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________________ ४०३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * व्यवहारबलेनान्धकारम्प नालोकाभावरूपता ** यत्तु अन्धकारस्थालोकाभावत्वे 'अन्धकारे नालोक' इति प्रयोगो न स्यादिति केनचिदुक्तं वतु मोधम्, 'घटाभावे घटो नास्तीतितत् तदपपत्तेः । एवं सति 'अन्धकारेऽन्धकार' इति प्रयोगपत्तिस्तु स्यादेव । न ह्यन्धकारत्वमालोकाभावत्वादिदानीमतिरिक्तमायुष्मन्त: सगिरन्ते । =- =*गायलता. *--...=योरनतिरिक्तत्वे 'आलाकाभावान्धकारी' इत्यम द्विवचनानुपपत्तेः, अपकृष्टालोकसत्त्वेऽपि च तमोव्यवहारात् । न चात एव 'उस्कृष्टालोकाभावोऽन्धकार इति वाच्यम्, तदुत्कर्षप्रतियोग्यपकर्षशालितयैव तमसि द्रव्यत्वसिद्भेक्तत्वात् । ___यत्त्विति । अस्य 'तत्तु मोबमि' त्यनेनाऽन्वयः । अन्धकारस्य = अन्धकारपदप्रतिपाद्यस्य, आलोकाभावत्वे = महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकाभावत्वाभ्युपगमे, 'अन्धकारे नाऽऽलोक' इति प्रयोगः न स्यात्, आधाराधेयभावस्य भेदत्र्याप्यत्वात्, भेदज्यावृत्ती तव्याप्यस्याइसम्भवात्. अन्यधा 'विन्ध्याचले विन्ध्याचल' इत्यस्यापि प्रसङ्गात् । ततश्चोपदर्शितप्रसिद्धाधारधेयभावान्यधानुपपत्त्या तमसः तादृशालोकाभावभिन्नत्वमभ्युपेयम् । प्रयोगस्त्येवम् आलोकाभावान्धकारी भिन्नी परस्पराधाराधेयभावप्रतीतिविषयत्वात् घटभूतलवदित्याशयः । नयायिक प्रत्युक्तवचनं न बाधकमित्याशयेन प्रकरणकृदाह - तत्तु मोघमिति । 'घटाभावे घटा नास्ती' तिवत्, तदु. पपत्तेः = 'अन्धकारे नालोक' इतिप्रयोगनिवाहात । अभादाधिकरणकाभावस्य लाघवादधिकरणा घटो नास्तीतिप्रयोगः ताददाबोधश्चाभ्युपगम्यते तद्वदेवान्धकारस्थाऽऽलोकाभावत्वेऽभावाधिकरणकाभावस्य चाधिकरणस्वरूपत्वेऽपि 'अन्धकारे नालोक' इतिव्यवहारः आधाराधेयभावावगाहितादृशबोधश्चापपत्स्येते इति नैयायिकेन वक्तुं युज्यत इति नायं पर्यनुयोगाई इति भावः । तर्हि कीदृशी आपत्तिरालोकाभावन्धकारवादिमते संभवेदित्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह - एवं सत्ति = अभावाधिकरणकाभावस्याऽभावात्मकल्वेऽपि तत्राऽऽधाराधेयभावाभ्युपगमे सति, 'अन्धकारेऽन्धकारः' इतिप्रयोगापत्तिः तु स्यादेव । कथं ? इत्याशङ्कायामाह - न हीति । 'अन्धकारे नालोक' इत्यत्रोत्तरभागेन प्रतिपाद्यादालीकाभावादन्धकारस्याऽभिन्नत्वात् परमते 'नालोक' इत्यत्र स्थाने अन्धकारपदनिवेशेऽर्थ भेदाभावात् 'अन्धकारेऽन्धकार' इतिपदप्रयोगप्रसको दुवारः इति भावः । ....... इस व्यवहार की विवरणपरतया उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः उक्त प्रसिद्ध व्यवहार के बल से अन्धकार को आलोकाभाव से भित्र मानना आवश्यक है, यह फालित होता है । पत्तु. इति । आलोकाभावात्मक अन्धकार का स्वीकार करने वाले नैयायिक आदि मनीषियों के खिलाफ अन्धकार को द्रव्यात्मक मानने वाले कतिपय विद्वानों का यह आक्षेप है कि -> "अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने पर 'अन्धकार में आलोक नहीं है। यह प्रयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि अन्धकारपदका अर्थ आलोकाभाव ही होने से वहाँ आलोकाभाव i: = अन्धकार का आदेयविधया भान नहीं हो सकता । अभिन्न पदार्थ में आधार-आधेयभाव की प्रतीति नहीं होती है। अतः 'अन्धकारे नालोकः' इस व्यवहार से अन्धकार और आलोकाभाव में भेद की सिद्धि होती है' <- किन्तु यह आक्षेप निष्फल है, क्योंकि 'घटाभावे न घटः' इस व्यवहार की भाँति उक्त शाब्द व्यवहार का उपपादन हो सकता है । आशय यह है कि घटाभाव में रहने वाला बटाभाव लाघव सहकार से घटाभावस्वरूप ही है, उससे भिन्न नहीं है। फिर भी 'घटाभाव में घर है या नहीं ?' इस प्रश्र के उत्तररूप में 'घटाभाव में घट नहीं है। ऐसा कहा जाता है। आधार और आधेय में अभेद होने पर भी यहाँ आदार-आदेयभाव का व्यवहार एवं ज्ञान होता है ठीक वैसे ही अन्धकार और आलोकाभाव में अभेद होने पर भी 'अन्धकारे न आलोकः' इत्याकारक व्यवहार एवं प्रतीति का समर्थन नैयायिक आदि विद्वानों की ओर से किया जा सकता है । अतः अन्धकार को आलोकाभावात्मक मानने में उक्त आक्षेप नामुनासिब है। हाँ, नैयायिक आदि के प्रति यह आपत्ति दी जा सकती है कि -> 'आलोकाभावस्वरूप अन्धकार मानने पर 'अन्धकार में अन्धकार है' यह प्रयोग दुर्वार होगा, क्योंकि 'घटाभाचे घटाभावः' यह प्रयागे नैयायिकामतानुसार आधार-आधेय में अभेद होने पर भी होता है वैसे 'अन्धकारे अन्धकार:' यह प्रयोग भी होना चाहिए, क्योंकि अन्धकार तो उसके मतानुसार आलोकाभावस्वरूप अनिष्ट आपत्ति का उद्भावन करना चाहिए । यही परवादी के अप्रामाणिक तत्व का खण्डन करने की प्रसिद्ध-प्रामाणिक पद्धति है - ueld में 'अन्धकारे sukuli' प्रतीति अमत्व का प्रसंग ।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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