________________
३१५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * त्रुटिस्पाऽस्यार्शनविचार: *
यत्त -> महत्त्वोद्धतस्पर्शयो: कारणत्वाऽकल्पनलाघवात् त्वसंयुक्तत्वाचवत्समवायत्वेन द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनं प्रति प्रत्यासत्तित्वान्न त्रुटिस्पर्शस्पानिमिति -
--....------ ------- - -- -- ...-* जयलता * =-- - स्पार्शनस्या नापाद्यत्वादिति वक्तव्यम्, तत्तद्व्यक्तित्वेन प्रत्यक्षकारणतोपगमेऽनन्तकार्यकारणभावकल्पनागौरवात् । न च तस्य फलमुखत्वेनाइदोषत्वमिति वाच्यम्, प्रमाणप्रवृत्तिपूर्वमेव तादृशगौरबस्योपस्थितेः तादृशकार्यकारणभावबाहुल्यकल्पने मानाभावात्. सामान्यकार्यकारणभावकल्पने लाघवात् । ततश्चोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वा पगमे द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदिकाया एकत्ववृत्तिजातेः द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातिव्याप्यत्वे बाधकाभावेन नालासरेणुस्पर्शस्पार्शनस्य सुरगुरुणाऽप्यपाकर्तुमशक्यत्वात् । न च तत्स्पार्शनं भवति । अत एव नीलयुटः उद्भूतस्पर्शा:भावस्यायस्यमुपगन्तव्यत्वे उत्कटनीलरूपस्य नोद्भूतस्पर्शव्याप्यत्वं, येन तमस उद्भूतनीलरूपवत्वं उत्कटस्पशाभावस्य बाधकत्वं स्यात् । अनेन 'नीलं नमः' इति प्रतीते प्रामाणिकत्वमावेदितम् । ततः सुष्टूक्तं 'तमसो द्रव्यत्वे रूपबत्त्वमेव मानमि' (दृश्यतां ३०२ तमे पुटें) ति स्यावादिनो भिप्रायः ।
अथ यस्य द्रव्यस्य स्पार्शनं भवति तत्रैव समवेतस्य स्पर्शस्य स्पार्शनं भवति, यथा “घर्ट स्पृशामी' तिप्रतीत्या स्पार्शनविषयीभूतघदे समवेतस्य स्पर्शस्य स्पार्शनम् । इत्थश्च स्वनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतासम्बन्धेन स्पार्शनविशिष्टे समवेतस्य : पर्शस्य पानविषयत्वसिद्धेः त्वगिन्द्रियं न स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्धेन स्पार्शनकारणं किन्तु विषयतया स्वसंयुक्तरपार्शनविशिष्टानुयोगिकसमवायसंसर्गेणैव । युक्तश्चैतत् महत्त्वोद्भूतस्पर्शयोः स्पर्शप्रत्यक्षकारणत्वा कल्पनेन लाघवात. दर्शितप्रत्यासत्त्या एवाऽतिप्रसङ्गभञ्जकत्वादित्यभिप्रायकं नैयायिकदेशीयान्तरमतमावेदयति निराकर्तुं प्रकरणकार: → यत्त्विति । 'तत्रे' त्यनेना:स्याऽन्वयः । त्वक्संयुक्तत्वाचवत्समवायत्वेनेति । त्वाचप्रत्यक्षनिरूपितविषयतासंसर्गेण त्यक्संयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिक. समवायत्वेन, अनेन 'त्वकसंयक्तसमवायत्वेने त्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । द्रव्यान्य-द्रल्यसमवेतस्पार्शनं = द्रव्यान्यत्वे सति यो | द्रव्यसमो माशादिः नहोचरं सानिमजन्याशालार प्रति प्रत्यासत्तित्वात् = समवायस्य संसर्गत्वोपगमात् न त्रुटिस्पर्शस्पार्शनं = द्रव्यान्यत्वे सति त्रसरेणुसमवेतो यः स्पर्शः तद्विषयकरपार्शनप्रत्यक्षापतिः । त्रसंरणुसमवेतस्पर्शप्रतियोगिकसमवायस्य स्पर्शनेन्द्रियसंयुक्तसमवायत्वेऽपि त्रसरेणी: स्पार्शनाविषयत्वात् त्वगिन्द्रियसंयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टानुयोगिकत्वविरहेण
प्रसक्त बनने से कार्यकारणभाव में गौरव होता है । जैसे घटप्रत्यक्ष के प्रति घट में घटत्वेन कारणता, पटप्रत्यक्ष के प्रति पट में पटत्वेन कारणता इत्यादि का अंगीकार कर्तव्य बनने से कार्यकारणभाव में बाहुल्य आता है। जब कि विषयत्वरूप से विषय को प्रत्यक्षकारण मानने पर, चाहे घटप्रत्यक्ष हो या पटविषयक प्रत्यक्ष हो, घट या पट में विषयत्वरूप से ही प्रत्यक्षकारणता का अङ्गीकार होता है। जिसके फलस्वरूप कार्य-कारणभाव में गौरव की प्रसक्ति नहीं रहती है। इसलिए गौरख दोप की | वजह वैयक्तिकरूप से विपय में प्रत्यक्ष की कारणता अप्रामाणिक है। व्यक्तिगतरूप से विषय को प्रत्यक्षकारण मानने में कोई प्रमाण न होने की वजह यह नहीं कहा जा सकता कि "चाक्षुप प्रत्यक्ष के प्रति वायु अकारण है तथा स्पार्शन प्रत्यक्ष के प्रति त्रसरेणु या त्रसरेणुस्पर्श अकारण है। अतः त्रसरेणुगत एकत्व में द्रव्यचाक्षुपकारणतावच्छेदक जाति रहने से जैसे नील ब्रसरेणु का चाक्षुप प्रत्यक्ष होता है, ठीक वैसे ही उसकी व्यापक द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक जाति के उसीमें रहने से नीलत्रसरेणुस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होने की आपत्ति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। इसका निराकरण तब ही हो सकता है, यदि उत्कट नील रूप को उत्कट स्पर्श का ब्याप्य न माना जाय। इस परिस्थिति में अन्धकार में रूपवत्ता के प्रति स्पर्शाभाव बाधक नहीं हो सकता । निष्कर्ष अन्धकार द्रव्यात्मक है ।
he eपानेन्द्रिय में संयुक्तरताततत्समदाय से. पाता - नयायिकदेशीय
यन. इति । अन्य नैयायिक भनीपियों त्रसरेणुस्पर्श के अस्पार्शन का निर्वाह करने के लिए इस व्यवस्था का स्वीकार करते हैं कि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्पान के प्रति स्वसंयुक्तत्वाचप्रत्यक्षविशिष्टसमवाय सम्बन्ध से स्वगिन्द्रिय कारण है। | इन विद्वानों का आशय यह है कि जिस द्रव्य का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है, उसीमें समवेत स्पादि का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है। जिस द्रव्य में महत्त्व और उद्भुत स्पर्श रहता है, उसी द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है, न कि अन्य द्रव्य का । अतः स्पार्शनप्रत्यक्षमात्र के प्रति महत्त्व और उद्भुत स्पर्श को कारण मानने की आवश्यकता नहीं है। जैसे महत्परिमाण एवं उद्भूतस्पर्श से युक्त होने से घट का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है । महत्परिमाण से शून्य परमाणु का या उद्भुतस्पर्शशून्य प्रभा-आकाशादि का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है। इसलिए महत्त्व और उद्भुतस्पर्श में दन्यविषयक स्पार्शनप्रत्यक्ष की कारणता माननी अनिवार्य है। मगर स्पर्श