SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ * पृथिव्यादिधृतरदृष्टजन्यत्रम् * प्रयत्नजन्या धृतित्वात, अस्मदादिजन्यघटादिधतिवाद'त्यनुमानादीश्वरसिद्धिरित्यपि निरस्तम्, पतनप्रतिबन्धकविलक्षणसंयोगारूयधृते: द्यावापृधिव्योरिवेश्वरप्रयत्नवशाद घटादावप्युत्यत्यापत्तेः । 'अदृष्टविशेषात्तत्रैव धृति न्योति चेत् ? तर्हि अदृष्टविशेष एव तत्प्रतिबन्ध = == =* जयलता -- - एतेनेति । द्यावापृथिव्याद्यनुगतस्वभावस्यैव रतनप्रतिबन्धकत्वीचित्येनेति । अस्याङ्ग्रे 'निरस्तमि'त्यनेनाऽन्वयः । धावापृथिव्यो तिरिति । पक्षनिर्देशोऽयत् । कस्यचित् प्रयत्नजन्येति । अनेन कृतिजन्यत्वं साध्यमित्युपदर्शितम् । हेतुमाह- धृतित्वादिति । अस्मदादिजन्यघटादिधृतिवदिति दृष्टान्तप्रदर्शनम् । यधाऽस्मदादिहस्तादिवृत्तेः गुरोः घटादेः धृतिरस्मदादिप्रयत्नजन्या तथैव द्यावापृथिव्योः धृतेरपि कृतिजन्यत्वेन भवितव्यम् । तादृशधृतिजनककृत्याश्रयत्वमस्मदादिषु न सम्भवतीति पारिशेषन्यायेन दर्शितानुमानात ईश्वरसिद्धिरिति नैयायिकाभिप्रायः । द्यावापृथिन्योः धृते स्वभावविशेषजन्यत्वेन तं प्रति कृतेरन्यथासिद्धत्वात्कालात्ययापदिष्टत्वं धृतित्वहेतोः तथापि प्रकरणकारोऽभ्युपगमवादेन दोषान्तरमाविष्करोति - पतनप्रतिबन्धकविलक्षणसंयोगाख्यधृतेः = प्रतननिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकताश्रयीभूताया विलक्षणसंयोगात्मिकाया धृतेः, समवायसम्बन्धेन द्यावापृथिव्योरिव ईश्वरप्रयत्नवशाद् = विभु-समर्थसोमेश्वरकृतिवशाद् घटादावपि उत्पत्त्यापत्तेः । ततश्च द्यावापृधिन्योरिव घटादेरपि कदापि पतनं न स्यात् । न चैवमिति न तत्कृतेः तादृशधृतिजनकत्वं सङ्गतिमङ्गतीत्याशयः स्याद्वादिनः । नयायिकः शङ्कते- अदृष्टविशेषात् तत्र = द्यावापृथिन्योः एव धृतिः न अन्यत्र = वटादौ महेशकृतिवशात् समवायेन | विलक्षणसंयोगलक्षणधृतेरुत्पत्तिः । अदृष्टस्य कार्यमा प्रति साधारणकारणत्वेन नातिरिक्तकार्य-कारणभावकल्पनापत्तिर्न वा घटादेः पतनानुपपत्तिप्रसङ्ग इति नैयायिकाशयः । स्याद्बादी समाधत्ते- तीति । तत्कृतेदृष्टविशेषेण द्यावापृथिव्योरेव समवायेन विलक्षणसंयोगलक्षणधृतेरुत्पादकत्वकल्पनायां, अदृष्टविशेष एव तत्प्रतिबन्धकत्वेन = द्यावापृथिवीपतनप्रतिबन्धकविधया, आद्रियतां पृथ्वीलोक की धृति (= पक्ष) किसीके प्रयत्न से जन्य है क्योंकि वह धृति है। जो जो धृति होती है वह सब प्रयत्नजन्य होती है । जैसे हमारे हाथ में रहा हुआ = धारित घट आदि पदार्थ जिस धृति से युक्त है, वे हमारे धारणानुकूल प्रयत्न से जन्य है। घुलोकादि की धृति भी धृतित्वविशिष्ट होने से किसीके प्रयत्न से जन्य होनी चाहिए । वह प्रयत्न जिसका है वह हम तो नहीं हो सकते । हमारा वह सामर्थ्य कहाँ कि सूर्य, चन्द्र आदि को हम धारण करें ? वह दिन कहाँ कि हमें ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो ? उसका श्रेय तो महादेवजी को ही देना चाहिए, जो अपने प्रयत्न से दिन-रात सूर्य-चन्द्र आदि को धारण कर रहे हैं। इस तरह ईश्वर की सिद्धि होती है" <- मगर नैयायिक महाशय ! अब पछताये होत क्या ? जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ! सूर्य, चन्द्र आदि में स्वभावविशेष ही ऐसा रहता है, जो उन्हें पतित नहीं होने देता । स्वभावविशेप से ही उनकी धृति जन्य है - यह हम स्याद्वादी अभी ही निवेदित कर चुके हैं। इस स्थिति में घुलोक आदि की धृति में प्रयत्नजन्यत्वस्वरूप साथ्य की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? अतः धृतित्व हेतुत्व बाधित = बाधदोष से ग्रस्त होता है । अतः साध्यघटकीभूत कृति के आश्रयविधया शंकरजी की सिद्धि नहीं हो सकती । दूसरी रात यह है कि ईश्वर के प्रयत्न से जैसे युलोक और पृथ्वीलोक में पतनप्रतिबन्धक विलक्षणसंयोगस्वरूप धृति उत्पत्र होती है ठीक वैसे ही घट आदि में भी तादृश धृति उत्पन्न होने की आपत्ति | आयेगी, क्योंकि ईश्वर तो आपके मत में विभु एवं सर्वशक्तिमान है । चुलोक आदि की भाँति घटादि में भी ईश्वरीय प्रयत्न से धृति उत्पत्र होने की आपत्ति का इष्टापत्तिविधया स्वीकार नैयायिक की ओर से नहीं किया जा सकता, क्योंकि तब चुलोकादि की भाँति पटादि का भी पतन नहीं हो सकेगा। इसका कारण यह है कि धृनि संयोगविशेषात्मक है जो पतनक्रिया में प्रतिबन्धक है। यहाँ यह नैयायिककथन कि -> "महेश्वर तो सर्वशक्तिमान् है, मगर क्या करें ? जीवों का अदृष्ट = भाग्य = पुण्यपाप ही ऐसा है कि ईश्वरीय प्रयत्न से विजातीयसंयोगात्मक ति युलोक आदि में ही उत्पन्न होती है, न कि घटादि में । अदृष्ट भी कार्यमात्र का साधारण कारण है । अतः महेश भी उसका अतिक्रमण कर के घटादि में स्वप्रयत्न से धृति को उत्पन्न । नहीं करते । अतः घट आदि का कभी भी पतन नहीं होने की आपत्ति को अवकाश नहीं है" < E अदृष्टविशेष से ही धुलोकादिति की उपपत्ति - ___ तईि. इति । यह भी इसलिए नामुनासिब है कि धुलोकादि की धृति के प्रति ईश्वरीय कृति को कारण मानने पर | भी जीवों के अदृष्टविशेष को कारण मानना नैयायिक महाशय के मतानुसार भी आवश्यक ही है, तो फिर अदृष्टविशेप को
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy