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________________ * विशेषसाधकानुमानस्योपाधिग्रस्तत्वम् * dat -> अयमनारब्धद्रव्य: परमाणुः एतत्परमाणुनिष्ठजातिगुणकर्ममिनधर्मसमवायी परमाणुत्वात, अन्यपरमाणुवदित्यनुमानमपि - निरस्तम्, तर्कविरहेऽनुमानसहमस्याऽकिश्चिकरत्वात्, द्रव्यसमवायित्वस्योपाधित्वाच्च । =* जयलता * तीति न तदर्थमतिरिक्तानन्तविशेषपदार्थकल्पना युक्ता । एतेनेति । तत्तद्व्यक्तित्वादिभिः परमाण्वादीनां परस्परं ब्यावृत्तिसम्भवेनेति । अस्य निरस्तमित्यनेनाऽन्वयः । पक्षं | निर्दिशति- अयमनारब्धद्रव्यः परमाणुरिति । अनारब्धं द्यणुकलक्षणं द्रव्यं येन स अनारब्धद्रव्यः स्वतन्त्रः परमाणुरिति पावत् । एतत्परमाणुनिष्ठजातिगुणकर्मभिन्नधर्मसमचायीति | साध्यञ्च गुणकर्मसामान्यविजातीयधर्मसमवायित्वं गुणकर्मसामान्याऽतिरिक्तधर्मसमबायित्वं वा । उदाहरणमाह- अन्यपरमाणुवदिति । समारब्धद्रव्यः परमाणुरिवेत्यर्थः । परमाणुत्वहेतुमति समारब्धद्रव्ये परमाणौ गुणकर्मसामान्यातिरिक्तद्वयणुकस्वरूपधर्मसमचायित्वं दृष्टम् । न च यणुकस्य गुणाद्याश्रयस्य कथं धर्मत्वं नाम ? इति शङ्कनीयम्, स्वसमवायिपरमाण्वपेक्षया तस्य धर्मत्वाऽप्रच्यवात्. अन्यथा गुणादेरपि जात्याद्याश्रयत्वेन धर्मत्वं न स्यात् । उपर्युक्तदृष्टान्ते व्याप्तेहात पक्षे स्वतन्त्रपरमाणावपि परमाणुत्वहेतुबलेन गुणकर्मजातिव्यतिरिक्तधर्म समवायित्वं सेत्स्यति । स च धनिकोपपदप्रतिमा, इति प्रकलामा स्वतन्कारजाणी परमाणुत्वहेतुना विशेषसिद्धौ निरवयबद्रव्यत्वहेतुना समारब्धद्रव्येषु परमाणुष गगनादिषु च तत्सिद्भिरिति नैयायिकाभिप्रायः ।। तन्निरासे प्रकरणकारो हेत्वन्तरमाह - तर्कविरहे इति । विपक्षबाधकयक्तिविरहे इति । अस्त अनारब्धद्रव्ये परमाण परमाणत्वं मास्स गुणकर्मसामान्यातिरिक्तधर्मसमवायित्वं इत्येवं विपरीतकल्पने बाधकं किमपि नैयायिकेन दर्शयितं न पार्यत इति भावः । तदभावे चानुमानसहस्रस्याऽकिञ्चित्करत्वात् व्यभिचारसंशयाऽनिवृत्तेः, सति प्रतिबन्धके साधकस्य कार्योत्पत्तयेऽसमर्थत्वात् । अन्यथा 'अनारब्धद्रव्यं कपालं गुणकर्मसामान्यातिरिक्तधर्मसमवायि कपालत्वात् समारब्धघट कपालमिये त्याद्यनुमानैः कपालादावपि विदोषसिद्धिप्रसङ्गात् । प्रदर्शितानुमान दूषणान्तरमाह - द्रव्यसमवायित्वस्य = द्रव्यप्रतियोगिकसमवायवत्त्वस्य परमाणुत्वलक्षणहेती उपाधित्वाचेति । तस्य समारब्धद्रव्येषु परमाणुषु गुणकर्मसामान्यव्यतिरिक्तधर्मसमवायित्वलक्षणसाध्यव्यापकत्वे सति स्वतन्त्रपरमाणुषु लिए अतिरिक्त विशेष पदार्थ की कल्पना अनावश्यक है। यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि → 'प्रत्येक द्रव्य में अनंत अगुरुलधु पर्याय मानने में प्रमाण क्या है ? - क्योंकि जैन आगम = भगवती सूत्र आदि सिद्धान्त ग्रन्थ से ही प्रतिद्रव्य अनंत अगुरुलघु पर्यायविशेप सिद्ध होते हैं। सर्वज्ञकथित होने से जैनागम की प्रामाणिकता में संदेह करना अनुचित है। * विशेषसा अनुमाज उपाधिग्रस्त - स्यादादी * पतन, इति । नैयायिक विद्वान विशेष पदार्थ की सिद्धि के लिए अनुमान प्रयोग करते हैं कि -> 'अनारन्धद्रव्यपाला (= स्वतन्त्र) यह परमाणु एतत्परमाणु में रहनेवाली जाति, गुण, कर्म से भिन्न धर्म के समवाय वाला है, क्योंकि वह है, जैसे व्यणुक वाले परमाणु । यहाँ स्वतन्त्र विवक्षित परमाणु पक्ष है। एतत्परमाणुसमवेतजातिगुणकर्मभित्रधर्मप्रतियोगिक समवाय साध्य है । परमाणुत्व हेतु है । व्यणुकसमवायी परमाणु = जिनमें व्यणुक समवेत है वैसे परमाणु दृष्टान्त हैं । व्यणुकसमवायी परमाणुओं में परमाणुत्व हेतु रहता है एवं परमाणु-समवेत जाति, गुण, कर्म से भिन्न व्यणुक का, जो परमाणुसमवत हान की अपेक्षा धर्मात्मक है, समवाय भी, जो साध्य है, रहता है। दृष्टान्त में हेतु और साध्य के बीच व्याप्य व्यापकभाव = ब्याप्ति का निश्चय होने से पक्ष = स्वतन्त्र परमाणु में भी परमाणुत्वस्वरूप हेतु से जाति, गुण, कर्म से भिन्न धर्म के समवाय स्वरूप साध्य की सिद्धि हो जायेगी । उस समवाय का प्रतियोगी व्यणुकात्मक धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि स्वतन्त्र परमाणुओं में व्यणुक समवेत नहीं होता है। दूसरा कोई धर्म भी उस समवाय का, जो साध्य है, प्रतियोगी नहीं माना जा सकता 1 अत्तः अन्ततो गत्वा विशेष को ही साध्यात्मक समवाय का प्रतियोगी मानना होगा । अर्थात् जाति गुण, कर्म से भिन्न विशेषपदार्थस्वरूप धर्म का समवाय स्वतंत्र परमाणु में सिद्ध होने से तादृश समवाय के प्रतियोगिविधया विशेष पदार्थ की सिद्धि होगी। अत: विशेष पदार्थ परमाणुसमवेत है-यह फलित होता है । इसलिए विशेप पदार्थ का स्वीकार अवश्य कर्तव्य है' - तर्कवि. इति । मगर इसके प्रतिविधान में स्याद्वादियों की ओर से यह कहा जाता है कि जब तक व्याप्ति में विपक्षबाधक
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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