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________________ ३२३ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ - का. * अर्थसमाजसिद्धस्य कार्यतानवच्छेदकता * | उद्धतस्पर्शत्वस्याऽर्थसमाजसिब्दत्वेन कार्यतानवच्छेदकत्वादित्यन्यत्र विस्तरः । । -- ---* जयलता * मृतस्पर्शस्याऽसमवायिकारणत्वात्, यधा घटोद्भूतस्पर्दा प्रति कपालोद्भूतस्पर्दास्य । ततश्च चतुरणुकोद्भूतस्पर्शान्यथानुपपत्त्या त्रुटिस्पर्शस्योद्भूतत्वं सिध्यतीति नोद्भूतनीलरूपं उद्भूतस्पशव्यभिचारि । इत्थं 'नीलं तम' इति प्रतीत्या भ्रमत्वसिद्धेः रूपान्तरस्य च तत्रा सत्त्वात् विशेषाभावकूटस्य सामान्याभावसाधकत्वेन न तमसो रूपवत्त्वं. येनं तद्रव्यत्वसिद्धिमनोरथः पूर्यतेति शङ्काग्रन्थाशयः । प्रकरणकारस्तां प्रत्यारख्याति - उद्भूतस्पर्शत्वस्येति । 'कार्यतानवच्छेदकत्वादि'त्यत्राऽन्वयोऽस्य । तत्र हेतुमाह - अर्धसमाजसिद्धत्वेनेति । अर्धसमाजसिद्धत्वं नाम सामग्रीद्वयनयोज्यं, अर्थः = सामग्री, समाजः - तत्समुदायः, तसिद्धं -- तत्प्रयोज्यमिति तदर्थात् । यद्धा अर्थानां = कारणान्तराणां समाजः - समदायः. तत्सिद्धं = तत्प्रयोज्यधर्मघटितमिति । भवति च नीलघटत्वं विशेषण-विशेष्यांशप्रयोजकसामग्रीद्रयग्रयोज्यमिति तधा । घटत्वस्यैव कपालादिजन्यतावच्छेदकत्वाद् घटीयनीलरूपत्वस्यैव च कपालनीलजन्यतावच्छेदकत्वानीलघटत्वस्थाऽर्थसमाजसिद्धत्वं प्रतीयत एव । अत एव न तस्य कार्यता. बच्छेदकल्बमभियुक्तानां सम्मतम् । प्रकृते चोद्भूतस्पर्शत्वमपि विशेषण- विशेष्यांशप्रयोजकसामग्रीद्वयप्रयोज्यमिति तथा । अत एव न तस्या:पि अवयवोद्भूतस्पर्शकार्यतावच्छेदकत्वं सण्टङ्ककोटीरतामटाट्यते, अन्यथा नीलघटत्वस्यापि नीलेतरकपालकार्यता- ।। बरछेदकत्वमापद्येत । न च तथापि घटवृत्तिनीलत्व-घटत्वयोः कपालसमवेतनीलरूप-कपालनिरूपितकार्यतावच्छेदकत्वमिबाबयविस्पर्शोद्भूतत्वत्स्पर्शत्वयोरप्यवयवस्पर्णोद्भूतत्व-रपाकीटावच्छेतमालम्वन करपणे दूरसापाभक-त्रसरेणुस्पर्शोद्भूतत्वकल्पनाया आवश्यकत्वेनोगतनीलरूपस्योद्धतस्पर्शाव्यभिचारित्वात नीलं तमः' इति प्रतीतेः भ्रमलसिया न रूपवत्त्वात्तमसो द्रव्यवसिद्धिरिति वाच्यम, नियतारम्भवादस्य साइल्ययातायां निरस्तत्वात । एतेनाऽवयन्यूद्भतरूपर्श प्रत्यवयवोद्भतस्पर्शस्यक हेतुलमिनि प्रत्युक्तम्, अदृष्टादिनिमिनविशेषादपि अवयविरगर्मोद्भुतत्वसम्भवादिति सद्धपः । उद्भूत नील रूप का व्यापक ही नहीं है । अत्र्यापक के अभाव से व्याप्याभाव की सिद्धि नहीं हो सकती है। यहाँ यह शंका हो कि -> "सरेणु के स्पर्श को अनुद्धत मानने पर चतुरणुक (चार त्र्यणुक से निप्पन्न द्रव्य) में उद्भुत स्पर्श असमवायिकारण है । प्रसरेणु चतुरणक का अवयव है । अतः यदि उसमें उद्भुत स्पर्श नहीं होगा तो उसके कार्य चतुरणक में उद्भूत स्पर्श का जन्म नहीं हो सकेगा । कार्य और कारण के धर्म में साजात्य होता