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________________ * त्रुटिस्पर्शस्यानुद्धृतत्वम् ६२५ कल्पयित्वा त्रुटि स्पर्शेऽनुद्भूतत्वकल्पनस्यैवौचित्यात् । न चाऽवयव्युद्भूतस्पर्शं प्रति अवयवोद्भूतस्पर्शस्यैव हेतुत्वात्कथं चतुरणुकोद्भूतस्पर्शारम्भकस्य त्रुटिस्पर्शस्याऽनुद्भूतत्वमिति वाच्यम्, मयलता & घटाकाशसंयोगादिव्यासज्यवृत्तिगुणस्पार्शनप्रसङ्गोऽपि प्रत्युक्तः, घटसंयोगाश्रयाकाशस्य समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकॊद्भूतस्पर्शाभावाश्रयत्वेन तादृशसंयोगादौ स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकस्य सत्त्वात् । न च तथापि घटायेकैकप्रतियोगिकत्वक्संयोगदशायां घटपटसंयोगादिस्पार्शनं दुर्वारमिति वाच्यम्, संयोगाद्याश्रयत्वावच्छेदेन त्वक्संयोगस्य द्रव्यान्य-द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति नियामकत्वाऽभ्युपगमात् । तादृशनियमस्य फलबलकल्प्यत्वान्न गौरवमिति तात्पर्यम् । 'तथापि त्रुटि स्पर्शस्पानं दुर्निगरं स्यान पुरी करपर्शस्य सत्त्वेन तत्र समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताको द्भूत स्पर्शाभावस्य | प्रतिबन्धकस्य विरहादित्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह- त्रुटिस्पर्शेऽनुद्धृतत्वकल्पनस्यैवौचित्यादिति । तथा च प्रतिबन्धकीभूतस्य | समवायावच्छिन्नोद्भूतस्पर्शाभावस्य सत्त्वान्न त्वगिन्द्रियसंयुक्तत्रुटिस्पर्शे विषयतासम्बन्धेन द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नोत्पत्तिः । एवञ्च नीलत्रसरेणावुद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वान्न तमस उद्धृतनीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वं येन 'नीलं तम' इति प्रतीतेः भ्रमत्वं स्यात् । ततश्च रूपवत्त्वस्य स्वरूपासिद्धिकलङ्कपङ्कक्षालितत्वेन तमोद्रव्यत्वसिद्धिरित्याशयः । वस्तुतस्तु घटप्रभासंयोगादाँ द्रव्यान्य द्रव्यसत्त्वाचप्रतिबध्यतावच्छेदक- पराभिमत-जातिस्थानीयत्वगऽग्राह्यतास्वभावादेव न स्पार्शनत्वमिति न द्रव्यान्य- द्रव्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोद्भूतस्पर्श भावस्यैव स्वाश्रयसमवे तत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकत्वकल्पनावश्यकी । अत एव समवायानभ्युपगमे स्याद्वादिना कथमेतादृशप्रतिबन्धककल्पना कर्तुं युज्यत इत्युक्तावपि न क्षतिः इति ध्येयम् । अथ बसरेणोरनुद्भूतस्पर्शवत्त्वे चतुरणुकस्पर्श उद्भूतत्वं न स्यादिति शङ्कां निराकर्तुमुपक्रमते न चेति । 'बाच्यमि त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । अवयन्युद्भूतस्पर्श प्रति अवयवोद्भूतस्पर्शस्यैव, एवकारेण अदृष्टादिनिमित्तविशेषव्यवच्छेदः कृतः । हेतुत्वात् असमवायिकारणत्वात् । ततश्वावयन्युद्भूतस्पर्शत्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपिताऽसमवायिकारणता अवयवोद्भूतस्पर्शत्वनिरूपितेति फलितोऽर्थः । कथं चतुरणुकोद्भूतस्पर्शारम्भकस्य त्रुटिस्पर्शस्यानुद्भूतत्वमिति । 'स्यादिति शेषः । तथाहि चतुर्भिः त्रसरेणुभिरेकश्चतुरक आरभ्यते । तस्य तत्समवेतस्पर्शस्य च स्पार्शनत्वा चतुरशुकस्पर्शस्योद्भूतत्वं निर्विवादसिद्धम् । तदसमवायिकारणत्वं त्रुटिस्पर्श तदेव स्यात् यदि त्रुटिस्पर्श उद्भूतः स्यात्, समवायेन अवयस्युद्भूतस्पर्श प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयवोसाक्षात्कार तो साम्प्रदायिक है । उसके विषय में भिन्न भिन्न सम्प्रदाय में विवाद है कि वह होता है या नहीं ? इसलिए | उसकी ओर दृष्टि केन्द्रित किये बिना भी हमारा प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव संगत हो सकता है । इसलिए उपर्युक्त दो हेतु के कारण हमारा अभिमत प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव समीचीन है। यहाँ यह शंका करना कि "यदि द्रव्यान्य द्रव्यवृत्तिविषयक स्पार्शन साक्षात्कार के प्रति स्वाश्रयसमवेत्तत्वसम्बन्ध से समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिता उद्धृतस्पर्शाभाव को प्रतिबन्धक माना जाय और उसके अभाव को कारण माना जाय तब तो त्रसरेणुविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष होने की आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहेगी, क्योंकि त्रसरेणु में उद्भूत स्पर्श रहने की वजह समवायसम्बन्धावच्चिचप्रतियोगिताक उद्भूतस्पर्शाभाव उसमें नहीं रहने से स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से वह त्रसरेणुवृत्ति गुणादि में भी नहीं रहता है। प्रतिबन्धक न रहने से त्वगिन्द्रियसंयोग जब त्रसरेणु के साथ होगा तब उसका स्पार्शन प्रत्यक्ष होना अनिवार्य है। मगर सरेणुस्पर्शविपयक स्पार्शन साक्षात्कार होता नहीं है । इसलिए दर्शित प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव अमान्य है" < = इस उद्भूतनीलरूप उद्भूतस्पर्श का व्याप्य नहीं है - स्याद्वादी त्रुटिप इति । भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि जब लाघव तर्कादि के सहकार से सामान्यतः दर्शित प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव निश्रित होने पर उसे अमान्य करना नामुनासिव है। हाँ, सरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन साक्षात्कार की आपत्ति का निराकरण जरूर करना चाहिए। इसका अपाकरण करने के लिए यह माना जा सकता है कि त्रसरेणु का स्पर्श अद्भुत है । त्रसरेणु में स्पर्श के होने पर भी उद्भूत स्पर्श का अभाव, जो गुणादिस्पार्शन प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक है, होने से त्रसरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन साक्षात्कार का उदय नहीं होता है यही कल्पना समुचित है, न कि लौकिक-विपयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनाभाव में तादृक्ष प्रतिबन्धकता की कल्पना । इस तरह नील त्रसरेणु में उद्भूत नीलरूप उद्भूत स्पर्श का व्यभिचारी होने से अन्धकार में नीलरूपवत्ता का बाधक उद्भूतस्पर्शाभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि उद्भूत स्पर्श -
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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