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________________ कार्यत्वस्वरूपनिर्वचनम् * प्रतियोगित्वं प्रागभावप्रतियोगित्वं अ ( न ?) वच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण 'कालवृत्त्यन्ताभावप्रतियोगित्वं, "स्वानधिकरणीभूतकालवृत्यत्मन्ताभावप्रतियोगित्वं, "कालवृत्यन्योऽन्याभावप्र * जयलता सुरगुरुणाऽपि निराकर्तुमशक्यत्वादित्याशयेन स्याद्वादी नैयायिकमसमपनोदयति नेति । कार्यत्वं प्रकृते हेतुभूतं सकर्तृ'कत्वावच्छिन्न जनकतानिरूपितजन्यतावच्छेदकीभूतं वा कार्यत्वं हि प्रध्वंसप्रतियोगित्वं प्रध्वंसनिष्ठनिरूपकतानिरूपितप्रतियोगित्वम् । ध्वंसस्य कार्यत्वेऽपि प्रध्वंसाऽप्रतियोगित्वात्कल्पान्तरमाह प्रागभावप्रतियोगित्वं प्रागभावनिरूपितप्रतियोगित्वं तच्च ध्वंसेऽप्यस्तीति नाव्यापिता कालादिवारणाय प्रागिति असम्भववारणाय ' प्रतियोगी 'ति । - = = ४१२ दीधितिकारादिभिः प्रागभावस्यानभ्युपगमाद् गत्यन्तरमाह - अवच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण कालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमिति । जन्यमात्रस्य यत्किश्चित्कालावच्छेदेन वृत्तित्वात्तदितरकालावच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण कालाऽवृत्तित्वेन स्वानभिकरणकालाबच्छिन्नंविशेषणतासम्बन्धावच्छिन्नात्यन्ताभावप्रतियोगित्वाल्लक्षणसमन्वयः । तथापि परमागो: स्वानधिकरणदेशावच्छेदेन कालेऽत्यन्ताभावसत्त्वादतिव्याप्तिरि' त्यस्वरसादन्यमतमाह स्वानधिकरणीभूतकालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वमिति । परमाण्वादेः स्वानधिकरणदेशावच्छेदेन काले वृत्तित्वेन कालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वेऽपि कालस्य स्वानधिकरणत्वविरहात् स्वानाधिकरणकालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वाभावान्नातिव्याप्तिः । न चैवं घटादेरपि कार्यत्वमुच्छिद्येत, महाकालस्य घटाद्यधिकरणत्वेन स्वानधिकरणकालाऽप्रसिद्धेरिति बेगराज्यम्, काल्पना करनाऽभिमतत्वात् अन्यथा 'स्वानधिकरणीभूते' त्यस्य वैयssत्तेः । ततश्च कालिकविशेषणत्तासम्बन्धेन खण्डकालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं कार्यत्वमित्यत्र तात्पर्यमिति फलितार्थ: । न च तद्ध्वंसादिसत्त्वे कथं तदत्यन्ताभावस्य तत्र सत्त्वमिति वाच्यम्, ध्वंसादेः स्वप्रतियोग्यत्यन्ताभावविरोधित्वे मानाभावात् । नवीननैयायिकनयानुसारेण प्रकृतनिर्वचनमिति भावनीयम् । अत्रैवाऽन्यमतमाह- कालवृत्त्यन्यन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकस्वावच्छिन्नाधिकरणतात्वमिति । यः कश्चिदनित्यपदार्थ : स्वप्रागभावाधिकरणकाले स्वध्वंसाधिकरणकाले च नास्तीति तादृशकालवृत्तिस्तद्वदन्योन्याभावो भवत्येव यस्य प्रतियोगिताया अवच्छेदकेन स्वेन अनित्य पदार्थेनावच्छिन्नयाः = समानाधिकरणाया अधिकरणताया निरूपकत्वतं कार्यत्वमित्यर्थः । भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वञ्चान कालिकसम्बन्धावच्छिन्नं ग्राह्यम् । तेन सम्बन्धान्तरावच्छिन्नावच्छेदकताकप्रतियोगिताकनित्पपदार्थ कार्यत्व ही एकविध नहीं है किन्तु अनेकविध है । अतः कार्यत्वावच्छिन्न सकल कार्य से निरूपित कारणता का अवच्छेदक कर्तृत्व भी अनेकविध हो जाता है, न कि एकविध । (१) घटादि भाव कार्य में रहने वाला कार्यत्व प्रध्वंसप्रतियोगित्वस्वरूप है । जो भाव उत्पन्न होता है, उसका कभी न कभी ध्वंस जरूर होता है । अतः उसमें ध्वंस की प्रतियोगिता रहती है। | अतः भाव कार्य में रहने वाला कार्यत्व ध्वंसप्रतियोगित्वस्वरूप है । (२) मगर घटादि की भाँति घट आदि का ध्वंस भी कार्य है । अतः कार्यत्व का लक्षण उसमें रहना आवश्यक है । ध्वंस का कभी भी ध्वंस नहीं होना । अतः ध्वंसप्रतियोगिता घटस आदि में नहीं रहेगी, फिर भी वहाँ कार्यत्व रहता है । इसलिए ध्वंस में प्रागभावप्रतियोगित्वस्वरूप कार्य मानना होगा । घटध्वंस का प्रागभाव होता है । अतः प्रागभावनिरूपित प्रतियोगिता घटादि के ध्वंस में रह सकती है । वही कार्यत्व है । (३) नव्य नैयायिक कार्यत्व को अवच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से काल में रहने वाले अत्यन्ताभाव की प्रतियोगितास्वरूप मानते हैं । उनका यह आशय है कि नित्य पदार्थ काल में सर्वदा रहता है, उसका अत्यन्ताभाव काल में नहीं रहता है । जब कि कार्य = जन्य पदार्थ काल में अमुक भाग में रहता है, अमुक काल में उसका अत्यन्ताभाव भी रहता है। सावच्छिन्नकालिकविशेषणता सम्बन्ध से जन्य पदार्थ का काल में अत्यन्ताभाव भी रहने से अवच्छिनकालिकविशेषणतासम्बन्धावच्छिनप्रतियोगिताक कालवृत्ति अत्यन्ताभाव से निरूपित प्रतियोगिता जन्य पदार्थ में रहती है, वही कार्यत्व है। जैसे सोमवार को घट उत्पन्न हुआ और मंगलवार को नष्ट हुआ ऐसी स्थिति में मंगलवारावच्छिन कालिकविशेषणता सम्बन्ध से काल में वह घट नहीं रहता : है अतः तादृशसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक घटात्यन्ताभाव काल में रहेगा और उसकी प्रतियोगिता तद्घट में रहेगी, बही तदुद्घटनिष्ठ कार्यत्व है । नव्य नैयायिक ने ध्वंस और अत्यन्ताभाव में विरोध को मान्य नहीं किया है। अतः उनके मतानुसार काल में घटध्वंस और घटात्यन्ताभाव भी रह सकता है । (४) अन्य विद्वानों का यह अभिप्राय है कि स्वानधिकरण काल में रहने वाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगित्व ही कार्यत्व है । स्व = घटादि कार्य । जैसे प्रलयकाल घटादि जन्य द्रव्य का अनधिकरण होने से प्रलयकालवृत्ति अत्यन्ताभाव की प्रतियोगिता घटादि में रहती है, वही कार्यत्व है । नित्य पदार्थ में कभी भी कालवृत्ति अत्यन्ताभाव की प्रतियोगिता नहीं रह सकती, क्योंकि नित्यपदार्थानधिकरणीभूत काल ही अप्रसिद्ध है । अतः
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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