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________________ __५२५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ *नित्यप्रत्यक्षे लौकिकविषयितायाः सत्त्वमसत्त्वं वा ? * लौकिकविषयिताऽभावात, निर्विकल्पकवत् । न्दित्वजनकतावच्छेदिका लौकिकवियिता तत्र बाढमस्त्येवेति चेत् ? किं तावता ? इन्द्रिय सन्निकर्षादिजन्यतावच्छेदिकाया एव तस्याः प्रत्यक्षतायां तन्मत्वादित्येके । IT = = * जयलवा - | प्रत्यक्षस्यास्मदादिवृत्तित्वेऽस्माकं 'परमाण्वादयो मया साक्षात्कृताः', 'अहं परमाण्वादिकं जानामि', 'अहं परमाण्वादिगोचरसाक्षात्कारवान्,' "एतान् परमाणुत्वादिभिरहं ज्ञातवानि' त्याद्याकारकेणाऽनुव्यबसायेन नित्यप्रत्यनगोचरं मानसप्रत्यक्षं स्यात् । न चैवं भवतीति न तस्य जीवात्मवृत्तित्वं श्रद्धातुमर्हतीति अथाशयः । तत्समाधानमाविष्करोति - लौकिकविपयिताऽभावादिति । इन्द्रिय सन्निकर्षप्रयोज्यविषयतानिरूपितविषयित्वपिरहानाऽस्मदादीनां स्ववृत्तिनित्यैकप्रत्यक्षगोचरानुव्यवसायो भवति । तस्य नित्यत्वेन तद्दोचरे इन्द्रियसभिकर्षप्रयोज्यविषयता नास्ति । अत एव तत्र तादृशविषयतानिरूपितविषयिताऽपि नास्ति । अतो न तदनुव्यवसायो भवितुमर्हति । 'सर्वेषामेव ज्ञानानामनुव्यवसायविषयत्वेन नाऽत्रोदाहरणं दयितुं पार्यत' इत्याशङ्कायामाह- निर्विकल्पकवदिति । निर्विकल्पकप्रत्यक्षस्याऽस्मदादिवृत्तित्वेऽपि अस्मदादीनां तत्प्रत्यक्षं यथा न भवति तथैवाऽस्मद्वृत्तिनिर्दकप्रत्यक्षस्याऽपि प्रत्यक्षं न भवति । प्रकृते दृष्टान्तदाान्तिक। योरनुव्यवसायाऽयोग्यत्वान्दो साधर्म्यं बोध्यम् । ___कश्चिच्छङ्कते- द्वित्वजनकतावच्छेदिका = द्वित्वसंख्यानिष्ठजन्यतानिरूपिताया जनकताया अबच्छेदिका, लौकिकविपयित्ता | तत्र = नित्यैकप्रत्यक्षे बाढमस्त्येवेति । उदयनादिमते द्वयणुकपरिमाणनिकायाः सङ्ख्याया एकत्वाऽन्यसङ्ख्यालेनाऽपेक्षाबुद्धिजन्यत्वात् तादृशबुद्धौ द्वित्वजनकतावच्छेदकीभूतलौकिकविषयिताया अवश्यमङ्गीकार्यत्वात्तदभावेन नितारपत्यक्षत्वोपपादनं न घटामञ्चतीति शङ्काशयः । तत्समाधान केषां विदुषां मतेनानिष्करोति - किं तावता ? इति । ज्ञानप्रत्यक्षतायां | न द्वित्वजनकतावच्छेदकीभूताया लौकिकविषयिताया नियामकत्वं, इन्द्रियसनिकर्पादिजन्यतावच्छेदिकायाः = इन्द्रियसन्निकर्षविषयादिनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यत्वस्याऽवच्छेदकीभूतायाः एव तस्या = लौकिकवियितायाः प्रत्यक्षतायां = अनुव्यवसायनिष्ठविषयितानिरूपितविषयतायां ज्ञाननिष्ठायां तन्त्रत्वात् = नियामकत्वात् । नित्यैकप्रत्यक्षे व्यणुकपरिमाणजनकद्वित्वसङ्ख्यानिरूपितजनकत्वस्यावच्छेदकीभूताया लौकिकविषयितायाः सत्त्वेऽपि विषयेन्द्रियसन्त्रिकर्षादिजन्यतावच्छेदिका लौकिकविषयिता नास्ति, तस्य नित्यत्वेनेन्द्रियसन्निकर्षाद्यजन्यत्वात् । तदभावादेव न तस्य जीवात्मवृत्तित्वेऽपि जीवात्मनामस्मदादीनां प्रत्यक्षमित्येकेषामाकूतम् । है। इससे ही यह फलित होता है कि नित्य प्रत्यक्ष प्रत्येक जीवात्मा में समवेत नहीं है, अपितु परमात्मा में समवेत है" <- मगर यह वचनप्रहार भी निराधार है, इसका कारण यह है कि उसी ज्ञान का हमें साक्षात्कार होता है, जिस ज्ञान में लौकिक विपयिता होती है। 'अयं घटः' इत्याकारक बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञान में लौकिक विपयिता होने से उसका 'अहं यहं जानामि' इत्यादि रूप से साक्षात्कार = अनुव्यवसाय हो सकता है । मगर नित्य प्रत्यक्ष में लौकिक चिपयिता नहीं है । अतः उसका 'अहं सर्व जानामि' इत्यायाकारक मानस प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। जैसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का मानस प्रत्यक्ष = अनुव्यवसाय नहीं होता है, ठीक वैसे ही नित्य प्रत्यक्ष के अननुव्यवसाय = मानसाऽप्रत्यक्ष की उपपत्ति हो सकती है। इन्द्रिय सन्निकर्षजन्यतावच्छेदक लौतिकविषयिता प्रत्यक्ष नियामक - अन्यमत द्वित्व, इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह कथन है कि → "नित्य प्रत्यक्ष में भी लौकिकविषयिता का स्वीकार करना आवश्यक है। इसका कारण यह है कि दो परमाणु के नित्य प्रत्यक्ष से परमाणुद्वय में द्वित्व संख्या उत्पन्न होती है। द्वित्वजनकतावच्छेदक तो लौकिकविषयित्ता ही होती है । अतः परमाणुद्वय में द्वित्व संत्र्या के जनक नित्य साक्षात्कार में लौकिकविषयिता का स्वीकार करना आवश्यक है। यह ठीक उसी तरह उपपन हो सकता है, जैसे द्वित्वसंख्याजनक घटपटविषयक अपेक्षाबुद्धिस्वरूप ज्ञान में द्वित्वकारणतावच्छेदकीभूत लौकिक विषयिता का जैसे नैयायिक विद्वानों ने स्वीकार किया है, ठीक वैसे ही परमाणुद्वयविषयक नित्य प्रत्यक्ष में भी द्वित्वसंख्याजनकतावच्छेदकीभूत लौकिक विषयिता का स्वीकार किया जा सकता है, अन्यथा परमाणुद्वय में द्वित्व की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। इस तरह नित्य प्रत्यक्ष में भी लौकिकविषयिता सिद्ध होती है, तब 'उसमें लौकिक विपयिता के नहीं होने से उसका मानस साक्षात्कार नहीं होता है' यह नहीं कहा जा सकता। अतः प्रत्येक जीवात्मा में नित्य प्रत्यक्ष को समवेत मानने पर उसका मानस साक्षात्कार होना अनिरार्य है।"- मगर इसके समाधान में अमुक नैयायिक यह कहते हैं कि ->"नित्य प्रत्यक्ष में लौकिक विषयिता, जो द्वित्वादिसंख्याजनकतावच्छेदक
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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