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________________ * एकत्राऽवच्छेदकमेदेन नित्यत्वानित्यत्वसमावेश:* | मिति चेत् । तुल्यमिदमन्या । अपरे तु 'अ'इति प्रतिषेधार्थको निपात:, 'अ-मा-नो-ना प्रतिषेधे' ( ) इत्यनुशासनात् । तथा च सत्प्रमाणप्रसिध्देरभावादित्यर्थः । परे तु सत्पदं भावपरं, विरोधस्येति शेषाच्च विरोधस्याऽसत्वे प्रमाणप्रसिध्देरित्यर्थः ।। तथाहि- नित्यानित्यत्वे न विरुध्दे, मिनावच्छेदेनैका विशेषदर्शिना प्रतीयमानत्वात् संयोग ==* जयलता और प्रतिबन्द्या समादधते - तुल्यमिदं दूषणं अन्यत्र = 'नामूढस्येतरोत्पत्तेरि ति न्यायसूत्रे । उत्पत्तिपदस्य पञ्चमीविभक्त्यन्तत्वेन तदर्थे षष्ठीविभक्त्यर्धस्याऽन्वयोऽपि कथं स्यात् ? तथा चाऽमूढस्येतरोत्पत्तेरभावादित्येवमन्वयोऽप्यनुपपन्नः । न चैवं परेणाऽपि स्वीक्रियत इति तादृशनियमे सङ्कोचस्याऽऽवश्यकत्वेन प्रदर्शितन्यायसूत्रव्याख्यानबत् 'असत्प्रमाणप्रसिद्भित' इत्यत्रापि तथाविधान्वयस्य प्रामाणिकत्वमिति तात्पर्यम् । । अत्रैवाऽन्यमतमावेदयति- अपरे विति । 'अ' इति शब्दः प्रतिषेधार्थकः = अभाववाचकः निपातः, 'अ-मा-नोना प्रतिपेधे' इत्यनुशासनादिति । तथा च = दर्शितानुशासनबलाच्च असत्प्रमाणप्रसिद्धित इत्यस्य सत्प्रमाणप्रसिद्धेरभावादित्यर्थः । तथा नसनासनिबंचनानपक्तिरित्यापरवामभिप्रायः । अत्रैव परेषां मतमाविष्करोति- पर इति । सत्पदं भावपरं = सत्त्वबोधजननेच्छयोञ्चरितं, विरोधस्येति शेषाञ्च - | प्रकृतोपयोग्यश्रुतपदकल्पनाच्च, असत्प्रमाणप्रसिद्धित इत्यस्य विरोधस्याऽसत्त्वे प्रमाणप्रसिद्धेः = विरोधाभावप्रमाणप्रसिद्धेः इत्यर्थः विरोधस्य प्रतियोगितासम्बन्धेनाइसत्त्वे. तस्य च विषयतासम्बन्धेन प्रमाणेऽन्वयः तस्याऽपि विषयतासम्बन्धेन प्रसिद्धावन्धयः । कथं तत्प्रसिद्धिः । इत्याशङ्कायां प्रदर्शितार्थदायाय वदन्ति - तथाहीति । नित्याऽनित्यत्वे इति पक्षनिर्देशः । साध्य - माहः न विरुद्ध इति । विरुद्धवाभावः साध्यम । भिन्नावच्छेदेनैकत्र विशेषदर्शिना प्रतीयमानत्वादिति हेतनिर्देशः । संयोग ज्यों कि त्यों बनी रहती है, उत्पत्ति प्रातिपदिक = नाम पंचभी विभक्ति से अवरुद्ध है और उसके अर्थ का अन्वय पष्ठी विभक्ति के अर्थ में किया गया है, क्योंकि 'इतर की उत्पत्ति का अभाव होने से ऐसा अर्थघटन करने से स्पष्ट होता है कि उत्पत्तिपदार्थ में षष्ठी विभक्ति के अर्थ का अन्वय होता है, न कि पंचमी विभक्ति के, जो स्वाचकपद के अब्यवहित उत्तर में है, अर्थ का अन्वय । उक्त न्यायसूत्र में जैसे उपर्युक्त नियम का त्याग किया जाता है ठीक वैसे ही 'असत्प्रमाणप्रसिद्धिता' यहाँ भी प्रमाणप्रसिद्धि में पष्ठी विभक्ति के अर्थ का अन्वय भी हो सकता है। जो समाधान नैयायिक की ओर से 'नामूहस्येतरोत्पनेः' सूत्र की व्याख्या में किया जायेगा, वही समाधान 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' की व्याख्या में भी समान होगा । अतः उपदर्शित दिशा से व्याख्या करना संगत प्रतीत होता है"। अपरे, इनि । यहाँ अन्य विद्वानों की यह राय है कि -> 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः में 'शब्द निपात है, जिसका अर्थ प्रतिषेध = अभाव है, क्योंकि 'अ-मा-नो-ना प्रतिपेधे' इस अनुशासन से 'अ' शब्द का अर्थ प्रतिषेध = अभाव है - यह प्राप्त होता है। इसलिए 'असत्प्रमाणप्रसिद्धितः' का अर्थ होगा सत्प्रमाणप्रसिद्धि का अभाव होने से । इस तरह स्वप्रकृति के अर्थ से अन्चित अभाव और पंचमी विभक्ति के अर्थ में परस्पर अन्वय करने पर उपर्युक्त अर्थ फलित होता है - यह तात्पर्य है' -1 परे. इति । दुसरे मनीषियों का यह बक्तव्य है, कि सतपद भावपरक है यानी सत्शन्द का अर्थ सत्तावान् नहीं किन्तु सत्ता है । अतः असत्पद का अर्थ असत्त्व = अभाव । 'विरोधस्य' इस पद का अध्याहार करने पर अर्थ यह होगा कि विरोध के अभाव में प्रमाण प्रसिद्ध होने से अर्थात विरोधप्रतियोगिकाभावविषयक प्रमाण की प्रसिद्धि होने से नित्यत्व और अनित्यत्व आदि दो धर्म परस्पर अविरोधी हैं । यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि -> 'विरोधाभावविषयक प्रमाण कीन है ? उसका स्वरूप क्या है ?' - क्योंकि अनुमान प्रयोग से ही विरोधाभाव की सिद्धि होती है। वह इस तरह - नित्यत्वानित्यत्व दो धर्म परस्पर विरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि वे विशेपदी पुरुष से एक धर्मी में भिन्न अवच्छेदेन प्रतीयमान हैं, जैसे संयोग और संयोगाभाव । एक ही वृक्ष में शाखाअवच्छेदेन कपिसंयोग और मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव की प्रतीति होने से वे परस्पर । विरुद्ध = परस्पर के अनधिकरण में ही रहने वाले नहीं है। ठीक इसी तरह एक ही घट में द्रव्यतावच्छेदेन नित्यत्व और | घटत्वा-वच्छेदेन अनित्यत्व प्रतीयमान होने से वे एक धर्मी में परस्परविरुद्ध नहीं है, यह सिद्ध होता है। विरोधग्राहक 34
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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