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________________ * अमरकोशवचनसंवादः * ककाले सूर्यचन्द्रत्वाभ्यां सूर्यचन्द्रमसयोर्बोधेऽपि क्षतिरिति टोयम् । धर्मे एकत्वकसकेत * गयला * न्तर्भावप्रयुक्तशक्तिमत्पदजन्यशाब्दबोधाऽनियामकत्वेनेति । न क्षतिरित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । पुष्पदन्तपदात् = 'पुष्पदन्ती' इति पदात्, एककाले = युगपत, सूर्यचन्द्रत्वाभ्यां = सूर्यत्वचन्द्रत्वाभ्यां, सूर्यचन्द्रमसयोः बोधेऽपि न क्षतिः । अयं भाव: 'पुष्पदन्तौ पुष्पबन्तावेकोक्त्या शशिभास्करौ' इति कोशवचनात् एको चारणान्तविन गृहीतनानाथशक्तिकपुष्पदन्तादिपदस्य व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् हि चन्द्रसूर्ययोरेकैव शक्तिः शक्यतावच्छेदकत्वं तु चन्द्रत्वसूर्यत्वयोर्व्यासज्यवृत्ति । 'पुष्पदन्तादिपदं चन्द्रे सूर्य च शक्तमि त्याकारकः शस्तिग्रहः । तत्कार्यतावच्छेदकञ्च चन्द्रत्वप्रकारकत्वे सति सूर्यत्वप्रकारकस्मृतित्वं, तादृशशाब्दत्वञ्च । अत्र शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूतपर्याप्तिसम्बन्धावच्छिन्नचन्द्रत्वसूर्यत्वोभयनिष्ठप्रकारतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नचन्द्रसूर्योभयनिष्ठविशेष्यताबगाहिशाब्दबोधो न त्वेकधर्मावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यताशाली । 'एकयोक्त्या' इति कोशस्वारस्यात् सहोचारणान्तविनेकैव शक्तिः सिद्धेति न प्रदर्शितनियमाक्रान्तत्वं तादृशबोधस्येति भावः ।। स्यादेतत् - यथा हि 'चन्द्रसूर्यो पुष्पदन्तपदजन्यैकबोधविषयौ भवतामि' त्याकारिकैव शक्तिः, 'एकयोक्त्या पुष्पदन्ती दिवाकरनिशाकरौ' (अ.को.कां.१/लो.१०) इत्यमरकोशबचनात, लाघवाच । अत एव न चन्द्रसूर्य पर्यायता, नानार्थे गणनं वा । शक्तितदबच्छेदकतयोासज्यवृत्तितया च चन्द्रत्वेन चन्द्रः शक्यः सूर्यत्वेन च सूर्य' इत्यादिर्न धीः किन्तु चन्द्रत्वेनं सूर्यत्वेन च चन्द्रसूर्यो वाक्यावित्येव । तथैवोभयपदस्याऽपि प्रकृते झबलवस्तुन्येकैच शक्तिः, शक्यतावच्छेदकल्यं तु सत्त्वासत्त्वयोर्व्यासज्य. बृत्ति' इति किं न स्यात् ? एवञ्चोभयपदेन युगपदुभयप्राधान्यबोधसम्भवादवक्तव्यत्वभङ्गोऽनुत्थानोपहतः इति । मैवम् पुष्प. दन्तपदबदभयपदस्या साधारणत्वाऽभावात, बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वादस्त्यादिधर्मयावच्छिन्नरोधकत्वे च प्राधान्येनोभयाकारबोधासिद्धेः । किञ्च, व्यासज्यबृत्तिशक्यतावच्छेदकताकस्य पदस्य द्विवचनान्तस्यैव साधुत्वेन न पुष्पदन्तपदबदुभयपदस्यात्र बोधकत्वमित्यादिसूचनार्थ 'ध्येयमि'त्युक्तम् । ननु एको चारणान्तर्भावेन शक्तिमत्पदान्यस्यैकपदस्य शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकैकसम्बन्धावच्छिन्नैकधर्मनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावगाहिशाब्दबोधोपधायकत्वमिति