SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०२ - -.' * स्वभावविशेषस्य नीलनियामकत्वम् * एवञ्च 'नासालोक: किन्त्वन्धकार' इति व्यवहारोऽपि समर्थितः । न ह्ययं 'नात्र घट: किन्तु तदभाव' इतिवत् समयितुं शक्यते 'नाबालेक: किन्त्वन्धकारतदभावावि'ति व्यवहारान्तरस्यापि दर्शनात् । * जयला कल्पनाया अनावश्यकत्वात्, तमः परमाणुनीलरूपस्य नित्यत्वादेव न तत्र कारणगवेषणम् । ततश्च तमोद्रव्यस्य नीलरूपवत्त्वेऽपि नैयायिकैकदेशिमतानसारेणापि न पधिवीवप्रसङग इति निष्कर्षः । ___ अथ नीलजनकविजातीयतेजःसंयोगस्य जलादावपि सम्भवात् तत्र नीलानुत्पत्तये नीलत्वादच्छिन्नं प्रति पृथिबीत्वेन समवापिकारणत्वमावश्यकमिति चेत् ? न, तथापि उपस्थितविजातीयनीलत्वावच्छिन्नं प्रत्येव तद्धेतत्वौचित्यात् । न च विजातीयनीलत्वात्रच्छिन्नं प्रति प्रथिव्याः समवायिकारणत्वावश्यकवे नीलत्वावच्छिन्नं प्रत्येव तद्धेतुत्वमस्त्विति वक्तव्यम, व्याएकधर्मस्य व्याप्यधर्मेणाऽन्यथासिद्धेः, इतरथाऽनुत्पाद्येऽपि तत्कार्यकल्पनाप्रसङ्गात् । मम तु स्वभावविशेषस्यैव नीलनियामक त्वादिति दिक् । ___ एवञ्चेति । तमस आलोकाभावभिन्नत्वे चति । 'नात्रालोकः किन्त्वन्धकार' इति व्यवहारः = शब्दप्रयोगः अपिशब्देन तादृशोध: सगृहीतः, समर्थितः स्यात, अन्यथा पुनरुक्तिप्रसङ्गेन तादृशप्रयोगानुपपत्तेः 'नालोक' इत्यनेनैवोक्तस्यान्धकारस्य पुनः 'अन्धकार' पदेन प्रतिपादनात् । न च 'नात्र घटः किन्तु तदभाव' इति व्यवहारवत् 'नात्रालोकः किन्तु तम' इतिव्यवहारस्य विवरणपरतयोपपत्तिः सम्भवतीति वक्तव्यम् , तादृशविवरणपरतां विनाऽपि स्वारसिकतादृशप्रयोगदर्शनात् । अत्रैब दोषान्तरमाविष्करोति - न हीति । अग्रे 'समर्थयितुं शक्यत' इत्यनेनाऽस्याऽन्वयः । अयं = 'नात्रा लोकः किन्त्वन्धकार' इति व्यवहारः, 'नात्र घटः किन्तु तदभावः' इतिवत् = इतिप्रयोगवत, विवरणपरतया समर्थयितुं शक्यते । हेतुमाह - 'नात्राऽऽलोकः किन्त्वन्धकारतदभावावि ति व्यवहारान्तरस्यापि दर्शनात् । अन्धकारस्याऽऽलोकाभावत्वे 'अन्धकारतदभावी' 'आलोकाभावान्धकारौं' इति इन्द्रसमासो न स्यात्, भिन्नपदार्थवाचकयोरेवेतरेतरद्वन्द्वसम्भवात्, आलोकाभावान्धकारतावच्छेदक मानना जरुरी है' <- तो यह भी नामुनासिब है। इसका कारण यह है कि जन्य भावमात्र के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से उच्य समवायिकारण है । कपालादि अवयव के नील रूप के जन्यभाव का समवायिकारणतावच्छेदक द्रव्यत्व नहीं होने से उसमें समवाय सम्बन्ध से नीलरूप की उत्पत्ति का अनकाश नहीं है। यह तो नैयायिक एकदेशी विद्वानों को भी मान्य है। अतः इसी रीति से भी अन्यकार को पृथ्वी मानने की आवश्यकता नहीं है । अन्धकार के अवयव के नील रूप से ही अवयवी अन्धकार में नील रूप की उत्पनि हो सकती है, क्योंकि अवयवी तम में स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्ध से अन्धकारावयवनील रूप रहता है और अवयवी अन्धकार में जन्यभावमात्र का समवापिकारणतारच्छेदक द्रव्यत्व भी रहता है। अतः नील रूप होने से ही अन्धकार अवयविद्रव्य को पृथ्वी मानने की आवश्यकता नहीं है। यह फलित होता है। ___* व्यवहारविशषष से अन्त में आलोकाभावविभतत्व की सिन्द्रि गनुश्च. इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने पर 'यहाँ आलोक नहीं है, किन्तु अन्धकार है' यह व्यवहार भी अनुपपन्न हो जायेगा । 'आलोक नहीं है। इससे ही आलोकाभावात्मक अन्धकार की सिद्धि होने से पुनः आगे 'किन्तु अन्धकार है' यह कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तब पुन:क्ति दोप प्रसक्त होता है । उक्त व्यवहार से ही आलोकाभाव से भिन्न अन्धकार की सिद्धि होती है। यहां यह कहा जाय कि -> "जैसे लोक ' में यह व्यवहार होता है कि 'यहाँ घट नहीं है, किन्तु घट का अभाव है' यहाँ पूर्वोत्तर अंश में पुनरुक्ति दोष नहीं है, क्योंकि 'घट का अभाव है' यह अंश 'घद नही है' इस पूर्व भाग का विवरणपरक है। ठीक वैसे ही 'यहाँ आलोक नहीं है, किन्तु अन्धकार है' इस व्यवहार में भी उत्तर भाग से पूर्व भाग का विवरण अभिप्रेत है । अतः पुनरुक्ति दोष का अवकाश नहीं है" <- तो यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि विवरणपरक मान कर उक्त व्यवहार का समर्थन करने पर भी 'यहाँ आलोक नहीं है, किन्तु अन्धकार और आलोकाभाव है' इस व्यवहार की उपपनि नहीं हो सकती है । रमका कारण यह है कि 'अन्धकारतदभावी' = 'अन्धकारालोकाभावी' इत्याकारक द्वन्द्ध समास भिन्न पदार्थ के वाचक अनेक पट में ही हो सकता है। जो पदार्थ अभिन्न होते हैं, उनके वाचक पद में कभी भी इतरेतर द्वन्द्व समास नहीं होता है . किन्तु एकशेष समास होता है अतः अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने पर 'नात्रालोकः किन्तु आलोकाभावान्धकारौ'
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy