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________________ ४१३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ *बहत्स्याद्वादरहस्यमंवादः * . .. ... |-- -.--- --.-:-- तियोगितावच्छेदकस्वावच्छिमाधिकरणताकत्वतं यावत्कालवृत्तिभिमत्वं वा न तदवच्छिता -- ---* जयलता --- वदन्योन्याभावमादाय न परमावादावतिव्याप्तिः; नित्यपदार्थस्य सर्वदा कालिकसम्बन्धेन काले सत्त्वेन कालिकावच्छिन्नाबच्छेदकताकप्रतियोगिताकनित्यपदार्धवदन्योन्याभावस्य कालनिरूपितवृनित्वशून्यल्वात् । तदघटध्वंसदशायां 'इदानीं कालो न तद्घटाधिकरणक:' 'तद्घटध्वंसविशिष्टकालो न कालिकेन तट्यटविशिष्टः' इत्यादिप्रतीत्या प्रसिद्धस्य कालवृत्तेः तद्घटाधिकरणकप्रतियोगिकभेदस्य तद्घटविशिष्ट मंदस्य च या प्रतियोगिता तदवच्छेदकेन स्वेन = तद्धटन अवच्छिन्ना = समानाधिकरणा या कालवृत्त्यधिकरणता तन्निरूपकत्वं तदुघटे व्याहतमेवेति भवति तत्र लक्षणसङ्गतिः । स्वपदेन विवक्षितकार्यग्रहणम् । परमाग्वादे हणवारणाय 'कालवृत्त्यन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदके ति स्वविशेषणम् ।। कालविशेषावच्छेदेनैकस्मिन्नेव काले यो यदभावश्च वर्तते तस्यैवापदर्शिताधिकरणाताकत्वरूपस्य कार्यत्वस्य सम्भवः । दर्शितकार्यत्वस्य गुरुत्वाशङ्कायां कल्पान्तरमाह - यावत्कालवृत्तिभिन्नत्वं वेति । यावत्कालवृत्तिः परमाण्वादिः तद्भिन्नत्वञ्च घटादाविति भावः । न च यावत्कालवृत्तेः परमाणोः भेदस्य मनसि सच्चादतिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, यावत्कालवृत्तितावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदस्य विवक्षितत्वात्, मनसि यावत्कालवृनित्वस्य सत्त्वेन तदवच्छिन्नभेदाऽयोगादन्योन्याभावस्य स्वप्रतियोगितावच्छेदकव्यधिकरणत्वात् । न चान्त्यपक्षचतुष्टये प्रागभावेऽतिव्याप्तिरिति वाच्यम्, सावच्छिन्नकालवृत्तिपदार्थस्य कार्यत्वनये प्रागभावस्यापि लक्ष्यत्वात् । अत एव वृहत्स्याद्वादरहस्ये 'प्रागभावप्रतियोगित्वस्य पर्यवसितस्य तस्य प्रागभावेऽन्याप्तेश्व' (बृ. स्या.१. श्लो.१ टीका) इत्याभिधानं घटते । तस्याऽलक्ष्यत्वनये तु चरमपक्षचतुप्के 'सत्त्वे सतीति विशेषणं देयमिति न दोषः । प्रकृते कार्यत्वं स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपं न ग्राह्यम्, पक्षवृत्तिकार्यत्वस्य पक्षात्मकतया अनुगमकरूपाभावेन च सपक्षावृत्तित्वादसाधारण्यापत्तेः । अत एव पक्षताबच्छेदकत्वं स्वरूपसम्बन्धविशेषरूपकार्यत्वस्येत्यपि प्रत्युक्तम्, स्वरूपसम्बन्धरूपकार्यताव्यक्तीनां तत्तद्व्यक्तिमात्रपर्यवसितत्वेनानुगतपक्षतावच्छेदकबिरहात् । न च अन्यतमत्वेनानुगतीकृतानां पक्षतावच्छेदकत्वमिति वाच्यम्, तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नत्वे सति तद्भिन्नभिन्नत्वरूपस्यान्यतमस्यानुगमकत्वे महागौरवात् । नृसिंहस्तु -> 'स्ववृत्तिमहाकालान्यत्व-कालिकविशेषणत्वो भयरसम्बन्धेन सत्तावत्त्वमेव कार्यत्वं सर्वत्राऽनुगनं हेतुः । महाकालव्यावर्तनाय स्ववृत्तिमहाकालान्यत्वस्य सम्बन्धकोटी निवेशः । स्ववृत्तित्वं तद्वत्त्वञ्च देशिकविशेषणतया बोध्यम् । परमाण्वादिवारणाय कालिकदिशेषतासम्बन्धनिवेश' (म.