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________________ * सुप्तिडोः वचनस्यनियममीमांसा * भावनाविशेष्याम्य घटल्यादितियोमिकाशातम्याऽप्यैक्यात् । * जयलता * नास्ती' त्यस्य वाक्यप्रयोगस्य अपि आपत्तेः - प्रामाण्यापत्तेः । अत्रैव हेतुमाह भावनाविशेष्यस्य = आख्यातार्थभावनाविशेष्यभूतस्य, घटद्वयादिप्रतियोगिकाभावस्य = द्वित्वावच्छिन्नघटप्रतियोगिकाभावस्य अपि ऐक्यात् = एकत्वसंख्याविशिष्टत्वात् । अयं भावः 'भावनान्वयिनी संख्या' इति नियमात आख्यातार्थभावनाया यत्रान्वयी भवति तद्विशेष्यकसंख्यान्वयबोध एवाख्यातेन जन्यते । तथा च 'वर्तमाने लट् (अष्टा. ३/२/१२३) इति पाणिनिसूत्रात् प्रकृते वर्तमानत्वरूपाया लडाख्यातार्थभावनाया यदि द्वित्वसंख्याविशिष्टघटप्रतियोगिकात्यन्ताभावेऽन्वय: स्वीक्रियेत तदा 'घटी अस्ती'ति वाक्यप्रयोगः प्रामाणिक एवं स्यात्, आरख्यातार्धेकत्वसंख्याया घटद्रयप्रतियोगिकाभावेइन्वयस्याऽबाधितत्वात्, अमावस्यैकत्वात् । न च आख्यातार्धेकत्वसंख्यान्वयस्य घटद्वये बाधितत्वान्नायं प्रयोगः प्रामाणिक इति वक्तव्यम्, भावनाया अविशेष्ये घनदयादा संख्यान्चयबोधस्याऽव्युत्पन्नत्वात् । ततः सुप्तिङोः समानवचनकत्वनियमान्यधानुपपत्त्या अपि 'घटो नास्ती' त्यादौ 'वर्तमानकालसंबन्धाश्रयत्वाभाववान् घट' इत्यादिरूप एलाइन्वयचोधोऽभ्युपगन्तव्यः परेणाऽकामेनाऽपि । वस्तुतस्तु 'चैत्रो मैत्रश्च गच्छतः' इत्याद्यबाधितप्रयोगदर्शनात क्रियापदस्य विशेष्यवाचकपदसमानवचनकत्वनियमो नास्त्येव । न च तत्र सुबेकवचनस्यैव द्वित्वादी लक्षणाऽस्त्विति वक्तव्यम्, आनुशासनिकातिरिक्तार्थे सुन्विभक्तेलक्षणाया अनङ्गीकारादिति पूर्वमेवोक्तत्वात्, अन्यथा 'चैत्रो मैत्रश्च गच्छत' इत्यादाविव च्छन्दसि लक्षणयैव स्वादिना द्वित्वादिबोधनसम्भवाद् औ-जसादिरूपादेशिस्मृतिद्वारा द्वित्वादिबोधनिहाय छन्दसि ‘सुपां सुलुक्' इत्यादिसूत्रेण औ-जसादिस्थाने स्वाद्यादेशस्य वैयर्थ्यात्, चैत्रादिपदोत्तरैकवचनस्य द्वित्वादिलाक्षणिकत्वोपगमे तदप्रकृत्यधमनादिसाधारणद्वित्यादिबोधस्य 'प्रत्ययानां स्वप्रकृत्यान्वित-स्वार्थबोधकत्वमिति व्युत्पत्तिविरोधेनाऽनुपपत्तेश्च । आख्यातार्थसंख्यान्वयनोधे च समानविद्रोश्यकतदर्थभावनान्वयबुद्धिसामग्री अपेक्षिता, भावनाया बाधादिग्रहकाले तात्पर्यादिग्रहशून्यकाले चोक्तस्थले द्वित्वान्वयाऽचोधात् भावनाप्रकारकशाब्दबोधसामग्र्याः संख्यान्वयबुद्धित्वाच्छिन्नं प्रति स्वातन्त्र्येण हेतता । अत एव 'घटः तिष्ठत्त' इत्यादयः प्रयोगाः कधं न प्रामाणिकाः स्युः ? इति नारेकणीयम्, आख्यातोपस्थापितद्वित्वादिकमुभयादिरूपान्वयितावच्छेदकाबछिन्ने एवान्वेतीति व्युत्पत्तेः । अत एव घटद्वयप्रतियोगिकाभावस्याख्यातार्थभावनाविशेष्यत्योपगमे 