है, वैजान्य नहीं 1 यही नैयायिक मनीपियों के अभीष्ट नियतारम्भवाद का मर्म है। तंतु में नील रूप होने पर पट में क्या शुक्ल रूप जन्म मुमकिन है ? चतुरणुक द्रव्य :' में तो वद्भूत स्पर्श ही होता है, अन्यथा न तो चतुरणुक का स्मार्शन प्रत्यक्ष होगा और न नो चतुरणुकस्पर्श का । मगर चतुरणुक एवं उसके स्पर्श का स्पार्शन साक्षात्कार होता है । इसलिए चतुरणुक के स्पर्श को उद्धृत मानना अनिवार्य है। वह तभी मुमकिन है यदि चतुरणुक एवं उसके स्पर्श के आरम्भक त्रसरेणु के स्पर्श को उद्धृत माना जाय । इसलिए त्रसरेणुसमवेत स्पर्श को उद्भुत ही मानना उचित है, न कि अनुभूत । इस परिस्थिति में आपसे दर्शित प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव का स्वीकार करने पर पुनः त्रसरेणुस्पर्श विषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति वज्रलेप हो जायेगी" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवसमवेत उद्भूत स्पर्श का कार्यतावच्छेदक उद्भूत-स्पर्शत्व नहीं है किन्तु स्पर्शत्व ही है, क्योंकि उद्धृतस्पर्शत्व नो अर्थसमाजसिद्ध है । । जब दो पृथक् पृथक् सामग्री से दो पृथक् पृथक कार्य का जन्म होता है तब वह कार्य अर्थसमाजसिद्ध कहा जाता है, जैसे कपालादि से घट का एनं कपालनीलरूप से घरनीलरूप का जन्म होने पर नील घट अर्थसमाज(अनेक सामग्री) से सिद्ध = जन्य बनता है। इस परिस्थिति में नीलघटत्व न तो कपाल का कार्यतावच्छेदक बन सकता है और न तो कपालनीलरूप का। ठीक इसी तरह स्पर्श अपनी सामग्री से उत्पत्र होता है और उसमें उद्भुतता अन्य सामग्री से । अतः उद्भूतस्पर्वा अर्थसमाजसिद्ध कहा जाता है । अतएव उद्धृतरुपर्शत्व भी नीलघटत्व की भाँति अवयवस्पर्श या अवयवस्पर्शउद्भुतता का कार्यतावच्छेदक नहीं हो सकता है । तब 'अवयत्री के उद्भुत स्पर्श का अवयवउद्भुतस्पर्श कारण है यानी अवयवीउद्धृतस्पर्शत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपित कारणता का आश्रय अवयवसमवेत उद्धृतस्पर्श है' यह कैसे कहा जा सकता है ? दूसरी बात यह है कि नियत्तारम्भबाद में कोई प्रमाण न होने से वह भी हमें अमान्य है । इस बात का विस्तार से अन्यत्र निरूपण किया गया है। इसलिए सरेणु के अनुद्भून स्पर्श से भी अदृष्टादि निमित्तविशेष के सान्निध्य से चतुरणुक में उद्धृत स्पर्श का जन्म हो सकता है । इसलिए जसरेणु के स्पर्श को अनुद्भुत मानने में कोई बाध नहीं है। अतः उद्भूत नील रूप को उद्भूत स्पर्श का व्याप्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि नीलीद्रव्य के ब्रसरेणु में उद्भूत नील रूप भी उद्भूत स्पर्श का व्यभिचारी है। इसलिए अन्धकार में रूपबत्त्व हेतु से द्रव्यत्वसिद्धि निरावाध है। अन्धकार में नील रूप रहता ही है ।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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