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________________ ४३२ * बिकपालघटे कश्चिकपालत्वस्वीकारः* चेत् ? न, कश्चित्कपालत्वस्यापि तत्र स्वीकारात् । अत एव 'कपालमयो घट' इति । प्रतीति: । न हि इयं 'अयस्पिण्डस्तेजोमय' इतिवदुपपत्स्यते, साक्षात्सम्बन्धे बाधकामा- . =-=-=-=* जयलता. * त्वनियमादिति । एवकारेणाऽन्ययोगव्यवच्छेदः कृतः, प्रकृते द्विकपालघटस्य त्रिकपालघटहेतुत्वव्यवच्छेदः ज्ञेयः । घटः कपालं कपालविजातीयसंयोगं च विना न भवितुमर्हति, विजातीयसंयोगश्च कपालं विना न भवितुमर्हति, कपालत्वस्य तत्कारणतावच्छेदकत्वात् । ततश्च कपालान्तरसंयोगेन सहकृताद् द्विकपालघटात् त्रिकपालपटो न भवितुमर्हति, द्विकपालघटे घटत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकस्य कपालत्वस्य विरहात्, अन्यथा तदाकस्मिकत्वप्रसङ्गात् । अतः कपालत्रिकादेव विजातीयसंयोगोत्पत्त्यनन्तरं त्रिकपालघटोत्पाद उपगन्तुमर्हतीति शङ्काभिसन्धिः । प्रकरणकृत् प्रत्याचष्टे - नेति । कथश्चिकपालत्वस्यापीति । अपिशब्देन प्रतीतघटत्वादेः परिग्रहः । तत्र = द्विकपालघटे स्वीकारादिति । द्विकपालघटे 'इदं कपालमि' तिव्यवहारप्रयोजकीभूतस्य कपालत्वस्याऽसत्त्वेऽपि घटत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकीभूतस्य कपालत्वस्य सत्त्वेन ततो विजातीयसंयोगस्य घटस्य चोत्पादेऽपि व्यतिरेकव्यभिचारानवकाशः । कारणतावच्छेदकावच्छिन्नादेव कार्योत्पत्तेराकस्मिकत्वप्रसङ्गोऽपि नास्ति । 'परं द्विकपालघटे कथं कपालत्वसिद्धिः ?' इत्याशङ्कायामाह- अत एवेति । तत्र घटे स्यात् कपालत्वस्य सत्त्वादेव । 'कपालमयो घटः' इतिप्रतीतिः उपपद्यते । यथा मृत्त्वस्य घटे सत्त्वादेव 'मृण्मयो घट' इतिप्रतीतिर्भवति तथैवाऽपेक्षितकपालत्वस्य तत्र सत्वादेव 'कपालमयो घट' इति प्रतीतिर्भवितुमर्हति । प्रकृते परम्परासम्बन्धपराकरणार्थं प्रकरणकारः प्रक्रमते- न हीति । इयं = 'कपालमयो घट' इति प्रतीतिः। तेजस्त्वस्य समवायेनाऽपस्पिण्डे विरहेऽपि स्वसमवायिसंयोगसम्बन्धेन तत्र वर्तमानत्वात् 'अयस्पिण्डस्तेजोमय' इतिवत् = तादृशप्रतीतिवत्, उपपत्स्यते । कुतो हेतोः ! इत्याह- साक्षात्सम्बन्धे = समवायेऽपृथग्भावे वा सम्बन्धे स्वीक्रियमाणे, बाधकाभावात् = दोषाभावात् । अयोगोलकस्य शीतलीभवने तत्र तेजोमयत्वप्रतीतेः विरहात् न समवायन तत्र तेजस्त्वं स्वीकर्तृमर्हतीति स्वसमवायिसंयोगलक्षणपरम्परासम्बन्धेन तत्र तेजस्वमङ्गीक्रियते, स्वस्य = तेजस्त्वस्य समवायिना = तेजसा तस्य संयुक्तत्वात् । समवायेन तत्र तेजस्वोपगमे तु पूर्वमिव पश्चादपि तादृशप्रतीतिप्रसङ्गस्यैव बोधकत्वम् । न च प्रकृते घट की उत्पत्ति की कल्पना युक्त नहीं है, क्योंकि