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________________ * चाक्षुषे स्पर्शस्याऽकारणत्वाऽऽवेदनम् * किच, परेणाऽपि द्रव्यचाक्षुषत्वावछि प्रति उद्धृतरूपस्य हेतुत्वं वाच्यम् । न च ता (तत्र च न ?) उद्भतस्पर्शवत्त्वस्याऽपि तथात्वे विनिगमकाभावः; वायोश्चाक्षुषत्वापत्तेरेव विनिगमकत्वात् । न च बहिर्दव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिा प्रत्येवोद्भुतरूपस्पभियनेन हेतुताsस्तु, द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिनं प्रत्युतरूपस्य द्रव्यस्पार्शनत्वावच्छिनं प्रत्युतस्पर्शस्य च * जयलता * पराशङ्कायामाह - किवेति । परेणाऽपि = प्रगल्भेनापि, द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं = द्रव्यविषयकलौकिकचाअषमात्र, प्रति | उद्भूतरूपस्य हेतुत्वं वाच्यम् । तथा च न चन्द्रादिप्रभाद्रव्यस्याऽतीन्द्रियत्वम्, तस्योद्भूतरूपवत्त्वात् । अत एव प्रौढप्रका झकयावत्तेज:संसर्गाभावस्य नातीन्द्रिय प्रसङ्गः, येन प्रकाशकरूपाभावस्यैव तमस्त्वाऽभ्युपगमः चारुतामञ्चत् । परशङ्कामपाकर्तुमुपक्रमते - न चेति । तत्र = द्रव्यगोचरलौकिकचाक्षुषत्वावच्छिन्ने, उद्भूतरूपवत् उद्भूतस्पर्शरत्वस्थाऽपि तथात्वे - कारणत्वे, विनिगमकाभावः । द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति उद्भूतरूपवत्त्वग्य हेतुत्वमाहोस्वित् उद्भुतस्पर्शवत्वस्य ? इत्यत्रैकतरपक्षपातियुक्तिविरहेण मयोद्भुतस्पर्शवत्वस्यैब तथात्वमुपेयते त्वयोद्भुतरूपवत्त्वस्येव । तथा च चन्द्रादिप्रभाद्रव्यस्य न चाक्षुषत्वम्, उद्भूतस्पर्शशून्यत्वात्तस्येति प्रौढप्रकाशकयावत्तेज:संसर्गाभावयव तमस्त्वे तमसाइतीन्द्रियत्वस्य दुरित्वामिति शङ्काशयः । तस्या अयुक्तत्वामाविष्करोति प्रकरणकृत् - वायोवाक्षुषत्वापत्तरेव विनिगमकत्वादिति । यदि चोद्भुतस्पर्शवत्त्वस्यैव द्रव्य - चाक्षुषकारणत्वं स्यात्तर्हि वायोरुभूतस्पर्शवत्त्वेन चाक्षुषत्वं स्यात् । न च तथा, तस्मात्रोद्भुतस्पर्शवत्वस्य द्रव्यलौकिकचाक्षुषहेतुत्वमिति समाधानाशयः । न चेति । 'वाच्यमि' त्यनेनाऽस्याऽन्दयः । बहिर्द्रव्यप्रत्यक्षत्वावच्छिन = बहिरिन्द्रियजन्यद्रव्यगांचरलौकिकप्रत्यक्षमात्र, प्रत्येव उद्भूतरूप-स्पीभयत्वेनेति । एवकारों चण्टालोला-चायनामिसम्बध्यते, 'उद्भूते' त्याद्यदीपकन्यायेनाऽग्रे स्पर्शेनाऽपि साकमन्वीयते । हेतुताऽस्त्विति । लाघवादिति गम्यते । चन्द्रादिप्रभाद्रव्यस्योद्भूतरूपवत्त्वेऽप्युद्भूतस्पर्शशून्यत्वेन 'एकसत्त्वेऽपि द्वयं नास्ती' ति न्यायादुद्भूतरूपस्पभियत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावदत्त्वान्न प्रत्यक्षत्वम् । अत: प्रौढप्रकाशकयाबनजोद्रत्र्यसंसर्गाभावस्य तमस्त्वे तमसोऽतीन्द्रियत्वापत्त्या प्रकाशकरूपाभावस्यैव तमस्त्वमभ्युपगन्तुमर्हतीति