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________________ * नीलत्रसरेणी व्यभिचाराऽऽवेदनम् * स्पर्शसत्त्वात्, अत एव तत्सम्बन्धाच्चक्षुषि जलनिपात इति वाच्यम्, चक्षुर्धूमसंयोगेनैव जलनिपातजनकत्वात्, उद्भूतस्पर्शस्य धूमेऽसिदेः, नीलत्रसरेणी व्यभिचाराच्च । न च पाटितपट सूक्ष्मावयववत्तत्राऽप्युद्भूतस्पर्शवत्त्वानुमानम्; अनुद्भूतरूपस्योद्भूतरूप* जयलता है चारित्वम् । अत्राऽपि हेतुमाह अत एवेति । धूमस्योद्भूतस्पर्शवत्त्वादेवेति । तत्सम्बन्धात् = धूमसंयोगात्, चक्षुपि जलनिपातः = अश्रुपतनम् । यदि धूम उद्भूतस्पर्शवान् न स्यात्, तदानुनस्पर्शाधिकरणमारांयोगवत् तत्सम्बन्धात् नेत्रजलनिपतनं न स्यात् । न चैवमस्ति । अतो धूमस्योद्भूतस्पर्शवत्त्वमभ्युपेयम् । अतो न धूमे उद्भूतनीलरूपस्योद्भूत स्पर्शव्यभिचारित्वमिति परेषामाशयः । ३०६ स्याद्वादी तन्निराकरोति - चक्षुर्धूमसंयोगत्वेनैव जलनिपातजनकत्वादिति । जलनिपातनिष्ठकार्यतानिरूपित कारणतायाः चक्षुर्धूमसंयोगत्वावच्छिनत्वादित्यर्थः । एवकारेण चक्षुरुद्भूतस्पशश्रियसंयोगत्वस्य जलनिपातकारणतावच्छेदकत्वं व्यवच्छिन्नम् । अयं स्याद्वादिनोऽभिप्रायः चक्षुर्धूमसंयोगो न चक्षुरुद्भूतस्पर्शचद्रव्यसंयोगत्वेनाश्रुपातजनकः चक्षुरुद्भूतस्यशश्रियद्रव्यान्तरसंयोगत्वावच्छिन्नादपि जलनिपातप्रसङ्गात् । न चैवमस्ति । अतः चक्षुर्धूमसंयोगत्वेनैव तत्त्वमुपगन्तव्यम् । अतो न जलनिपालकारणताबच्छेदकघटकतया धूमे उद्भूतस्पर्शसिद्धिः । अनेन तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे उद्भुतस्पर्शाभाव एव बाधक इति प्रत्याख्यातम्, ! धूमे उद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वात् । अन्यत्रापि व्यभिचारमुपदर्शयति स्याद्वादी- नीलत्रसरेणी व्यभिचाराच्चेति । | नीलरूपाश्रये द्वणुकत्रयात्मके पटाद्यवयवे उद्भूतनीरूपस्योद्भूतस्पर्शव्यभिचारित्वाचेत्यर्थः । नीलत्रसरेणावुद्भूतनीलरूपस्य सत्त्वेऽपि उद्भूतस्पर्शविरहात्तस्य तत्र व्यभिचारः । न च तत्रोद्भूतनीलरूपमेव नास्तीति न व्यभिचार इति वक्तव्यम्, तचाक्षुषानुपपत्तिप्रसङ्गात् । अतः तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वमिति भावः | L ननु नीलत्रसरेणावप्युद्भूतस्पर्शोऽस्त्येव, अन्यथा तज्जन्यचतुरणुकादम्कुद्भूतस्पर्शानुत्पत्तिप्रसङ्गान्न कदापि नीलद्रव्यस्य स्पार्दानत्वं घटकोटिमश्वेतेति नैयायिकाद्याशङ्कामपाकर्तुं दर्शयति न च पाटितपटसूक्ष्मावयववत्तत्राऽप्युद्भूतस्पर्शवत्त्वानुमानमिति । वाच्य| मिति शेषः । प्रयोगस्त्वेवम् - नीलद्रव्यत्रसरेणुः उद्भूतस्पर्शवान् स्वसमवेतद्रव्यसमवेतोद्भूतस्पर्शजनकत्वात्, पाटितपटसूक्ष्मावयववत् यद्वा नीलत्रसरेणुस्पर्शः उद्भूतः स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवेतोद्भूतस्पर्शाऽसमवायिकारणत्वात् पाटितपटसूक्ष्माऽवयवस्पर्शवत् । हेतुतावच्छेदकं तु उद्भुतस्पर्शासमवायिकारणतात्वमेव । अनुद्भूतस्पर्शस्योद्भूतस्पदाऽसमवायिकारणत्वाऽसम्भवात् चतुरणुकसमये - का होना अनिवार्य होने से उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार असिद्ध है । इस प्रकार जब उद्भूत नील रूप में उत्कट स्पर्श की व्याप्ति निर्बाध है, तब अन्धकार में यदि उद्भूत नील रूप माना जायगा तो उसमें उद्भूत स्पर्श की भी आपति होगी । अतः उसमें उद्भूत नील रूप नहीं माना जा सकता और नीलेतर रूप उसमें प्रमाण के अभाव से मान्य नहीं हो सकता । इस तरह रूपविशेषाऽभावकूट से अन्धकार में रूपसामान्याभाव की सिद्धि होती है । अब अन्धकार में अन्यत्व की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि द्रव्यत्वव्याप्य रूप का उसमें अभाव रहता है । फलतः अन्धकार में द्रव्यत्व का अनुमान दुर्घट है" तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि चक्षु धूमसंयोग को अनुपात का जनक मान लेने से धूम में उद्भूत स्पर्श मानना आवश्यक नहीं है। मतलब कि चक्षुधूमसंयोगत्वरूप से अनुपात की जनकता लाघव सहकार से मानी जा सकती है, न कि चक्षु उद्भूतरूपविशिष्टसंयोगत्वेन । अतः धूम में उद्भूत स्पर्श की सिद्धि नहीं हो सकती है। अतएव धूम के उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार दुर्निवार है। इसलिए उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की व्याप्ति न होने से उद्भूत नील रूप से उद्भूत स्पर्श की आपत्ति का कोई भय नहीं है । इस तरह कोई बाधक न होने से अन्धकार में उद्धृत नील रूप सिद्ध है और इसलिये रूप से अन्धकार में इव्यत्व का अनुमान करने में कोई बाधा नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि नीली द्रव्य के त्रसरेणु में भी उद्भूत रूप में उद्भूत स्पर्श का व्यभिचार अपरिहार्य है, क्योंकि नील त्रसरेणु में उद्भूत नील रूप होने पर भी उद्भूत स्पर्श उपलब्ध नहीं होता है । अतः उद्भूत नील रूप में उद्भूत स्पर्श की व्याप्ति अप्रामाणिक है । * नील त्रसरेणु में व्यभिचारापत्ति के उद्वार का प्रयत्न न च पाटि इति । यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि "किसी पट को फाड़ने पर जो उसके सूक्ष्म अवयत्र निकलते हैं, उनका स्पर्श उद्भूत होता है, क्योंकि यदि वह उद्भूत न होगा तो उससे पट में उद्धृत स्पर्श की उत्पत्ति न होगी और न उसके सम्बन्ध से अश्रुपात होगा । तब पट के उन सूक्ष्म अवयवों के दृष्टान्त से नीली द्रव्य के त्रसरेणु में
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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