________________
५२५ मध्यमस्यादादरहस्पे खण्डः २ . का. * नवार्थश्लोकवार्तिककारमतालोचनम् * वाग्योगस्वाभाळ्यात् श्रुतज्ञानविषयीभूतमेवार्थ प्रतिपादयति नान्यदिति प्रतिपत्तव्यम् ।
दिगम्बरास्तु - परकीयघटादिज्ञानस्य स्वेष्टसाधनताज्ञानात्तत्र प्रयोक्तुरिच्छा, तत इष्टघटादिज्ञानसाधनतया घटादिपदे तत्साधनतया च कण्ठताल्वाभिघातादाविच्छा, तत: प्रवृत्त्यादिक्रमेण घटादिपदप्रयोगः, इत्येताशपरिपाट्या: केवलिनामभावाम ते शब्दप्रयोक्तार: किन्तु
* जयलता * वचनविरोधप्रसङ्गात् । एतेन 'जुगवं दो णत्यि उवओगा' (वि.आ.भा. ) इत्यादिवचनमपि व्याख्यातम्, एकत्र एककालावच्छेदेनोपयोगद्वयनिषेधपरत्वात्तस्य । एतेन 'नोपयोगी सह स्यातामित्याः ख्यापयन्ति ये । दर्शनज्ञानरूपी तौ न तु ज्ञानात्मकाविति' ।। (त.श्लो.वा.अ.१/सू.३०/श्लो.७) इति तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककारवचनमपि प्रत्युक्तम्, क्षायिकक्षायोपशमिकसम्यग्दर्शनद्वयवत् क्षायिकक्षायोपशमिकज्ञानद्वयस्य परस्परं विरुद्धत्वात्, आयोपशमिकधर्मसंन्यासलक्षणप्रथमसामर्थ्ययोगानन्तरमेव केवलज्ञानोत्पत्तेः, केवलज्ञान-केवलदर्शन-सम्यग्दर्शन-चारित्र-लब्धिपञ्चकलक्षणनवविवक्षायिकभावानामेवाऽभ्युपगमेन मतिश्रुतज्ञानादीनां क्षायिकत्वाऽसम्भवात् । तदुक्तं चतुर्थंकर्मग्रन्थे श्रीदेवेन्द्रसूरिभिः -> 'बीएए केवलजुयलं सम्मं दाणाइलद्धि पण चरणं' (च.क.ग्र.लो.६५) इति दिक् ।
दिगम्बरास्त्विति । आहुरित्यनेनाऽस्यान्चयः । परकीयघटादिज्ञानस्य स्वेष्टसाधनताज्ञानात् तत्र = पूरकीयघटादिज्ञाने प्रयोक्तुः 'परो घटादिकं जानातु' इत्याकारिका इच्छा जायते । ततः = निरुक्तेच्छानन्तरं इष्टघटादिज्ञानसाधनतया = स्वेष्टस्य परकीयघटादिज्ञानस्य साधनत्वेन च ज्ञाते कण्ठताल्वाभिघातादौ इच्छा सआयते । ततः = स्वेष्ट परकीयघटादि
वाद्यभिघातादिगोचरेच्छानन्तरं, प्रबत्त्यादिक्रमेण = कण्ठताल्वाद्यभियातादौ प्रयत्नः प्रवृत्तिः चेष्टा इति रीत्या घटादिपदप्रयोगो भवति । न हि श्रोतृबोधोत्पादेच्छामृत एव प्रेक्षावान् वक्ति, तत्त्वहान्यापत्तेः । नाप्युपेयेच्छां विनवोपायेच्छा प्रादुर्भवति, सर्वदा तत्प्रसक्तेः । नाप्युपायाभिलाषं विनैवेष्टसाधनगोचरणवृत्त्यादिकं दृष्टचरमित्येवमन्चय-व्यतिरेकाभ्यां शब्दप्रयोगं प्रति परम्परयेच्छायाः प्रयोजकत्वं सिध्यति । ततः किं ? इत्याशङ्कायामाह - एतादृशपरिपाट्याः = इष्टसाधनताज्ञानेच्छाप्रयत्नाद्यानुपूर्व्याः वीतरागत्वेन केवलिना = केवलज्ञानिनां अभावात् न ते = वीतरागाः शब्दप्रयोक्तारः । न हि वीतरागाणां किमपीष्टं भवति, इष्टत्वस्येच्छाविषयलरूपत्वेन तेषां सरागत्वप्राप्तेः । वीतरागाणां कुत इच्छा ? तस्या
कि केवलज्ञानी भगवंत केवल ज्ञान से सभी विषयों को जानते हुए भी वचनयोग के स्वभाव की वजह श्रुत ज्ञान के विषयीभूत अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं, न कि श्रुतज्ञान के अविषयीभूत अर्थ का भी । जो विषय शब्द का अगोचर हो उसका शब्द से निरूपण या ज्ञान कैसे हो सकता है ? नयन के अगोचर परमाणु-पिशाच-काल आदि पदार्थों का ज्ञान क्या नयन से हो सकता है ? नहीं ही हो सकता । अतः केवली श्रुतज्ञानविषयीभूत अर्थ का ही निरूपण करते हैं . यह अवश्य अंगीकर्तव्य है।
विसमापरिणाम से केवलिदेशना - दिगंबरमत V दिग, इति । केवलज्ञानी की देशना वचनयोग से होती है-यह श्वेताम्बर जैन मनीपियों का मत है । मगर दिगम्बर जैन विद्वानों का यह मत है कि केवली की देशना चिनसापरिणाम से होती है। उनका अभिप्राय यह है कि वक्ता शब्द का प्रयोग अन्य = श्रोता को बोध कराने की इच्छा से करता है, जो बोध वक्ता का इष्टसाधन हो । जैसे 'चैत्र को घटज्ञान कराना मेरे इष्ट का साधन है' ऐसा ज्ञान देवदन को होने पर देवदत्त को 'चैत्र घटज्ञानवाला हो' ऐसी इच्छा उत्पन्न होती है। बाद में 'अपने इष्ट = इच्छाविपयीभूत चेत्रीय घटज्ञान का साधन घटपद है' ऐसा ज्ञान देवदत्त को होने पर घटशब्द के कारण कंठतालु आदि के अभिघात = ध्वनिजनकसंयोग आदि की इच्छा होती है। जब तक कंठतालु आदि में अभिघात नहीं उत्पन्न होता है तब तक घटशन्द की उत्पत्ति नहीं होती है और जब तक घटशन्द का उच्चारण न हो तब तक चैत्र को घटविषयक शाब्दबोध नहीं हो सकता, जो देवदत्त का इष्टसाधन है। अत: कंठतालु आदि के अभिघात आदि की इच्छा देवदत्त को होती है। बाद में कंठतालुअभिघात आदि का प्रयत्न उत्पन्न होता है, जिससे देवदत्त कंठतालु अभियात आदि में प्रवृत्ति करता है। बाद में पटशन की उत्पत्ति होती है। इस क्रम से शब्द की उत्पत्ति होती है। श्रोता को घटादिविषयक ज्ञान कराना वक्ता को इष्ट न हो या वक्ता के इए का साधन न हो, तब वक्ता घटादिशब्द का उच्चारण नहीं करता है, अन्यथा वह वचन उन्मत्तप्रलाप बन जायेगा। मतलब कि शब्द की उत्पत्ति के लिए परंपरा से इच्छा कारण बनती है। इस