'घटी नास्तीति प्रयोगस्य प्रामाणिकत्दप्रसङ्गोऽपि परमते वज्रलेपायितः । एवमेव 'घटी न स्त' इत्यादेर-प्रामाण्यप्रसङ्गोऽपि दुर्निवारः, भावनाविशेष्याभावे आरख्यातार्थंद्रित्वसंख्याया बाधात् । एकवचनान्तक्रियापदस्पैकत्वसंख्याविशिष्टविशेश्यवाचकपदप्रयोगे साधुत्वात् । अत एव 'घटी अस्ती' त्यादयो न प्रयोगाः । योगिकाभाव भी एक - एकत्वसंख्याविशिष्ट ही है । आशय यह है कि लट्, लोद, लिट्, लङ् आदि दश लकार पाणिनि ने बताये हैं, जिन्हें आख्यात कहते हैं। आख्यातार्थ भावना, संख्या आदि हैं। आख्यातार्थ भावना का जहाँ अन्वय होता है वहीं आख्याता संख्या का अन्दय होता है - यह सान्दिको (वैयाकरणों) का नियम है। जैसे 'रामो गच्छति' में आख्यातार्थ वर्तमानत्वरूप भावना का अन्वय राम में होने की वजह आख्यातार्थ एकत्व संख्या का अन्वय भी राम में ही होता है । मतलब कि आख्यातार्थ भावना के विशेष्य में संख्या का अन्वय होता है। यदि भावना के विशेष्य में आख्यातार्य संख्या का अन्वय बाधित हो तब वह वाक्य अप्रमाण कहा जाता है और अबाधित हो नर वह प्रमाण - सत्य कहा जाता है। अब प्रकृत में देखिये, 'घटो नास्ति' इस वाक्य से जन्य बाथ में घर के स्थान में घटाभाव को भावना का विशेष्य माना जाय तब 'घटौ नास्ति' यह वाम्य भी प्रामाणिक हो जायेगा, क्योंकि आख्यातार्थ भावना के विशेप्यभूत द्वित्वविशिघटप्रतियोगिक अभाव में आख्यातार्थ एकल संख्या अबाधित है । एक घट का, दो घट का या हजारों घट का जो अभाव है वह एक ही है, अलग-अलग नहीं । अतः दो घट का अन्यन्ताभाव भी एक ही है, दो नहीं । अतः 'घटी नास्ति' यह प्रयोग प्रामाणिक हो जायेगा । मगर वह प्रामाणिक नहीं है । 'घटौ न स्त:' यह प्रयोग ही प्रामाणिक है । मगर वह प्रामाणिक वचन आपके मतानुसार अप्रामाणिक हो जायेगा, क्योंकि भावना विशेष्यभूत घटद्वयप्रतियोगिकाभाव एक होने से उस में आख्यातार्थ द्वित्व संख्या का अन्वय बाधित है। यह तो उल्टी सृष्टि हो गई। अतः आपको यह मानना ही उचित है कि 'घटो नास्ति' इत्यादि स्थल में प्रतियोगिविशेप्यक शाब्दबोध का ही अंगीकार किया जाय । तब 'घटरी नास्ति' यह प्रयोग प्रामाणिक बनने की आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि भावना का विशेप्य घटद्वय हैं, जिनमें आख्यातार्थ एकत्व संख्या का अन्वय बाधित है । अतः 'पटत्वेन घटो नास्ति' इस स्थल में भी पटत्वावच्छेदेन घट में ही नास्तित्व का अन्वय करना उचित है, न कि घटाभाव में अस्तित्व का अन्वय । अतएव वहाँ पटत्व में घटाभावीयप्रतियोगिता की अवच्छेदकता नहीं है किन्तु घटवृतिनास्तित्व की
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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