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________________ ______. ४६९ मध्यमस्पावादरहस्ये खबर, २ - का. * 'असत्रमाणप्रसिद्धत' इत्यस्य नानाव्याख्यानिरूपणम् * नत्तसत्प्रमाणप्रसिदित इत्यत्र 'असच्च तत्प्रमाण 'ति न समासः, अयोग्यत्वात् ।। प्रमाणप्रसिन्देस्सदिति समासे तु असत्पदस्य पूर्वोपादानानुपपत्तिरिति चेत् ? अा केचित् - सतोऽभावोऽसदिति तत्पुरुषादसत्वमित्यर्थः, तत्र च पञ्चम्यान्वयः, सत्त्वे च प्रमाणप्रसिध्दरन्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । विभक्त्यन्तरावरुदप्रातिपदिकार्थे विभक्त्यन्तरार्थान्वय: कथ ... *जयलता समासासम्भव परः शङ्कते - नन्विति । अयोग्यत्त्वादिति । प्रमाकरणत्वस्य सत्त्वव्याप्यत्वेन प्रमाणेऽसत्त्वस्य तादात्म्येनासतो पाइन्वयी योग्यत्वान्न भवतीति न 'असच तत्प्रमाणश्चेति कर्मधारयसमाससम्भवः । तत्पुरुषसमासस्याऽप्यसम्भव - माह- प्रमाणप्रसिद्धेरिति समासे = तत्पुरुषसमासे, तु असत्पदस्य पूर्वोपादानानुपपत्तिः अव्ययीभावसमासादादेव पूर्वनिपातसम्भवात, तत्पुरुषे संख्यावाचकपदस्यैव पूर्वनिपातसम्भवात् । न च प्रकृते एवमिति न तत्पुरुषसमासस्य सम्भवः । द्वन्द्वादेरपि न सम्भव इति असत्प्रमाणप्रसिद्धित इत्यत्र कः समासः ? इति पर्यनुयोगस्य दुरुद्धरत्वमिति शङ्काशयः । अत्र समाधानबार्तायां, केचित् बिद्वांसो बदन्ति- सहोऽभावः = असदिति तत्पुरुषात् = षष्ठीतत्पुरुषसमासात, | असत्पदस्य असत्त्वमित्यर्थः । तत्र च = असत्त्वार्थे हि पञ्चम्पर्धान्वयः, असत्त्वप्रतियोगिनि सत्त्वे च प्रमाणप्रसिद्धेः अर्थस्य अन्वयः = सम्बन्धः, कुतः ? इत्याह-व्युत्पत्तिचिच्यात् = नियमविशेषात् । ततश्चाऽसत्प्रमाणप्रसिद्रितः इत्यस्य प्रमाणप्रसिद्धिसत्त्वप्रतियोगिकात्यन्ताभावादित्यर्थः । __नन्वेवं सति प्रमाणप्रसिद्धिपदार्थ षष्ठ्यर्थान्दयो न स्यात् तवाचकपदस्य पञ्चमीविभक्त्यवरुद्धृत्वादित्याशयेन कश्चिच्छङ्कतेविभक्त्यन्तरावरुद्धप्रातिपदिकार्थे = विभक्त्यन्तरेणावरुद्धस्य प्रातिपदिकस्य = नाम्नः अर्थ. विभक्त्यन्तरार्थान्वयः = विभक्त्यन्तरस्याऽर्थस्य सम्बन्धः कथं ? प्रातिपदिकार्थे स्ववाचकपदाऽज्यवहितोत्तरविभक्त्यर्धस्यैवाऽन्वय इति नियमान्न पञ्चमीविभक्त्यन्तप्रमाणप्रसिद्धिपदार्थे षष्ठीविभक्त्यर्थान्वयस्य युक्तत्वमिति शङ्काभिप्रायः । धर्म को पक्ष बनाने में कोई दोष नहीं है - यह फलित होता है। K. 'असत्प्रमाणप्रसिदिवः' यहाँ समासविवार नन्यस. इति । 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' का अर्थ 'प्रमाण प्रसिद्धि का अभाव होने से ऐसा करने पर भी यह समस्या तो यहाँ मुँह फाड़े सड़ी है कि यहाँ किस प्रकार के समास का अंगीकार किया जाय ? क्योंकि 'असच तत्प्रमाणं च' अर्थात् 'असत् ऐसा प्रमाण' इत्याकारक विग्रहवाला कर्मधारय समास तो 'असत्प्रमाण' पद में नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह समास अयोग्य है । एक ओर प्रमाण बोलना और दूसरी ओर उसे असत् = अविद्यमान कहना यह कैसे हो सकता है? प्रमाण हो तो उसे असत् कैसे माना जा सकता है और असत् हो उसे प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? अतः कर्मधारय समास अयोग्य है। यदि यहाँ 'प्रमाणप्रसिद्धरसत्' यानी 'प्रमाणप्रसिद्धि से अविद्यमान' ऐसा विग्रह बाला पंचमी तत्पुरुष समास माना जाय तो 'असत् पद का पूर्वनिपात नहीं हो सकता, क्योंकि पंचमी नत्पुरुष समास उत्तरपद प्रधान है । मगर मूलकारश्री ने कारिका में असत्पद का 'प्रमाणप्रसिद्धितः' के पूर्व में ग्रहण किया है । अतः तत्पुरुष समास का भी अंगीकार नहीं किया जा सकता । इन्द्र, बहुव्रीहि, द्विगु, अव्ययीभाव आदि समास की तो कोई संभावना ही नहीं है। अतः 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' यहाँ किस समास को मान्य किया जाय ? यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता है । अत्र केचि. इति । यहाँ उपर्युक्त उलझन को हटाने के लिए अमुक विद्वानों का यह कथन है कि → "सतः अभावः = असत् ऐसा तत्पुरुष समास करने पर असत्व अर्थ प्राप्त होता है । सत् के अभाव का मतलब असत्त्व ही होता है। इस असत्व पदार्थ में प्रमाणप्रसिद्धितः पद में रही हुई पंचमी विभक्ति के अर्थ का अन्वय होगा । असत्व के घटक सत्त्व में व्युत्पत्तिविशेप से प्रमाणप्रसिद्धि का अन्वय होगा । अतः 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' का अर्थ होगा प्रमाण प्रसिद्धि की विद्यमानता = सत्ता नहीं होने से (नित्यत्वानित्यत्व आदि में एकाश्रयवृत्तित्व निराबाध है)। इस पर यह शंका हो कि -> 'प्रमाणप्रसिद्धितः में प्रमाणप्रसिद्धिप्रातिपदिक के उत्तर में पंचमी विभक्ति है और आपने 'प्रमाणप्रसिद्धि की सना नहीं होने से' ऐसा अर्थघटन कर के पंचमी विभक्ति से अवरुद्ध = आक्रान्त प्रमाणप्रसिद्धि पद के अर्थ में पष्ठी विभक्ति के अर्थ का अन्वय किया है। मगर ऐसा अन्वय नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो प्रातिपदिक अन्य विभक्ति से अवरुद्ध होता है उसके अर्थ में दूसरी विभक्ति के अर्ध का अन्वय नहीं हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'नामूढस्येतरोत्पतेः' यहाँ भी यह समस्या
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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