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२३९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * अभावांशे संसर्गविचारः * । इति (A) वाच्यम्, तृतीयान्तपदस्थले एव तल्लिवितधर्मावच्छिमप्रतियोगिताकत्वस्यैव संसर्ग- | त्वात्, अन्यथा 'घटत्वेन कम्बुग्रीवादिमानास्तीति प्रतीतेण्यप्रामाण्यापतेरिति वाच्याम्, (Z)
== = = = ==* गयलता *F= = = = ___ स्याद्वादी अवान्तरशङ्काकर्तुराशयस्याऽश्रद्धेयत्वमाविष्करोति- तृतीयान्तपदस्थले एवेति । एवकारेण प्रथमान्तस्थलव्यवच्छेदः कृतः । तदुल्लिखितधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वस्यैव = तृतीयान्तपदोल्लिखितधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वस्यैव संसर्गत्वात् = तृतीयान्तपदोल्लिखितधर्मसम्बन्धत्वादिति । अयं स्याद्वादिनोऽभिप्रायः, 'फ्टो नास्ती'त्यत्र तृतीयान्तपदोपस्थापितधर्मस्य. विरहात् तत्राऽन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वसंसर्गेण पटत्वस्यात्यन्ताभावे भानं युक्तिमत्, परन्तु तृतीयांतपदसमभिन्याहारस्थले तु तृतीयान्तपदोपस्थापितधर्मावच्छिन्नाभावीयप्रतियोगिताकत्वस्यैव संसर्गत्वम् । अतः घटत्वेन पटो नास्ती' त्यत्र तृतीयान्तपदेनोपस्थापितस्य घटत्वस्य स्वावच्छिन्नप्रतियोगितानिरूपकत्वसंसर्गेणाभावांशे भान युक्तिसहमेव ।
विपक्षबाधमुपदर्शयति - अन्यथेति । तृतीयान्तपदोपसन्दानस्थले तृतीयान्तपदवाच्यधर्मावच्छिन्नाभावीयप्रतियोगिताकत्वं बिहायान्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्यैवाऽभावांदो संसर्गत्वोपगमे इत्यर्धः । 'घटत्वेन कम्युग्रीवादिमानास्तीति प्रतीतेरप्यप्रामाण्यापत्तेरिति । दर्शितप्रतीतौ कम्बुग्रीवादिमान प्रतियोगी । अतः प्रतियोगिता कम्बुग्रीवादिमति अन्वीयते । अतः अन्वयितावच्छेदकं कम्युग्रीवादिमत्त्वं भवति, अन्वयिवृत्तिधर्मस्यैवाऽन्वयितावच्छेदकत्वनियमात् । अतः अन्वयितावच्छेदकीभूत - कम्बुग्रीवादिमत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्यसम्बन्धनात्यन्ता भावे कम्युग्रोबादिमत्त्वस्यवं भानं सम्भवति, न तु घटत्वस्य । अतः 'घटत्वेन कम्बुग्रीवादिमान् नास्ती'त्यत्र घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वं न कुतोऽपि लभ्येतेति तदप्रामाण्यापत्त्याऽजां निष्काशयतः क्रमेलकापातन्यायागमः प्रसक्तः । ततोऽकामेनाऽपि तृतीयान्तपदोपस्थाप्यधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वसम्बन्धेनाऽभावांशे तृतीयान्तका निरूपक अत्यन्ताभाव है। इसी तरह प्रस्तुत में भी 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति में, प्रतियोगिता पट में रहने से उसका अन्वयितावच्छेदक पटत्व बनेगा। अतः तादृश अत्यन्ताभाव में भी प्रतियोगितान्वयितावच्छेदकीभूत पटत्व से अवच्छित्र प्रतियोगिता का निरूपकत्व रहेगा । अतः पटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व ही अभाव में प्रतियोगितावच्छेदक का संसर्ग बनेगा। मगर घटत्व तो उक्त संसर्ग से अत्यन्ताभाव में नहीं रह सकता है। अतएव घटत्व नादश अत्यन्ताभावीय प्रतियोगिता का अरच्छेदक भी नहीं बन सकता है। हाँ, घटत्वावच्छित्रप्रतियोगिताकत्व अभाव में तब रह सकता, यदि यदत्व प्रतियोगिताऽ. चयितावच्छेदक बनता । मगर प्रतियोगी पट में घटत्व नहीं रहने से वह प्रतियोगितान्नयितावच्छेदक नहीं बन सकता । अत एव घटत्व तादृशाभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक भी नहीं बन सकता है । जो स्वावच्छिनप्रतियोगिताकत्व संबन्ध से अभाव में रहता है, वही तादृश अभावीय प्रतियोगिता का अवच्छेदक होता है - यह नियम प्रसिद्ध होने की वजह 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस अभाव की प्रतियोगिता का अवच्छेदक भी पटत्व ही है, जो प्रतियोगिता का समानाधिकरण है । इसलिए आपने प्रतियोगिताब्यधिकरणधर्मावच्छिन्न अत्यन्ताभाव को सिद्ध करने का प्रयास किया है - वह ठीक नहीं है। अतएव सप्तभंगी का द्वितीय भंग भी अप्रामाणिक सिद्ध होता है। एवं समुची सप्तभंगी ही अप्रामाणिक सिद्ध होती है।
तृतीयांतपोपस्थापित धर्म प्रतियोगितावच्छेदक होता ही है - स्यादादी । स्याद्वादी :- तृतीयांत, इति । हजुर ! आपने 'घटो नास्ति' इस स्थल में पटत्व को अभावनिरूपित प्रतियोगिता का अवच्छेदक कहा वह तो ठीक है। मगर जहाँ तृतीयांत पद का प्रयोग होता है, वहाँ तो तृतीयांत पद से उल्लिखित धर्म से अवच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व ही अभाव में संसर्ग बनता है . यह भी एक शाब्दबोधस्थलीय व्युत्पत्तिविशेष है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस प्रतीति में तृतीयांत पद से उपस्थापित घटत्व से अरभिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व तादृश अभाव में मानना आवश्यक है। जैसे 'घटत्वेन घटो नास्ति' यहाँ तृतीयांत पद का समभिन्याहार होने की वजह तृतीयांत पद से उपस्थित घटत्व से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व अभाव में है और वही घटत्व को अभाव में रहने के लिए संसर्ग का भी कार्य करता है, ठीक वैसे ही 'घटत्वेन पटो नास्ति' इस स्थल में भी तृतीयांत पद का सनिधान होने के सरल तृतीयांत पद से उपस्थित घटत्व से अवभिन्न प्रतियोगिता का निरूपकत्व पटाभाव में सिद्ध होता है । अतएव स्वावञ्छित्रप्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से घटत्व पटप्रतियोगिक अभाव में रहता है. यह भी सिद्ध होता है। तब घटत्व को पटनिष्ठ प्रतियोगिता का अवच्छेदक निर्विवादरूप से माना जा सकता है । यदि तृतीयांन पद का सानिध्य होने पर भी तृतीयांतपदोपस्थापित धर्म को अभाबीयप्रतियोगिता का अवच्छेदक न मान कर प्रतियोगितान्वयितावच्छेदक को ही प्रतियोगिताअवच्छेदक माना जाय, तर तो 'घटत्वेन कम्बग्रीवादिमान् नास्ति' यह प्रतीति भी अप्रामाणिक बन जायेगी । इसका कारण