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________________ र प्रकरणादीनां न शक्तिसहकारिता* तात्पर्यग्राहकत्वेन तदनुगमे त लाघवातात्पर्यग्रहत्वेनैव तत्सहकारित्वकल्पनमुचितमिति एकदोभयतात्पर्यग्रहे एकपदादेकदोभयबोधाऽस्वारस्यनिर्वाहाय 'सकृदुच्चरिते'त्यादिनियमो युक्त === * जयलता * दयः प्रतिनियतार्थविषयकशाब्दबोधं प्रति न शक्तिसहकारिणः, अननुगतत्वात् । अनुगतत्वविरहेऽपि तृणारणिमणिन्यायेन तत्सहकारित्वो-पगमे कार्यकारणभावे महगौरवप्रसङ्गात् । ननु प्रकरणसंयोगविभागादीनां प्रकरणत्व-संयोगत्व-विभागत्वादिरूपेणाऽननुगतत्वेऽपि तात्पर्यग्राहकत्वेनाऽनुगतत्वसम्भवेन कन्यभिचारविरहात् नाऽर्थविशेषबोधे शक्तिसहकारित्वाऽसम्भव इति पराऽऽशकायामाह- तात्पर्यग्राहकत्वेनेति । एतत्पदादेतदर्धविषयकः शाब्दबोधो भवत्वित्याद्याकारकप्रयोक्तृ निष्ठेच्छाग्रहजनकत्वेनेति । तउनुगमे = प्रकरणादीनामशेषाणां सङ्ग्रहे । तुः विशेषे, तदुक्तं हलायुधकोशे 'तु स्या देऽवधारणे (हला, ५/८८१) इति । यद्यपि तात्पर्यज्ञानजनकत्वस्य व्यक्तिभेदेन | मिन्नतया इदमपि न सानुगतं तथापि जनकतासम्बन्धन तात्पर्यज्ञानत्वावच्छिन्नवत्त्वं सानुगत प्रसिद्धमित्याहायन तथोक्तमिति ज्ञेयम् । लाघवादिति । तात्पर्यज्ञानजनकत्वरूपगुरुधर्मेण प्रकरणादीनां चहूनां कारणत्वाऽपेक्षया तात्पर्यज्ञानत्वरूपलघुधर्मेण एकस्य कारणत्वे लाघवादित्यर्थः । तात्पर्यग्रहत्वेनैवेति । एवकारेण तात्पर्यज्ञानजनकल्वस्थ, जनकतासम्बन्धेन तात्पर्यज्ञानत्वावच्छिन्नवत्त्वस्य वा व्यवच्छेदः कृतः । तत्सहकारित्वकल्पनं = प्रतिनियतार्थबोधे शक्तेः सहकारित्वमिति कल्पनं उचितम् । इति = उक्तलाघवबलेन शाब्दबोधत्वावच्छिन्नं प्रति तात्पर्यग्रहत्वावच्छिन्नस्य हेतुत्वसिद्धी, एकदा = युगपत्, उभयतात्पर्यग्रहे नानाधर्मावच्छिन्नविषयकतात्पर्यज्ञाने सति, एकपदात् 'श्वेत आदिलक्षणात्, एकदा = समकालं, उभयबोधाऽस्वारस्यनिर्वाहाय 'सकदचरिते'त्यादिनियमो युक्त इति । 'श्वेतो धावती'त्यादावेकदा श्वेतवर्णो धावति. श्वा = कुकर इतो धावती' - नव्य नैयायिक का उक्त कथन असंगत है। इसका कारण यह है कि नानार्थवाचक एक पद से एक काल में अनेक अर्थ के बोध के अनुदय के निर्वाह के लिए प्रदर्शित न्याय का आश्रयण करना आवश्यक ही है । नव्य नैयायिक मनीषियों ने जो कहा था कि → 'प्रकरणादि से ही नानार्थक पद की शक्ति का अर्थविशेप में नियमन मुमकिन होने से उसके लिए || 'सकृदुश्चरित... न्याय का आलंबन करना नामुनासिर है' - वह युक्त नहीं है, क्योंकि प्रकरण आदि अननुगत होने से अर्थविशेपविषयक शान्द दोष के प्रति पदशक्तिसहकारिकारणता प्रकरणादि