घट और घटजनक विजातीयसंयोग के प्रति कपालत्वेन कपाल कारण होता है । घट के प्रति कपाल तादात्म्यसम्बन्ध से कारण होता है और घदजनक (= घटासमवायिकारण) विजातीय संयोग के प्रति भी वह तादात्म्यसम्बन्ध से कारण होता है। दो कपाल वाले घट में कपालत्व ही नहीं होने से उससे कपालान्तर के संयोग से तीन कपाल बाले घट की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। एवं तीन कपाल वाले घट के जनक = असमवायी कारण तीनकपालसंयोग की भी उत्पत्ति तीन कपाल के बिना कैसे हो सकेगी ? कपालान्तरसंयोग से दो कपाल वाले घट को तीन कपालबाले घट का जनक मानने में उपर्युक्त कार्य-कारणभाव का भङ्ग ही बाधक है" <- भी नामुनासिब है, क्योंकि द्विकपाल वाले घट में हम स्याद्वादी कथंचित्कपालत्व का भी स्वीकार करते हैं । इसलिए तो 'कपालमयो घटः' इत्याकारक प्रतीनि होती है । यहाँ यह कहना कि -> "जैसे अग्नि से अतितप्त लोहपिण्ड में भी 'अयस्पिण्डः तेजोमयः' इत्याकारक प्रनीनि होती है। मगर क्या इससे अग्नित्व लोइपिण्ड में सिद्ध हो सकता है ? अग्नित्व तो समवायसम्बन्ध से अग्नि में रहता है, जो कि लोहपिण्ड से संयुक्त है । अत: लोहपिण्ड में वह्नित्व समवाप से नहीं, बल्कि स्वसमवायिसंयोगसम्बन्ध से रहने की वजह 'अग्निमयो लोपिण्डः' यह प्रतीति होती है, यह माना जाता है । ठीक वैसे ही कपालत्व भी द्विकपाल वाले घट में समवायसम्बन्ध से नहीं, बल्कि स्वसमवायिसमवेतत्वनामक परम्परासम्बन्ध से रहेगा, जिसकी वजह 'कपालमयो यटः' यह प्रतीति होती है" <- भी असंगत है, क्योंकि कथञ्चित्कपालत्व और घट के बीच साक्षात् सम्बन्ध के स्वीकार में कोई बाध नहीं है। लोहपिण्ड जब गीत हो जाता है, तब 'अग्निम्पो लोइपिण्ड:' यह प्रतीति नहीं होने से वहाँ समवाय से वहित्व को नहीं माना जा सकता मगर घर के रहते हुए तो सदा के लिए 'कपालमयो घटः' यह प्रतीति हो सकती है। इसलिए कथञ्चितकपालत्व का घट में साक्षात् सम्बन्ध मुमकिन है। जहाँ साक्षात् सम्बन्ध मुमकिन हो वहाँ परम्परा सम्बन्ध की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि तब निरर्थक गौरव दोष प्रसक्त होता है । इसलिए समुचित तो यही है कि निर्दोपता और लायब होने की वजह साक्षात् सम्बन्ध से ही कथञ्चित्कपालत्व घट में रहता है, यह माना जाय । घटकारणतावच्छेदकीभूत कश्चित्कपालत्व घट में कारणतावच्छेदकसम्बन्ध से होने की वजह दो कपाल वाला घट कालान्तर के संयोग से तीन कपाल वाले घट को उत्पन्न कर सकता है, भले कपालत्व को घटमात्र की कारणता का अवच्छेदक माना जाय । घट में कथञ्चिकपालव
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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