प्र.पू. ४१) इत्याह । 'आद्यक्षणसम्बन्धित्वं कार्यत्वमि'त्यन्ये । 'नियतपश्चाद्भावित्वं कार्यत्वमि' त्यपरे । 'कृतिसाध्यत्वे सति कृत्युद्देश्यत्वं कार्यत्वमिति कश्चित् । 'अभूत्वा भावित्वं कार्यसमिति तु प्राञ्चः । कृतियोग्यत्वे सति अलौकिकत्वं कार्यत्वमिति मीमांसकाः। 'कारणत्वाभिमतवस्त्वभिन्नत्वमिति वेदान्तिनः । 'उपादानक्षणजन्यत्वं कार्यत्वमिति सौगताः । 'आविर्भावः कार्यत्वमिति अतिव्याप्ति दोष का अवकाश नहीं है। (५) अन्य मनीपियों का यह कथन है कि कालवृत्ति अन्योन्याभाव के प्रतियोगितावच्छेदकीभूत स्व से अवच्छिन = 'समानाधिकरण अधिकरणता का निरूपकत्व ही कार्यत्व है। जैसे घटप्रागभावविशिष्ट या घटध्वंसविशिष्ट कालविशेष में घटादि कार्य से विशिष्ट काल का भेद रहता है। उसके प्रतियोगितावच्छेदक घट से अवच्छिन्न = समानाधिकरण अधिकरणता का निरूपकत्व घट में रहता है, वहीं घटनिष्ठ कार्यत्व है । परमाणु आदि नित्य पदार्थ से विशिष्ट काल का काल में भेद नहीं रहता है। अतः परमाणु आदि कालवृत्ति भेद की प्रतियोगिता का अपच्छेदक ही नहीं हो सकता । अतः परमाणु में तादृश अधिकरणता का निरूपकत्व नामुमकिन है । जो स्वयं काल में रहता हो और कालविशेष में उसका अभाव भी रहता हो उसी में दर्शित अधिकरणता का निरूपकत्व रहता है । अतः तादृश कार्यत्व नित्य पदार्थ में नामुमकिन है। स्वपद से यहाँ जन्य भाव घट आदि अभिमत है। (६) अन्य प्राज्ञ पुरुषों का यह मन्तव्य है कि कार्यत्व यावत्कालवृत्तिभिन्नत्वस्वरूप है। संपूर्ण काल में परमाणु आदि नित्य पदार्थ रहते हैं, मगर घटादि जन्य पदार्थ संपूर्ण काल में नहीं रहते हैं, क्योंकि अमुक काल में उसका अभाव भी रहता है। अतः घटादि जन्य पदार्थ में यावत्कालवृत्तिभिन्नत्व रहेगा । वही तनिष्ठ कार्यत्त्व है। इस तरह नैयायिक विद्वानों ने ही कार्यन्व को अनेकविध माना है, तब अनेकविध कार्यत्व से अवच्छिन्न की कारणता का अवच्छेदक कर्तृत्व भी एक नहीं हो सकता । जब कि इस तरह कार्यत्वावच्छिन्न के प्रति कर्तृत्वेन कारणता मानने पर भी अनेकविध कर्तृत्व के स्वीकार का गौरव अपराहत ही है। कार्यत्व भिन्न भिन्न होने पर उससे अवच्छिन्न भी भित्र भिन्न होगा, अवच्छेदक भिन्न होने पर अवभिन्न एक कैसे हो सकता है ? अवच्छिन्न भिन्न भिन्न होने पर उससे निरूपित कारणता कैसे एक हो सकेगी। निरूपक विलक्षण होने पर तत्रिरूपित कारणता भी भिन्न होगी। कारणता अलग अलग होने पर
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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