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________________ *वर्धमानोपाध्यायमतालोचनम् * एलेन अनेकवृत्तित्वं स्वाश्रयाऽन्योन्याभावसामानाधिकरण्यमि' ( ) ति व मान- | वचनमध्यपास्तम्, विशेषेऽतिव्याप्तितादवस्थ्यवारणाय सामानाधिकरण्यस्य समवायगर्भत्वावश्यकत्वात् । * जयलता * __एतेनेति । अपृथग्भावातिरिक्तसमवायनिराकरणेनेत्यर्थः । अस्याऽपास्तमित्यनेनाऽन्वयः । सामान्यनिष्ठं अनेकवृनित्त्वं नाम स्वाश्रयान्योन्याभावसामानाधिकरण्यं = स्वाधिकरणप्रतियोगिकभेदाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वम् । स्वपदेन सामान्यस्य ग्रहणम् । 'स्वाश्रये'त्युक्त्या सामान्ये स्वाश्रयवृत्तित्वं प्रतीयते । स्वाश्रयभिन्ननिरूपितवृत्तित्वस्य चाग्रभागेन भानादनेकवृत्तित्वोपपत्तिः । तथाहि - घटत्वे स्वाश्रयनीलघटनिरूपितवृत्तित्वं स्वाश्रयनीलघटप्रतियोगिकभेदाधिकरणीभूतपीतादिघटनिरूपितवृत्तित्वञ्च वर्त्तते इत्यनेकवृत्तित्वं घटत्वलक्षणसामान्य उपपद्यते । एवमेव पदत्वादिस्वरूपसामान्येऽपि भावनीयमित्यर्थकं वर्धमानवचनं = गङ्गेशपुत्रवर्धमानवचनं अपि अपास्तम् । यत्किञ्चित्सम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्वाभ्युपगमे विशेषादावतिव्याप्तिप्रसङ्गात् । विशेषे स्वाश्रयपरमाणुनिरूपितवृत्तित्वस्य स्वाश्रय - परमाणुप्रतियोगिकभेदाधिकरणीभूतघटादिव्यक्तिनिरूपितकालिकसम्बन्धावच्छिन्नवृत्तित्वस्य च सत्त्वात, घटादेरनित्यत्वेन कालोपाधितया कालिकसंसर्गेण विशेषाश्रयत्वात् । एवमेव समवायाऽभावद्रव्यगणादा-बपि सम्बन्धभेदेनाजतिब्याप्तेः । ततश्च विशेषे उपलक्षमात्समवाये च अतिव्याप्तितादवस्थ्यवारणाय सामानाधिकरण्यस्य समवायगर्भवावश्यकत्वादिति । ततश्चानेकवृत्तित्वं स्वाश्रयप्रतियोगिकभेदाधिकरणनिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छित्रवृत्तित्वमित्यभ्युपगन्तव्यम् । ततो न विशेषादाबतिव्याप्तितावस्थ्यम, घटादी परमाणुवृत्तिविशेषस्य समवायेनाऽवृत्तित्वात, समवायादेश्च समवायेन स्वाश्रयभेदाधिकरणाऽवृत्तित्वात् । न च कपालद्वयादिप्रारब्धघटादावतिव्याप्तिः, स्वाश्रयप्रथमकपालप्रतियोगिकभेदाधिकरणीभूतद्वितीयकपालनिरूपितसमवायसंसर्गावच्छिन्नवृत्तित्वमत्त्वादिति वाच्यम्, सामान्यलक्षणे 'नित्यत्वे सती'ति विशेषणात् । एतेन संयागादाबतिव्याप्तिरपि प्रत्युक्ता, नित्यसंयोगानभ्युपगमात् । परन्त्वेवमवश्यक्लुप्तं समवायगर्भितसामानाधिकरण्यं तदभिमतसमवायस्याऽसत्त्देन न घटामञ्चति, समवायनिरासेनैव तन्निरासात् । अविष्वग्भावस्थानीयसमवायाऽङ्गीकारे तु सामान्येऽतीतानागतव्यक्तिनिरूपितवृत्तित्वाऽसम्भवेन याबव्यक्तिवृत्तित्वं बाधितम्, अविष्वग्भावस्य नानात्वात् । अविश्वग्भावस्य कश्चिदेकत्वेनाऽतीतादियावद्व्यक्तिनिरूपितवृत्तित्वोपपादने