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________________ ३६४ * सम्बन्धद्वितयेन चाक्षुपाभावस्याऽन्धकारत्वविचारः * ततुच्छम, एवं सति 'अन्धकारखानहमिति प्रतीत्यापत्तेः । न च सम्बन्धविशेषेणालोक-! ज्ञानाभाववत्येव तम:प्रतीतिनियमालाऽयं दोषः, तथा सति 'आलोकज्ञानाभाववानहमिति ======ॐ जयलता *= == प्रकरणकार: प्राभाकरमतमपाकरोति - तनुच्छमिति । एवं सति = तमस आलोकदर्शनाभावात्मकत्वे सति, 'अन्धकारनहमिति प्रतीत्यापत्तेः ज्ञानत्वावच्छिन्नस्याऽऽत्मवृत्नित्वेनालोकज्ञानाभावलक्षणान्धकारस्याऽऽत्मवृनित्वस्य न्याय्यत्वात् ।। 'अन्धकारवभूतलमि' त्यादिप्रतीतेरप्रामाण्यं प्रसज्येते' त्यप्युपलक्षणादत्र दोषत्वेन लभ्यते । नन्दस्माभिर्न समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकालोकदर्शनाभावस्य तमस्त्वमङ्गीक्रियते येन तद्गत्यात्मनि तमःप्रतीतिः । प्रसज्येत किन्तु स्वनिरूपितालोकनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यता-स्वनिरूपितालोकनिष्ठविशेष्यतानिरूपिताऽऽधेयत्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारताऽन्यतरसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकचाक्षुषाभावस्यैव तमस्त्वमभ्युपगम्यते । प्रथमसम्बन्धेन 'आलोकवान् देशः' इति प्रतीति: द्वितीयसम्बन्धेन च ‘देशे आलोक' इति दर्शनं देशे वर्त्तते । यत्र तु तदन्यतरसम्बन्धेन तादृशाचाक्षुषप्रतीतिर्नेव वर्तते तत्रैब तमः प्रतीतिर्भवतीति नियमः । आत्मनि तु समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक आलोकदर्शनाभावो न तूपदर्शितसम्बन्धावच्छिन्न इति 'अन्धकारवानहमि'ति प्रतीतेनावकाश इति प्राभाकराशयं दृषयति . न चेति । तदयुक्तत्वमेव द्योतयति - तथा सतीति । 'दर्शितान्यतरसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकालोकदर्शनाभाववत्येवा न्धकारप्रतीतिव्यवहारी भवत' इति नियमाऽङ्गीकारे सति, 'आलोकज्ञानाभाववानहमिति प्रतीतेः इति । अपिशब्दस्त्वत्र गहाया बोध्य: । चिलयापत्तेः = कदाप्य. *प्रमानकंदन * तत्तुच्छं. इति । प्रकरणकार का कहना है कि प्रभाकरमिथ के अनुयायियों का मत विचार करने पर अयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि अन्धकार को आलोकज्ञानाभावात्मक मानने पर 'अन्धकारवानह' = 'मैं अन्यकारवाला हूँ' इस प्रतीति की आपति मुँह फाड़े खड़ी रहती है । आलोकज्ञान का आश्रय आत्मा होने से आत्मा में ही आलोकज्ञानाभावात्मक अन्धकार की प्रतीति होनी चाहिए, न कि भूतलादि बहिर्देश में । मगर अन्धकार की प्रतीति आत्मा में नहीं होती है किन्तु बाह्य देश में होती है । इसलिए अन्धकार को आलोकदर्शनाऽभावस्वरूप नहीं माना जा सकता । यहाँ प्रभाकरानुयायी की ओर से यह कहा जाय कि -> “आलोकज्ञान आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहने की वजह वहाँ रहने वाला आलोकज्ञानाभाव भी समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक ही होगा, न कि अन्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक । मगर हम जिस आलोकज्ञानाभाव को अन्धकारात्मक मानते हैं, वह समवायसम्बन्धावञ्चिन्नप्रतियोगिताक नहीं है, किन्तु अन्य सम्बन्ध से अवच्छिन्न प्रतियोगिता का निरूपक है, जो कि बहिर्देश में ही रहता है, न कि आत्मा में । वह सम्बन्ध है स्वनिरूपितालोकनिष्ठप्रकारतानिरूपित विशेप्यता एवं स्वनिरूपित आलोकनिष्ठविशेप्यतानिरूपित आधेयत्वसम्बन्धावच्छिन्न प्रकारता । इन दोनों सम्पन्ध से ज्ञान का न होना ही अन्धकार है, अर्थात् उक्त विशेष्यता-उक्त प्रकारता-एतदन्यतरसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक चाक्षुपाभाव = अन्धकार | जिस देश में 'आलोकवान अयं देशः' इस प्रकार आलोक का चाक्षुप प्रत्यक्ष होगा, उस देश में उक्त विशेप्यतासम्बन्ध से यह चाक्षुप रहेगा, क्योंकि उक्त चाक्षुप में आलोक प्रकार और देश विशेप्य है । अतः उक्त विशेप्यतासम्बन्ध में 'स्व' शब्द | से उक्त चाक्षुप को लेने पर वह स्वनिरूपितआलोकनिष्टप्रकारतानिरूपित विशेप्यता सम्बन्ध से देश में रहेगा और जब देश में 'अत्र देशे आलोकः' इस प्रकार आलोकचाक्षुप होगा तब वह उक्त प्रकारतासम्बन्ध से देश में रहेगा, क्योंकि इस चाक्षुष में आलोक विशेप्य है और देश उसमें आधेयतासम्बन्ध से प्रकार है । अतः उक्त प्रकारतासम्बन्ध में 'स्व' पद से इस चाक्षुष को लेने पर वह देश में उक्त प्रकारतासम्बन्ध से रहेगा । जिस देश में जब उक्त चाक्षुष में से कोई भी आलोकचाक्षुष नहीं रहेगा, वैसी ही स्थिति में वहाँ ही अन्धकारप्रतीति एवं अन्धकारव्यवहार होगा । इसलिए आत्मा में अन्धकार की प्रतीति का प्रसंग नहीं होगा" - . "आलोकज्ञानाभातवान् अह'.- प्रतीति की प्रभाकरमत अनुपपत्ति तथा स, इति । तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शित प्रकारतादि सम्बन्ध से आलोकज्ञानाऽभाव के अधिकरण 'में ही अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार को अंगीकार करने पर 'आलोकज्ञानाऽभाववान् अहं' इस प्रतीति का विलय होने की आपत्ति होगी, क्योंकि तादृश प्रकारतादिसम्बन्ध से आलोकज्ञानाभाव बहिर्देश में रहता है, न कि आत्मा में । तथा अन्धकार और आलोकज्ञानाभाव दोनों एक = अभिन्न ही है। इसलिए अन्धकारात्मक आलोकदर्शनाभाव की प्रतीति आत्मा में कैसे हो सकती है ? ऐसा कहने से ही यह कथन कि → “विषयतासम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताक आलोकदर्शनाभाव ही अन्धकार
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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