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५०५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का. ७ * विशेषपदार्थाऽनुपपत्तिः *
विशेषपदार्थ स्वीकारोऽपि तेषां भेदकधर्मान्तराभाववतां परमाण्वादीनां नित्यद्रव्याणां परस्परयोगिभेदप्रत्यक्षान्यथाऽनुपपत्तेः । सोऽप्यनुपपन्नः, तद्गुणेष्वपि तत्स्वीकारापत्तेः ।
* जयलता
वस्तुतस्तु समानानां स्वभाव एवं सामान्यं, न त्वतिरिक्तम् । अत एव स्व-स्वातिरिक्तपदार्थेषु प्रमेयत्वस्वभावेन 'प्रमेयमिति बुद्धिवत् भावत्वस्वभावेनैव 'सदि' तिधीरिति दिक् ।
नैयायिकसम्मतविशेषपदार्थखण्डनार्थमुपक्रमते विशेषपदार्थस्वीकारोऽपीति । अतिरिक्तविशेषाख्यपदार्थाऽभ्युपगमोऽपि, अस्याग्रे 'अन्यधानुपपत्तेरि' त्यत्राऽन्वयः । तेषां = नैयायिकानां भेदकधर्मान्तराभाववतां = व्यावर्त्तकधर्मविरहवतां सतां परमाण्वादीनां = परमाण्वाकाशात्मदिक्कालमनसां नित्यद्रव्याणां परस्परं योगिभेदप्रत्यक्षान्यथानुपपत्तेः परस्परप्रतियोगिकदगोचरयोगजप्रत्यासत्तिजन्यसाक्षात्कारस्य भेदकधर्ममन्तरा असङ्गतिप्रसङ्गात् । यद्यपि द्रयणुकेषु कथञ्चित्त्रसरेणुषु च परस्परस्माद् भेदस्य लौकिकप्रत्यक्षाऽसम्भवेऽपि योग्यसन्निकर्षेण घटादिषु परस्परप्रतियोगिकभेदः प्रत्यक्षसिद्ध एवेति न तत्र व्यावर्त्तकधर्माऽपेक्षा तथापि पटादिषु परस्परसंश्लिष्टावयवेषु चालोकादिषु तथाविधेषु परस्परावयवभेदग्रहान्वयव्यतिरेकानुविधायिभेदग्रहो ऽवयविनां दृष्टो नापह्नोतुमर्हति । स च क्वचित्प्रत्यक्षरूपः संशयोत्तर प्रत्यक्षे विशेषदर्शनस्य कारणत्वात् । यदा तु प्रत्यक्षसामग्र्याः परिकरन्यूनता तदाऽनुमितिस्वरूपः । उभयथाऽपि तत्तदवयवभेदस्य व्यावर्त्तकत्वमव्याहतम् । भेदबोधजनकश्री विषयत्वमेव हि व्यावर्तकत्वम् । किञ्च प्रत्यक्षावगतमपि भेदमप्रामाण्यशङ्काकलका उपनयनाय दृढतरसंस्कारसम्पादनाय परं प्रति सम्यगुपपादनाय च युक्तिभिः स्थिरीचिकीर्षवः तत्तदवयवभेदमेव युक्तितयाऽवगच्छन्तो दृष्टाः । अयणुकादेस्तु योगिनां
प्रत्यक्षं परमाणुभेदावबोधात्सम्भवले अर्धयपरमानून जलादिनाशुमेह मोमिनां जातिभेदग्रहादेव सम्भवति । परं | सजातीयपरगाणून परस्परं भेदप्रत्यक्षं योगिनां नावयवभेदग्रहात् वैजात्यग्रहाह्रा सम्भवति, तेषां निरवयवत्वात्, सजातीयत्वाच्च । नव निर्निमितमेव तदङ्गीकार्यम्, अन्यत्राऽपि तथाप्रसङ्गात् । अतः तदनुरोधेन परमाण्वादिषु क्लृप्तपदार्थातिरिक्तो विशेषाभिधानः पञ्चमपदार्थ: स्वीकर्तव्य इति नैयायिकाभिप्रायः ।
प्रकरणकारस्तन्निराकरोति सः = अतिरिक्तविशेषपदार्धस्वीकार : अपि अनुपपन्नः, तद्गुणेषु = परमाण्वादिगुणेषु अपि तत्स्वीकारापत्तेः विशेषपदार्थाङ्गीकारप्रसङ्गात् तेषु परस्परप्रतियोगिकभेदविषयकयोगिप्रत्यक्षानुपपत्तेः, अन्यथाऽर्ध
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नहीं है मगर समवाय सम्बन्ध का तो हम स्वाद्वादी पहले ही खण्डन कर चुके हैं, तब समवायगर्भित स्वाश्रयभेदसामानाधिकरण्य की बॉंग पुकारना कैसे समीचीन होगा ? अतः वर्धमान उपाध्याय का वक्तव्य भी असंगत है ।
ॐ नैयायिकसंगत विशेषपदार्थ अप्रामाणिक
विश इति । जैसे नैयायिकसम्मत सामान्य पदार्थ अप्रामाणिक है ठीक वैसे ही नैयायिक अभिमत विशेष पदार्थ भी अप्रामाणिक है। विशेष पदार्थ की सिद्धि के लिए नैयायिक मनीषियों की ओर से यह युक्ति बताई जाती है कि *घट और पट विजातीय द्रव्य के बीच परस्पर के भेद का साधक घटत्व पटव जातिभेद है । सजातीय घट घट के बीच परस्पर के भेद कर साधक उनका अवयवभेद है, क्योंकि दोनों घट के अवयव कपाल मित्र होते हैं। इस तरह दो द्व्यणुक के बीच भेद का साधक उनके अवयव परमाणुओं का भेद होता है। मगर निरवयव परमाणुओं के बीच भेद का साधक कौन होगा ? क्योंकि परमाणुओं में कोई अवयव नहीं होते हैं । हाँ, पार्थिव परमाणु और जलीय परमाणु के भेद का साधक पृथ्वीत्व, जलत्व सामान्यभेद हो सकता है, मगर दो पार्थिव परमाणुओं के भेद का साधक जातिभेद नहीं हो सकता, क्योंकि उनमें भिन्न जाति नहीं होती है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि सजातीय अनेक परमाणुओं में भेद ही नहीं होता है, क्योंकि योगी को सजातीय परमाणुओं में भेद का योगज प्रत्यक्ष होता है । योगजप्रत्यासनिजन्य सजातीयअनेकपरमाणुreasure योगिप्रत्यक्ष की अन्यथा अनुपपत्ति से भिन्न अवयवादि भेदकधर्म से शून्य सजातीय परमाणुओ में विशेष नामक अतिरिक्त पदार्थ की कल्पना की जाती है । सजातीय परमाणुओं में विशेषपदार्थ अलग - अलग होने से योगियों को उन परमाणुओं में भेद का साक्षात्कार होता है । इस तरह विशेष नामक पंचम पदार्थ की सिद्धि होती है" -
सोऽप्य इति । मगर प्रकरणकार श्रीमद्जी का इसके खिलाफ यह वक्तव्य है कि उक्त रीति से विशेष पदार्थ का स्वीकार भी अनुपपन्न अप्रामाणिक है, क्योंकि तब तो परमाणुओं के गुणों में भी भेदसिद्धि के लिए विशेष पदार्थ के स्वीकार की आपत्ति, जो नैयायिक को अनिष्ट है, आयेगी। सजातीय अनेक परमाणु के भेद के योगिप्रत्यक्ष की अनुपपत्ति
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