प्रगल्भाभिप्राय उन्नीयते । पूर्वोक्तैवकारफलं दर्शयति - द्रव्यचाशुषत्वावच्छिन्नं = विषयतासम्बन्धेन द्रव्यविषयकलौकिकचाक्षुषमात्र प्रति समवायेन उद्भूतरूपस्य द्रव्यस्पार्शनत्वावच्छिन्नं = विषयतासम्बन्धेन द्रव्यविषयकलौकिकस्मार्श ग्मात्रं प्रति समवायेन उद्भूतस्पर्शस्य च इति हेतुताद्वय उसका चाभुप नहीं होता है जैसे जलस्थ तेजद्रन्य, चक्षुरश्मि आदि का । चन्द्रादि की प्रभा में उद्भत रूप तो स्वानुभरसिद्ध ही होने से चन्द्रादि की प्रभा का चाक्षुष होने में नैयायिकमत्तानुसार भी कोई बाधक नहीं है । अतएव चन्द्रादि की प्रभा को अतीन्द्रिय द्रव्य नहीं कहा जा सकता । इस तरह परमतानुसार भी चन्द्रादिप्रभाद्रव्य चाक्षुषयोग्य होने से प्रीदप्रकाशकयावत्तेजोद्रव्यसंसर्गाभाव को अतीन्द्रिय नहीं कहा जा सकता । यहाँ यह शंका करना कि -> "द्रव्यविषयक चाक्षुष के प्रति ट्रम्पसमवेत उदूत रूप को हेतु मानना या उद्भुत स्पर्श को ? इस विषय में कोई नियामक - विनिगमक नहीं होने से उद्भूत स्प; को ही द्रव्यचाक्षुष का कारण माना जा सकता है । चन्द्रादि की प्रभा में, जो द्रव्यात्मक है, उद्भुत स्पर्श न होने से उसका चाक्षुष नहीं हो सकता है। अतएव अन्धकार को प्रोडप्रकाशक यावत्तेजोद्रव्य के संसर्गाभावात्मक मानने पर अन्धकार में अतीन्द्रिषत्व की आपत्ति ज्यों की त्यों बनी रहती है" - ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यचाक्षुष में उद्भूत पर्श को कारण मानने पर वायु का चाक्षुष होने की आपत्ति मुँह फाडे खड़ी रहती है, क्योंकि वायु में उद्भूत स्पर्श तो रहता ही है। मगर वायु द्रव्य का कभी भी चाक्षुष नहीं होता है। इससे ही निश्चय होता है कि द्रव्यविषयक लौकिक चाक्षुष में उद्भुत स्पर्श कारण नहीं है, किन्तु उद्भूत रूप ही कारण है। उद्धत रूप तो चन्द्रादि की प्रभा में अबाधिन होने से उसका बानुष हो सकता ही है। अतः उक्तस्वरूप अन्धकार के अतीन्द्रियत्व होने की समस्या का अवकाश नहीं है । उतरूप-स्पर्शोभय में बहिरिन्द्रियजन्य द्रव्यप्रत्यक्षा की कारणता नामुमकिन है न च बहि, इति । यदि प्रगल्भ की ओर से यह कहा जाय कि -> "रहिरिन्द्रिषजन्य द्रव्यप्रत्यक्ष के प्रति उन्न्त रूप एवं उद्भुत स्पर्श उभय को ही हेतु मानना उचित है, क्योंकि ऐसा मानने पर एक कार्यकारणभाव की ही कल्पना करनी पड़ती है। जब कि द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छित्र = यावत् द्रव्यचाक्षुष के प्रति उद्धृत रूप को कारण मानने पर व्यस्पार्शनत्वावचित्र - यावत् द्रव्यविषयक स्पर्शनेन्द्रियजन्य ज्ञान के प्रति उद्भुत स्पर्श को कारण मानना पड़ेगा । इस तरह दो कार्य-कारणभाव - - -
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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