन्यधाऽकारणेऽपि स्वरूपयोग्यत्वकल्पनापत्तेरिति तदाशयः । को, सांकर्य के सबब, जन्यद्रव्यलावच्छिन्न की कारणता का अबछेदक नहीं माना जा सकता और द्रव्यत्त्व जाति अतिरिक्त वृत्ति होने से कारणतावच्छेदक नहीं हो सकती है' - किन्तु अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ! हमने अभी ही बता दिया है कि तादृश जातिविशेष अन्त्य अवयवी में रहने पर भी समवाय सम्बन्ध से द्रव्य के जन्म के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से अन्त्य अवयवी प्रतिबन्धक आदि अवयवी में जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न की कारणतावच्छेदक जाति का अंगीकार करने से ही पूर्वोक्त रीति से सांकर्य का वारण मुमकिन है तथा उक्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धक भाव का अंगीकार करने से ही अंत्य अवयवी में समवाय सम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति का बारण भी हो सकता है । अतः द्रव्यत्व को जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्न का कारणतावच्छेदक मानने में कोई दोप नहीं है । र मनोभिल्लामूत्ति यसमतायिकातातरलेषक है - अगुका विद्वानों का मत हा मूर्न, इति । यहाँ अमुक विद्वानों का यह कथन है कि द्रव्यारम्भकत्वावदक = द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक धर्म | मूर्नत्व धर्म ही है । कपाल, तन्तु आदि में मूर्तत्व धर्म होने की वजह ही वे घट, पट आदि के समवायिकारण हो सकते । हैं । यहाँ यह कहना कि -→ 'मूर्नत्व तो मन में भी रहता है । अत: कपालादि की भाँति मन में भी समवाय सम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होनी चाहिए' <- ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक धर्म केवल मूर्तत्व नहीं है, | किन्तु मनोभिन्नमूतत्व है । मन मूर्न जरूर है, मगर मनोभिन्न नहीं है। अपने से कोई भी पदार्थ भिन्न नहीं होता है । मन में मनोभिनत्व नहीं होने से मनोभिन्नत्वविशिष्टमूर्तत्व भी नहीं रहता है। विशेषणाभाप्रयुक्त विशिष्टाभाव होने से मन . दषियं पृ.३८३ ।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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