नियमघटकीभूतधर्मनिष्ठैकत्वं किस्वरूपमित्याशङ्कायामाह-धर्मे एकत्त्वञ्चेति । सप्तम्यर्थी एकोच्चारण अन्तर्भाव से जिस पद में वाक्ति रहती है, उससे अन्यपद रिपयक है । ऐसा कहने का कारण यह है कि 'पुप्पदन्ती' यह समस्त (= समासगर्भित) पद एक ही काल में चन्द्रत्व और सूर्यत्व उभय धर्म से चन्द्र-सूर्योभय का बोधक होता है। तादृश शाब्दबोध से निरूपित विशेष्यता चाँद-सूरज में रहती है और उससे निरूपित प्रकारता चन्द्रव और सूर्यत्व जाति में रहती है । अतएव तादृश शान्द बोध की विशेप्यता चन्द्रत्व-सूर्यत्वस्वरूप दो धर्म से निरूपित होती है, न कि एक धर्म से । यदि 'सकृदचरित....' न्याय को सार्वत्रिक माना जाय तो प्रस्तुत चाँद-सूरज उभपविशेप्यक शान्द बोध की उपपति नहीं हो सकती, क्योंकि वह एकधर्मनिष्प्रकारता से निरूपित विशेष्यता का अवगाहन नहीं करता है। यह शान्द चोध प्रसिद्ध एवं प्रामाणिक है । अतः इसको अप्रमाण कहना ठीक नहीं है। इसलिए तादृश नियम में संकोच करना आवश्यक है, जिससे यह शाब्दबोध उस नियम की मर्यादा से बहित हो जाय । प्रदर्शित न्याय से फलित नियम में संकोच करने के पहले यह समझना जरूरी हो जाता है कि पुष्पदन्त पद में अर्थबोधक शक्ति कैसी रहती है ? पुष्पशब्द के पृथक् उचारण से या दन्तशब्द के पृथक् उचारण से चाँद-सूरज दोनों का बोध नहीं होता है किन्तु 'पुष्पदन्तौ ऐसा एक - अखंड उच्चारण करने पर ही उभय का बोध होता है । मतलर कि 'पुप्पदन्ती' पद एकोच्चारण के अन्तर्भाव से चाँद-सूरज उभय की बोधक शक्ति वाला है । अतः पुष्पदन्तपदजन्य शाब्दबोध को उक्त नियम का अविषय बनाने के लिए यह कहा जा सकता है कि 'सकृदुश्चरित...' न्याय का फलितार्थरूप नियम एकोक्ति के अन्तर्भाव से शक्तिमत् पद से अन्य पद को अपना विषय बनाता है। ऐसा कहने से पुप्पदन्तपद तादृश निपम की मर्यादा से बहिर्भूत बन जाता है और उससे अन्य घटपद, पटपद आदि में उपर्युक्त नियम प्रवृत्त होता है। अतः घटपट आदि पद ऐसे हैं जो एक काल में एकसम्बन्यावच्छिन ऐसी एकधर्मनिष्ट प्रकारता से निरूपित विशेप्यता के अवगाही शान्द बोध का जनक है । यह 'सकदश्चरित.....' न्याय का निष्कर्ष है । धर्मनिष्ठ एफत्त का निर्वचज धर्म. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकीभूत एक सम्बन्ध से अवभिन्न एकधर्मनिष्ठप्रकारता से निरूपित विशेप्यता का अवगाही शाब्द बोध एक काल में एक पद से होता है - ऐसा आपने कहा है। मगर | यह नामुमकिन है । इसका कारण यह है कि एकथर्मनिष्ट प्रकारता का अर्थ प्राप्त होता है एकत्त्वसंख्या विशिष्ट ऐसे धर्म में
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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