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* कथञ्चिदवक्तव्यत्वसमर्थनम्
(४) युगपदुभयार्पणासहकारेण स्यादवक्तव्योऽपि न तु सर्वथा, अवक्तव्यपदेनाऽपि
ॐ जयलता है
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| आप्तपुरुषञ्च पर्यनुयुंक्ते । तस्प्रत्युत्तरेण नित्यत्वप्रकारकबधे जातेऽपि किमयं सर्वथा नित्य आहोस्थित कथञ्चित् ?' इति संत | वुभुत्सति पृच्छति चाभियुक्त पुरुषम् । तदुत्तरं तदुत्तरात् स नित्योऽपि अनित्यत्ववानपी' ति जानाति । यस्तु केवल घटादिकं पश्यत्येव न तु संदेग्धि, ज्ञातुमिच्छति वा नित्यत्वादिकं स नेव विमर्शति नित्यत्वादिकं न वाऽनुयुते शिष्टपुरुषमिति न तदवबोधभाग्भवति प्रेक्षमाणोऽपि घटादिकमिताच्छाया अपि नित्यत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षकारणत्वं प्रमीयते । न चैवं सर्वत्र प्रत्यक्षस्येच्छाजन्वतं स्यात् स्वामित्यादिप्रकारकप्रत्यक्षं प्रत्यपीति वाच्यम्, सर्वत्रच्छायाः प्रत्यक्षसामनन्तर्भूतप प्रकृते तादृशेच्छां विना नित्यानित्यत्वप्रकारको धानुदयात् तत्सत्त्वे चरविर्भावात् अन्वयव्यतिरेकप्रत्यक्षमहिम्ना तस्याः तं प्रति कारणत्वं कल्पनामर्हति दृष्टानुसारेणैव कल्पनाया: प्रामाणिकत्वात् । यद्यपि विवक्षा शाब्दबोध एवं प्रयोजिका, न प्रत्यक्ष | नाऽपि जिज्ञासा, चटदिदृक्षयोन्मीलितनयनस्य पुरः स्थितपदप्रत्यक्षानुपपत्तिप्रसङ्गात, तथापि प्रधानगुणमविन तथातच प्रत्यक तत्तदर्भित्वादिनियन्त्रितक्षयोपशमस्याऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां विशिष्य हेतुत्वान्नानुपपत्तिः । तदुक्तं न्यायकणिकायां वाचस्पतिमिश्रेणापि “विशदतरकार्यसिद्धी चाऽप्रतीयमानमपि कारणं कल्पनीयं न पुनरप्रतीयमान कल्पनाभयात् कार्यवैशद्यमपह्नीतुमुचितम् " (न्या.क. ॥ पृ. ८९) इति ।
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चतुर्थधर्मं प्रतिपादयति - युगपदुभयार्पणासहकारंण = एकदेव विधिनिषेधो भयविवक्षासाचियेन, स्यादवक्तव्योऽपि = कथञ्चिदवक्तव्यत्वविशिष्टोऽपि यतो द्वयोर्धर्मयोः प्राधान्येन गुणभावेन वा युगपत्प्रतिपादने न किञ्चिद्रचः समर्धम् सर्वत्र स्यात्पदं नियतापेक्षालाभार्थं प्रयुज्यते । तच तिङ्गन्तप्रतिरूपकं निपातरूपं सर्वधात्वनिषेधकमनेकान्तद्योतीति प्रागुक्तमनुसन्धेयम् । स्यादव्यवच्छेद्यं कण्डत आह- न तु सर्वथेति । अवक्तव्यमित्यत्राऽप्यनुवर्तते । तत्र हेतुमाह अवक्तव्यपदेनाऽपि अवक्तविचार-विमर्श से उसे बोध होता है कि 'घट नित्य है, वह भी सर्वथा नहीं, मगर द्रव्यत्व आदि धर्म की अपेक्षा से' | यदि तादृश संशय - जिज्ञासा आदि न हो तो घट में कथंचित् नित्यत्व, कथंचित् अनित्यत्व, कथंचित् नित्यानित्यत्व आदि धर्म का भान नहीं होता है । अतः तादृश धर्म के साक्षात्कार के प्रति तादृश अर्पणा को कारण मानना आवश्यक है । अतः प्रत्यक्षविशेष की सामग्री में इच्छाविशेष का निवेश करना आवश्यक है
यह फलित होता है । स्याद्वादी
घट युगपत् अर्पणादय से कथंचित् अवक्तव्य
युगपदु इति । इस तरह युगपत् विधिनिषेध की अर्पणा होने पर 'घट कथंचित् अवक्तव्य है' ऐसा साक्षात्कारोय होने से घट में कथंचित् अवक्तव्यत्व धर्म भी रहता है । आशय यह है कि विधि-निषेध की क्रमिक कल्पना होने पर कथंचित् नित्यानित्यत्व का प्रतिपादन या प्रत्यक्ष हो सकता है, मगर विधि-निषेध की एक ही काल में कल्पना होने पर अर्थात् द्रव्यत्वपर्यायत्व भय की अपेक्षा घट क्या है ? ऐसी जिज्ञासा या प्रश्न होने पर कोई एक ऐसा शुद्ध शब्द (= असामासिक शब्द ) नहीं मिलता है, जिससे एक ही काल में प्रधानतया नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म का प्रतिपादन हो सके । अतः युगपत् उभय अर्पणा होने पर यही कहना पड़ेगा कि घट उभय (द्रव्यत्व- पर्यायत्व) की अपेक्षा एक ही काल में घट अवक्तव्य हैअनिर्वचनीय है किसी शब्द से प्रधानतया युगपद् नित्यत्व और अनित्यत्व वाच्य नहीं हो सकते । अतः तादृश प्रश्न के प्रत्युत्तर में 'घट अवक्तव्य है' यही कहा जा सकता है । 'पी' कहा जा सकता है, 'पु' कहा जा सकता है। मगर एक ही काल में दोनों को 'पी' इस रूप में बोला नहीं जा सकता। यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि युगपत् उभय अर्पणा होने पर घट सर्वथा अवक्तव्य ( वाणी का अविषय) नहीं है किन्तु कथंचित् ही अवक्तव्य है । यदि घट को सर्वधा अवक्तव्य माना जाय तब तो इसका मतलब यह हुआ है कि युगपद् उभयार्पणा होने पर घट किसी भी शब्द का विषय (= वाच्य) नहीं है । ऐसा होने पर तो घट अवक्तव्य शब्द से भी अवक्तव्य हो जायेगा । अर्थात् घट अवक्तव्य शब्द का भी विषय (= वाच्य) नहीं बन सकेगा । तब अवक्तव्यपदजन्य प्रतीति का विषय घट कैसे हो सकेगा ? अतः अवक्तव्य शब्द का भी घट में प्रयोग न होने की आपत्ति आयेगी । मगर अवक्तव्य शब्द का प्रयोग तो युगपत् उभय अर्पणा होने पर घट में होता है । अतः यही मानना उचित है कि घट सर्वथा अवक्तव्य नहीं है, किन्तु कथंचित ही अवक्तव्य है । अर्थात् समकालीन विधि-निषेध की कल्पना होने पर घट अवक्तव्य शब्द से वक्तव्य (= वाच्य = प्रतिपाद्य ) है और अवक्तव्य शब्द से अतिरिक्त शब्द से अवक्तव्य (= अप्रतिपाय ) है ।
९. दृदयतां चतुर्थपृष्ठे 1
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