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________________ ५३५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ७ * स्वरूपासिद्धिनिराकरणम् लाघवात् श्याममात्रं प्रत्येव श्यामस्य हेतुत्वात्, पाकाऽजन्यत्वादेस्तत्कार्यतावच्छेदकप्रवेशे गौरवात्, सदसत्कार्यवादस्य व्यवस्थापितत्वाच्च । नित्यत्वाऽनित्यत्वादिकं, विशेषेण अथवा दयं परस्परकरम्बितस्वभावेन रुं = = ॐ जयलता = बच्छेदेन शुक्लरूपाश्रये घटादौ कृष्णादिरूपाणि न स्युः तर्हि पाकानन्तरकालावच्छेदेन श्यामत्वं न स्यात्, लाघवात् कार्यतावच्छेदकधर्मलाघवात् समवायेन श्याममात्रं श्यामत्वावच्छिन्नं प्रत्येव स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन श्यामस्य वर्णस्य हेतु| त्वात् । न चावयविनि श्यामं रूपं क्वचित् पाकेन क्वचिचावयवश्यामरूपेण जन्यते इति तृणारणिमणिन्यायेन पाकाजन्यत्वावच्छिन्नश्यामरूपं प्रति स्वाश्रयवृत्तित्वसम्बन्धेन श्यामरूपस्य हेतुत्वान्न पाकपूर्व शुक्ले घटादी श्यामादिरूपाऽङ्गीकारस्यावश्यकत्वमिति वाच्यम्, पाकाजन्यत्वविशिष्टश्यामत्वस्याऽचयचश्यामरूपकार्यतावच्छेदकत्वाऽपेक्षया श्यामत्वस्यैव तत्त्वे लाघवादित्याशये| नाऽऽह पाकाऽजन्यत्वादेः तत्कार्यतावच्छेदकप्रवेशे अवयवश्यामरूपनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदकशरीरनिवेडो, कार्यता = = बच्छेदककोटा गौरवात् । किञ्च पूर्वं तत्र सर्वथाऽसतः श्यामवर्णस्य पश्चादपि पाकेनोत्पत्तिः नैव सम्भवति, अत्यन्ताऽसतोऽनुदात्तेः | अन्यथा खरविषाणादेरपि जन्मापत्तेः । पाकपूर्वकालावच्छेदेन शुक्लघटे कथञ्चिच्छ्यामरूपाऽङ्गीकारस्यापि न्याय्यत्वादित्याशयेनाऽऽह - सदसत्कार्यवादस्य कथञ्चित्सदसत्कार्यनियमस्य पूर्व (पृ. १२९ ) व्यवस्थापितत्वाच्चेति । ततश्चाऽकामेनाऽपि श्वेतकालावच्छेदेन घटे श्यामवर्णाऽङ्गीकारः कार्यः । ततश्चैकदैकत्र शुक्लश्यामादिवर्णसमावेशेन शुक्लश्यामादिवर्णेष्वपि परस्परा| नधिकरणनिरूपितवृत्तित्वमत्त्वस्याऽप्रसिद्धेः परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वलक्षणं विरुद्धत्वमप्यप्रसिद्धम् । न च तमः प्रकाशयोरेव निरुक्तविरुद्धत्वं प्रसिद्धमिति वक्तव्यम्, कालभेदेनैकत्र तत्समावेशस्य दृष्टत्वात् । न चैककालीनपरस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वमेव विरुद्धत्वमस्त्विति वाच्यम्, एकदाऽपि विभिन्नावयवावच्छेदेन तमः प्रकाशयोरेकत्रोपलब्धेः तयोरपि निरुक्तविरुद्धत्वलक्षणायोगात् । ततश्च निरुक्तविरुद्धत्यविनिर्मोकेणैव नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुग्मानां पक्षत्वेन निर्देशस्य न्याय्यत्वमिति निर्गलितोऽर्थः । पुनः व्याख्यान्तरमावेदयति अथवेति । नाऽसदिति । द्वौ नञौ प्रकृतार्थं गमयत इति न्यायेन सत्त्वस्यात्र साध्यत्वं पाक के पश्चारकालावच्छेदेन श्याम रूप वाले घट में पूर्वकालावच्छेदेन भी श्याम वर्ण का अंगीकार करना मुनासिब है । यहाँ यह शंका हो कि 'श्याम वर्ण की उत्पत्ति कभी स्वाश्रयावयवगत श्याम रूप से होती है, तो कभी पाक = विलक्षण अग्निसंयोग से होती है । अतः श्याम रूप का कार्य श्याम रूप नहीं है, किन्तु पाकाऽजन्य श्याम वर्ण है । शुक्ल घट में श्याम रूप पाकजन्य होने की वजह, उसका कारण श्याम रूप नहीं है, किन्तु पाक ही कारण है । अतएव व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है' तो यह भी निराधार है, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से श्याम रूप के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसंबंध से श्याम वर्ण को कारण मानने में लाघव है, जब कि समवाय संबन्ध से पाकाऽजन्य श्याम रूप के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसंबंध से श्याम रूप को कारण मानने में गौरव है । प्रथम पक्ष में कार्यतावच्छेदक धर्म केवल श्यामत्व बनता है, जब कि द्वितीय पक्ष में कार्यतावच्छेदक धर्म पाकाजन्यत्वविशिष्ट श्यामत्व होता है, जो श्यामत्व की अपेक्षा गुरुभूत है । अतः द्वितीय पक्ष में गौरव स्पष्ट है । अत: श्वेत रूप वाले घट में भी श्याम रूप का अंगीकार करना आवश्यक है, जिससे पश्चात् उसमें श्याम रूप की उत्पत्ति हो सके। दूसरी बात यह है कि श्वेत घट में यदि श्याम रूप का सर्वथा अत्यन्ताभाव माना जाय तो पश्चात् उस घट में श्याम रूप की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि सर्वथा असत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, किन्तु कथंचित् सत् की ही उत्पत्ति हो सकती है । इस सदसत्कार्यवाद की तो पूर्व में सिद्धि की गई है। इसलिए यहाँ उसका पुनरावर्तन करना अनावश्यक है । सदसत्कार्यवाद के बल पर शुक्ल घट में भी श्याम रूप का अंगीकार करना आवश्यक है । अतः शुक्ल रूप और श्याम रूप भी एक अधिकरण में वृत्ति होने की वजह परस्पर अनधिकरणवृत्ति नहीं हैं । अतः 'परस्परअनधिकरणवृत्तिसजातीयत्व-स्वरूप विरुद्धत्व की अप्रसिद्धि होने से उसका त्याग करना मुनासिक ही है, यह निष्कर्ष है । ॐ नित्यानित्यत्व नातिविशेषस्वरूप है - स्याद्वादी अथवा इति । व्याख्याकार श्रीमद्जी व कारिका की अन्य रीति से व्याख्या करते हैं कि - नित्यत्व- अनित्यत्व आदि धर्म विशेषरूप से परस्परमिश्रित स्वभाव से मिलित (= रुद्ध) है, यह असत् = काल्पनिक नहीं है, क्योंकि तदेकत्वविषयक प्रमाण प्रसिद्ध है । तात्पर्य यह है कि नित्यानित्यत्व नरसिंहत्व आदि की भाँति जातिविशेपात्मक है, क्योंकि परस्पर में समाविष्ट विषयक प्रतीति की उससे उत्पत्ति होती है । केवल नरत्व और केवल सिंहत्व से नरसिंहत्वप्रकारक प्रतीति की भाँति केवल
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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