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________________ * प्राचीनजैनाचार्यमतप्रकाशनम् 'इदानीं मे शरीरं शीतलीभूतमिति प्रतीत्या तमसः उद्भूतस्पर्शवत्त्वमप्यानुभविकमिति तु वृदाः । तेषामयमाशय:, यथाहि उद्भूतशीतस्पर्शवत एव जलस्य संयोगाद् देहे शैत्यं प्रतीयते तथा तमसोऽप्युद्भूतशीतस्पर्शवत्त्व एव तत्संयोगाच्छरीरे शैत्यप्रतीतिरुपपत्तिमती, तादृशस्यैव तस्य परम्परासम्बन्धेन शैत्यप्रतीतिजनकत्वात् तत्परिणामकत्वादवा । ननु तर्हि तमसि तत्प्रतीति: कुतो न भवतीति चेत् ? योग्यतामेवेदं परिपृच्छ । 'नील जयलवा = साम्प्रतं प्राचीन जैनाचार्याणां मतं प्रदर्शयति- 'इदानीमिति । घनतरान्धकारकाले इति । उद्भूतस्पर्शवत्त्वमपीति । अपिशब्देनोद्भूतनीलरूपवत्त्वसमुच्चयः कृतः । आनुभविकं सार्वजनीनानुभवसिद्धम् । वृद्धाः श्रीवादिदेव - रत्नप्रभाादिपूर्वाचार्याः, मीमान्सितवन्त इति शेषः । तेषां श्रुतवृद्धस्याद्रादिपूर्वाचार्याणाम् । तत्संयोगात् = तमः संयोगात् । अनेन शरीरे शैत्यस्य प्रतीयमानत्वात् शीतस्पर्शः शरीरस्यैव न तु तमस इति प्रत्युक्तम्, 'जलसंयोगाच्छरीरे शैत्यप्रतीतेः शीतस्पर्शो देहस्यैव न तु जलस्येत्यस्याऽपि वक्तुं शक्यत्वात् । न चोद्भूतशीतस्पर्शयता एव जलेन स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन शरीरस्पर्शे शीतत्वप्रतीतिर्जन्यत इति वाच्यम्, उद्भूतशीतस्पर्शवितव तमसा स्वसंयुक्तसमवेतत्वसंसर्गेण शरीरस्पर्शे शीतत्वप्रतीतिर्जन्यत इत्यस्यापि सुवचत्वादित्याशयेन प्रकरणकारः प्राह- तादृशस्यैवेति । उद्भूतशीतस्पर्शवत्त एवेति एवकारेणाऽनुद्भूतशीतस्पर्शयतः स्पर्शशून्यस्य वा व्यवच्छेदः कृतः । तस्य = तमसः । परम्परासम्बन्धेनेति । स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन, स्वपदेन तमोग्रहणं, तत्संयुक्तः देहः, तत्समवेत्तचं देहस्पर्शः । तादृशतमश्च स्वसंयुक्तसमवेतत्व संबन्धेन तत्र वर्तत इति तत्र शीतत्वप्रकारकप्रतीतिः विषयतासम्बन्धेनोपजायते इति भावः । इदच परमताभ्युपगमेनोक्तम् । वस्तुतस्तु स्वमते यधोद्भूतरतरूपवज्जपाकुसुमेन स्वसन्निहितस्फटिके रक्तिमापरिणामो जन्यते तथैवोद्भूतशीतस्पर्शबदन्धकारेण स्वसम्बद्धशरीरे शैल्यपरिणाम उत्पाद्यत इत्याशयेनाऽऽह तत्परिणाम - कत्वाद्धेति । शैत्यपरिणामकलाद्धेति । नमो देहातीतत्वेन परिणामयतीति तमस उद्भूतशीतस्पर्शवत्त्वसिद्धिः । न हि नीलोत्पलं स्वसमीपस्थस्फटिकरूपं कदापि रक्तत्वेन परिणामयति । शैत्यधीः, नैयायिक शङ्कते नन्विति । तति । तमस उद्भूतशीतस्पर्शवत्त्वेऽभ्युपगम्यमाने । तमसि तत्प्रतीतिः - = ३२४ -अन्धकार शीतस्पर्शवाला है - प्राचीन मैनाचार्य इदानीं इति । प्रकरणकार महोपाध्यायजी ने यहाँ तक 'उद्धृत नील रूप उद्धृतस्पर्श का अव्याप्य होने से अन्धकार में उद्धृत स्पर्शाभाव से उद्धृतनीलरूपाभाव की सिद्धि नहीं हो सकती है' ऐसा अपनी प्रतिभा से प्रतिपादन कर के अब पूर्व जैनाचार्य के मत को बताते हैं । पूवाचार्यों का यह कथन है कि 'गाढ अन्धकार के समय रात्रि में "अभी मेरा शरीर शीतल हो गया है" ऐसा सभी लोगों का अनुभव है । इस अनुभव से अन्धकार में उद्भूत स्पर्श भी सिद्ध होता है । इसलिए " अन्धकार में उद्भूत स्पर्श न होने से उद्भूत नील रूप भी नहीं रहता है" ऐसा नहीं कहा जा सकता । ऐसा प्रतिपादन करने वाले ज्ञानवृद्ध जैनाचार्यों का अभिप्राय यह है कि जैसे जल में उद्भूत शीत स्पर्श होने पर ही जलसंपर्क से अपने शरीर में शीतलता का भान हो सकता है। ठीक वैसे ही अन्धकार में उद्धृत शीत स्पर्श होने पर ही उसके संयोग से अपने शरीर में सैन्य की प्रतीति हो सकती है । उद्भूत शीतस्पर्शबाले जल से जब शरीर संयुक्त होता है तब शरीर में रहे हुए शीतत्व का ज्ञान होता है । अर्थात् उद्भूतशीतस्पर्शविशिष्ट ही जल स्वसंयुक्त(शरीर ) समवेतत्वसम्बन्ध से शरीरस्पर्श में शीतत्वप्रकारक ज्ञान का जनक होता है। ठीक उसी तरह उद्भूत शीत स्पर्श से विशिष्ट ही अन्धकार स्व (अन्धकार) संयुक्त (शरीर ) समवेतत्वसम्बन्ध से, जो प्रकरणस्थ परम्परासम्बन्धशब्द से बताया गया है, शरीरस्पर्श में शीतत्वविशेपणक प्रतीति का जनक हो सकता है। अग्नि आदि में शील स्पर्श नहीं होने से परम्परासम्बन्ध से भी अग्नि शरीरस्पर्श में शीतत्व की प्रतीति का जनक नहीं होता है । इसी तरह यदि अन्धकार में उद्भूत शीत स्पर्श न हो तो कभी भी वह परम्परासम्बन्ध से शरीरस्पर्श का शीतत्वरूप से भान नहीं करा सकता । मगर तादृश प्रतीति को अन्धकार उत्पन्न करता है । अतएव वह उद्भूत शीतस्पर्शबाला है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जैसे शीतस्पर्श वाला ही जल शरीरस्पर्श का शीतत्वेन परिणमन कर के 'शरीरस्पर्श शीत है' इस प्रतीति का जनक है। ठीक उसी प्रकार उद्भूत शीतस्पर्श वाला ही अन्धकार शरीरस्पर्श का शीतत्वेन परिणमन करा यह भी माना जा सकता है । अन्धकार में यदि उद्भूत शीत स्पर्श न हो कर सकता ? अतः अन्धकार में उद्धृत शीतस्पर्श का स्वीकार आवश्यक है ।' "यदि अन्धकार में उद्भुत शीत स्पर्श है, तो अन्धकार में शील स्पर्श का . कर शरीरस्पर्श का शीतत्वेन भान कराता है। तब वह शरीरस्पर्श का शीतत्वेन रूपांतर कैसे ननु इति । यहाँ यह प्रश्न हो कि -
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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