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________________ - २४३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का. ५ व्यथिकरणधर्मावमिछाभावस्यातिरकित्वरिचारः अथ व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नाभाव एव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव इति न तदतिरेककल्पनाप्रयुक्तगौरवावकाश इति चेत् ? न, तथापि पदादिनिष्ठघटत्वाधवच्छिन्नप्रतियोगि ----------* जयतता - न शक्यते पश्चात्कर्तुं बृहस्पतिनापि, तादृशाऽभावविशेषणीभूतपटादिवृत्तित्वस्य परित्यागे भ्रान्तत्वोपगमे वा घटत्वादेरपि पटादिवृतिप्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य त्यागो भ्रान्तत्वं वा प्रसज्येत, अन्यथा अवैशसप्रसङ्गात् । अतो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य प्रामाणिकत्वं विचार्यमाणं विशरास्तामाबिभर्ति । ततो न द्वितीयादिभङ्गस्याऽपि प्रामाण्यं चारुतामञ्चतीति ननुवादिनो मौलपूर्वपक्षिणोऽभिप्रायः । शङ्कते-अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । ब्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नाभाव पब ब्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव इति । अयमाशयः येन सम्बन्धेन प्रतियोगी कुत्रापि न वर्तते स यधिकरणसम्बन्ध उच्यते यथा संयोगसम्बन्धेन वृक्षत्वादिजातेः कुत्राप्यसत्त्वेन संयोगसम्बन्धस्य वृक्षत्वादिन्यधिकरणतया संयोगसम्बन्धावच्छिन्नवृक्षत्वादिनिष्टप्रतियोगितानिरूपकात्यन्ताभावस्य केवलान्वयित्वम् । एवमेव प्रतियोग्यवृत्तिधर्मः प्रतियोगितात्यधिकरण उच्यते यधा घटत्वादिः पटाद्यवृत्तित्वात् पटादिनिष्टप्रतियोगितात्यधिकरणा ज्यपदिश्यते । घटत्वादिना रूपेण पटादेः कुत्राऽप्यसत्त्वेन घटत्वादिधर्मावच्छिन्नपटादिनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकाभावस्यापि केबलान्व यित्वम । समनियतपदार्थयारक्यात संयोगसम्बन्धावच्छिन्नवनात्वादिवत्तिप्रतियोगितानिरूपक-बटत्वादिधर्मावच्छिन्नपटादिवत्तिप्रतियोगितानिरूपकाभाचोरेक्यम । व्यधिकरणसम्बन्धावमिंटन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावस्तुभयमते क्लस एव । तत्स्वरूप एव च मया ज्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावः स्वीक्रियते, तत्समनियतत्वात् इति न तदतिरेककल्पनाप्रयुक्तगौरवावकाशः = व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य ज्यधिकरणसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावातिरिक्तत्वकल्पनाप्रयोज्यगौरवदोषसंभावनेति न व्यधिकरणधर्मावमिछत्रप्रतियोगिताकाभावस्याऽप्रामाण्यमिति । अत एव न द्वितीयभङ्गस्याज्यप्रामाण्यमित्यथाशयः । ननुवादी । अथमतं प्रत्याचष्टे-नेति । तथापि = व्यधिकरणधर्मावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकाभावस्य समनियतत्वेन प्रतियोगिव्यधिकरणसम्बन्धावच्छित्रप्रतियोगिताकाभावानतिरिक्तत्वोपगमेऽपि, पटादिनिष्ठघटत्याचवच्छिन्न प्रतियोगितान्तरकल्पने तब तुल्य न्याय से घटत्वादि को अभाचविशेषणीभूत पटादि में वृत्ति मानना ही होगा। यदि घटत्वादि को पटादिप्रतियोगिक अभावविशेषणतावच्छेदक न माना जाय या अप्रामाणिक माना जाय तब तो तुल्य म्याय से घटत्वादि को पटादिप्रतियोगिकाभावीयप्रतियोगितावच्छेदक भी नहीं माना जा सकता या प्रान्त माना जायेगा । अतः सिद्ध होता है कि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अत्यन्ताभाव अप्रामाणिक है । अतएव द्वितीयादि भंग और उनके समुदायात्मक सप्तभंगी भी अप्रामाणिक है । EA व्यधिकरणसम्बन्धातत्तिा अमाप हो व्यधिकरणधर्मावति भात - स्यादादी इस स्याद्वादी :- अथ, इति । उस्ताद ! आपने जो "पूर्व में कहा कि -> 'व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव की कल्पना करने में गौरव दोप उपस्थित होता है" <- वह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि व्यधिकरणधमांवजिन्नप्रतियोगिताक अभाव आपके अभिमत व्यधिकरणसम्बन्धाचच्छिन्त्रप्रतियोगिताक अभाव से अतिरिक्त नहीं है। समनियत पदार्थ में ऐक्य होता है - यह न्यायदर्शन का मौलिक सिद्धांत है, जो हमें भी व्यवहारनय से मान्य है। जहाँ जहाँ आपका अभिमत व्यधिकरणसम्वन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव रहता है, वहाँ वहाँ व्यधिकरणधर्मावचिन्नप्रतियोगिताक अभाव भी अवश्य रहता है । समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक वाच्यत्वाभाव और घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक पटाभाव समनियत ही है । अतएव दोनों में अभेद है । अतः अतिरिक्त न्यधिकरणधर्मावजिनप्रतियोगिताक अभाव की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष का अवकाश हमारे पक्ष में नहीं है। अतएव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव भी प्रामाणिक है - यह सिद्ध होता है । जब यह सिद्ध हो गया तर तो सप्तभंगी का द्वितीयादि भंग और उनसे घटित सप्तभंगी भी प्रामाणिक सिद्ध हो जायेगी। * द्वितीय भंग में अतिरिक्त प्रतियोगिता की करना का गौरव - पूर्वपक्ष पूर्वपक्षी:- न, त, इति । समनियत अभाव में ऐक्य होने से व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव को व्यधिकरणसम्बन्धावच्छिमप्रतियोगिताक अभावस्वरूप मानने पर आपके मत में एक अतिरिक्त अभावस्वरूप धर्मी की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष भले ही अप्रसक्त हो, मगर अतिरिक्त प्रतियोगिता की कल्पना से प्रयुक्त गौरव दोष तो आपके मत्थे पर चढ़ा १. देखिये पृ. २४२ . .
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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