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________________ 1: - - ४३१ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * परद्रव्यस्य नियतोऽकारणत्वम् * वस्तुतो दण्डादेः प्रयोजकत्वेऽपि न क्षतिः, अनात्यन्तिकत्वात, घटादौ निश्चयत: स्वद्रव्यस्यैव हेतुत्वात् । अत एव दिकपालघटादेरपि कपालान्तरसंयोगेन त्रिकपालघटोत्यत्ति: । न हि तत्र तदानीं कुम्भकारादयो व्याप्रियमाणा दृश्यन्ते । ___ अथ नेदं युक्तं, घटं पति घरजलकविजातीयसंयोगं प्रति च कपालत्वेनैव हेतुत्वादिति ! H----.-...----. -- * जयललता - - -- || कार्यताबन्दकलाघवस्याऽकिश्चित्करत्वात् । न च गौरवं दोषः, फलाभिमुखत्वेन तस्याऽदोषत्वात् । ततश्च खण्डित-सौवर्णराजतादियटभिन्नं घट प्रति दण्ड-चक्रादेः कारणत्वमिति फलितम् । इदञ्च व्यवहारनयमनुरुध्योक्तम् । निश्चयनयमतेन तु दण्डादेः न घटहेतुत्वमिति स्वाशयमविर्भावयति प्रकरणकारः - वस्तुत || इति । दण्डादेरिति । आदिपदेन कुलाल-तत्कृति-चक्र-धीवरादेर्ग्रहणम् । घटं प्रति प्रयोजकत्वे अङ्गीक्रियमाणे अपि न क्षतिः = व्यतिरेकव्यभिचारानबकाशः, तस्य अनात्यन्तिकत्वात् = अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्तित्वाभावेनाऽकारणत्वात् । तदपि कुतः ? इत्याशङ्कायामाह- घटादौ निश्यतः = निश्चयनयमवलम्च्य स्वद्रव्यस्य = मृदादेः, एव हेतुत्वात् दण्डादेः घटाद्यपेक्षया || परद्रव्यत्वेनाकारणत्वमित्यर्थतो लभ्यते । प्रयोजकमृते कार्योत्पादे विद्धांसो न व्यतिरेकन्यभिचारमामनन्ति । अतो दण्डादेः | प्रयोजकत्वाम्भ्युपगमे व्यतिरेकव्यभिचारानवकाशः । निश्चयनयाभिप्रायस्तु ग्रन्थान्तरादवसातव्यः । अत एवेति । दण्ड-चक्र-चीवर-कुलालादीनां घटं प्रति प्रयोजकत्वं मृदादेश्च कारणत्वमित्यभ्युपगमादेवेति । द्विकपालघटादेः सकाशात् अपि कपालान्तरसंयोगेन त्रिकपालघटोत्पत्तिरिति । स्वद्रव्यस्यैव हेतुत्वकल्पने इयमुपपद्यते, यतो न हि || तत्र त्रिकपालघटोत्यादस्थले, तदानीं = त्रिकपालघटोत्पादाऽव्यवहितपूर्वक्षणे, कुम्भकारादयः = कुलालचक्रचीवरदण्डादायः, व्याप्रियमाणाः = व्यापारं कुर्वन्तो दृश्यन्ते । कुलालादीनामपि घटं प्रति कारणत्वे तु प्रकृते व्यतिरेकव्यभिचारस्य दुर्निवारत्व| मायुष्मतः । ___ परः शङ्कते- अथेति । नेदं युक्तं = कपालान्तरसंयोगेन द्विकपालघटादितः रिकपालघटोत्पादकल्पनं न सङ्गतम् ।। कुतो हेतोः ? इत्याशङ्कायामाह- घटं प्रति = समवायसम्बन्धेन घटत्वावच्छिन्ने प्रति, घटजनकविजातीयसंयोगं प्रति = बटाऽसमवायिकारणीभूतकपालद्वयविजातीयसंयोगत्वावच्छिन्न प्रति, च कपालत्वेनैव हेतुत्वात् = कपालत्वावच्छिन्नस्य कारण -MAI व्यभिचार ही दण्डजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व को खण्ड घट में मानने में बाधक है । अतः कपालजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व को एवं दण्डजन्यतावच्छेदकीभूत घटत्व को भिन्न भिन्न मानना ही उचित है। निष्कर्ष :- दण्ड घटमात्र का नहीं, अपितु घटविशेष का कारण है। वस्तुतः दण्ड घर का कारण जहीं, प्रयोजक है - स्यादादी । वरततो द. इति । वस्तुस्थिति तो यह है कि दण्ड घटविशेप का भी कारण नहीं है, किन्तु घटसामान्य का प्रयोजक है. ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि दण्ड घट के प्रति अत्यन्त आवश्यक = कारण नहीं है। निश्यत: तो घटादि में स्वद्रव्य = मृदादिद्रव्य ही हेतु है । पर द्रव्य में निश्चय नय से कारणता ही नहीं होती है । दण्ड तो घट का स्वद्रव्य नहीं है । अतः दण्ड में निश्चयतः घटकारणता नहीं है। हाँ, दण्ड को घर का प्रयोजक कहने में कोई क्षति नहीं है । निश्चय नय से घट का कारण मृद् द्रव्य ही है, उससे व्यतिरिक्त दण्ड, चक्र, चीवर, कुलाल आदि तो प्रयोजक है । इसीलिए तो द्विकपाल यट में कपालान्तर का संयोग होने पर त्रिकपालवाले घट की उत्पत्ति की उपपत्ति हो सकती है। कुम्हार, दण्ड, चक्र आदि का कोई भी व्यापार नहीं होता है, फिर भी दो कपाल बाला घट जब गीरता है तब तीसराकपाल उत्पन्न होता है और उसके संयोग से दरारवाले तीनकपाल वाले घट की उत्पत्ति द्विकपालवाले घट से होती है। उसके अनुरोध से दण्ड, चक्र, चीवर, कुम्हार, उसके ज्ञान आदि को घट का प्रयोजक मानना युक्त है, न कि कारण | इस परिस्थिति में ईश्वर की सिद्धि कैसे हो सकती है। क्योंकि ईश्वर या ईश्वरज्ञान आदि में कारणता ही असिद्ध है - यह उपर्युक्त विचारशृंखला से ध्वनित होता है। uc में भी कचिकपालत्त साक्षात् रहता है - स्यादादी । अध ने. इति । यहाँ यह नैयायिक उदार कि -> "दो कपाल बाले घर से ही कपालान्तर संयोग से तीन कपालवाले %3
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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