तु अभावेऽ- . तिव्याप्तितादबस्थ्यात् । न चा:भावभिन्नत्वे सतीति विदोषणान्न दोष इति वक्तव्यम्, गौरवात्, नित्यसंयोगेऽतिच्याप्तेश्च । न च नित्यसंयोगे मानाभाव इति वाच्यम्, 'गगनं मात्मसंयुक्तमिति प्रतीतेः प्रामाण्यापत्तेः तदभ्युपगमस्याउवदयकत्वात् । एतेन. इति । जातिनिष्ठ अनेकसमवेतत्व की व्याख्या वर्धमान उपाध्याय इस तरह करते हैं कि -> 'अनेकसमरेतत्व का मतलब है अनेकवृत्तित्व और वह स्वाश्रयाऽन्योन्याभावसामानाधिकरण्यस्वरूप है । स्वपद से जाति का ग्रहण अभिप्रेत है। जैसे स्व = घटत्वजाति का आश्रय विवक्षित नील घट और उसका भेद रहता है पीतादि घट में, जिसमें घटत्व रहता है। वही अनेकवृत्तित्व = स्वाश्रयभेदसामानाधिकरण्य = स्वाश्रयभेदाधिकरणनिरूपितवृतित्व है। इस तरह घटत्व स्वाश्रय = नील घट एवं स्वाश्रयभिन्न = पीतादि घट में वृत्ति होने से अनेकवृत्तित्वविशिष्ट है । इस तरह जातिलक्षण के विशेप्य अंश की घटत्व जाति में उपपत्ति होने से जातिलक्षण असंभवदोपग्रस्त नहीं है एवं पटत्वादि जाति में अज्याप्ति दोष भी अप्रसक्त है, क्योंकि नीलपट - स्वाश्रय के भेद के अधिकरण पीतादि पट की उत्तिता = स्वाश्रयभित्रवृत्तित्व पटत्व जाति में अबाधित है' -- मगर यह व्याख्या भी असंगत है, क्योंकि इस तरह असंभव और अन्याप्ति दोष का निराकरण करने पर अतिव्याप्ति दोप प्रसक्त होता है। देखिये, परमाणु में विशेप नाम का पदार्थ नैयायिकमतानुसार रहता है । अतः स्व = परमाणुगत विशेप के आश्रय = परमाणु के भेद का अधिकरण = स्वाश्रयान्योन्याभाराधिकरण घट, पट आदि पदार्थ होते हैं, जिनमें कालिकसम्बन्ध से विशेष पदार्थ रहता है, क्योंकि अनित्य होने की बजह घटादि कालोपाधि बनते हैं। अतः स्वाधयभेदाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वात्मक अनेकवृत्तित्व विशेष में भी रहता है। विशेष तो जाति नहीं होने से अलक्ष्य है, फिर भी उसमें उक्त अनेकवृत्तित्व रहने से अतिच्याप्ति दोप का प्रसंग आता है। ऊँट को निकालने पर भी बकरी तो घुस ही गई । इस अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिए गंगेश उपाध्याय से सपूत वर्धमान उपाध्याय को यही कहना होगा कि-> 'स्वाश्रयभेदामानाधिकरण्य कालिकादि यत्किञ्चित् सम्बन्ध से नहीं किन्तु समवाय सम्बन्ध से अभिमत है । स्व (= विशेष) आश्रय (= परमाणु) भेदाधिकरणीभूत घटादि में विशेष, जो सात पदार्थ में से पाँचवा पदार्थ है, समवाय सम्बन्ध से तो नहीं ही रहता है। अतः स्वाश्रयभेदाधिकरण-निरूपित समवायसम्बन्थावच्छिन्न वृत्तित्व तो विशेषपदार्थ में नहीं रहने से अतिव्याप्ति दोष का अवकाश
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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