में संभवित नहीं है। मतलब यह है कि अनेकार्थक पद की अर्थविशेषनिष्ट शक्ति का नियमन कभी प्रकरण से, तो कभी संयोग से, तो कभी विभाग से, तो कभी आभिमुख्य आदि से होता है । प्रकरण, संयोग, विभाग, आभिमुख्य आदि में कोई अनुगत धर्म नहीं है, जिसकी अपेक्षा प्रकरणादि में प्रतिनियतार्थविषयक शान्दबोध के प्रति अनेकार्थकपदशक्ति का नियमन हो सकेगा। प्रकरण आदि अननुगत होने से तादृशशक्तिनियमनस्वरूप कार्य में व्यतिरेकव्यभिचार प्रसक्त होता है। अतः तादृशशक्तिनियमनार्थ 'सकदुचरित...' न्याय का आश्रयण संगत ही है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> "नानार्थक पद की अर्थविशेषनिष्ट शक्ति का नियमन प्रकरण, संयोग, विभाग, आभिमुख्य आदि में तात्पर्यग्राहकत्वस्वरूप अनुगत धर्म से मुमकिन होने से तदर्थ 'सकृदचरित...' न्याय का आश्रय करना असंगत है। आशय यह है कि प्रकरण, संयोग, विभाग आदि में प्रकरणत्व, संयोगत्व, विभागत्व आदि धर्म अननुगत होने पर भी तात्पर्यग्रहजनकत्वस्वरूप धर्म अनुगत है, क्योंकि वे सभी वक्ता के अभिप्राय का ज्ञान करा के ही अर्थविशेष में नानार्थक पद की शक्ति का नियमन कराते हैं । 'सैन्धवमानय' इत्यादि स्थल में भोजनप्रकरण 'लवणविषयक शाब्दबोध कराने के अभिप्राय से सैन्धव पद यहाँ प्रयुक्त है ऐसा तात्पर्यग्रह उत्पन्न करता है । 'घटमपनय' यहाँ संयोग ही घटपद की समीपस्थ यट में शक्ति का, 'घटपद से समीपवर्ती घट का श्रोता को शेष हो, इस अभिप्राय से वक्ता ने घटपद का प्रयोग किया है', ऐसा तात्पर्यज्ञान (= बक्ता की इच्छा का ज्ञान) उत्पन्न कर के नियमन करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रकरण, संयोग आदि तात्पर्यग्रहजनक हैं। अतः तात्पर्यग्राहकत्वरूप धर्म उन सब में अनुगत है। तात्पर्यग्राहकत्वलक्षण अनुगत धर्म से ही प्रकरणादि नानार्थक पद की शक्ति का अर्थविशेष में नियमन कर के अर्थविशेषविषयक शाब्दबोध के प्रति पदशक्ति के सहकारी हो सकते हैं। अतः तदर्थ 'सकदचरित...' न्याय का अवलंबन लेना निरर्थक है।" -- तात्पर्य ग्रह को सक्तिसहकाटी माजजे में लायत - स्याद्वादी इस ताता. इति । मगर यह शंका ठीक नहीं होने का कारण यह है कि प्रकरण, संयोग, विभाग आदि को तात्पर्यग्राहक मान कर अर्थविशेपविषयक शाब्द बोध के प्रति नानार्थक पद की शक्ति के सहकारी मानने की अपेक्षा लायव सहकार से तात्पर्यज्ञान को ही उसका सहकारी कारण मानना उचित है। प्रकरणादि को तात्पर्यग्राहकत्वेन = तात्पर्यज्ञानजनकत्व धर्म
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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