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________________ ३३९ मध्यमस्याद्वाद रहस्ये खण्ड २ - का. ५ कत्वेनोपपत्तेश्च । * उलूकादिचाक्षुषेन व्यभिचारदूषणम् * पेचकादिचाक्षुषे व्यभिचारश्च सर्वत्र साधारणं दूषणम् । न च नरचाक्षुषं प्रत्येव कारणता, * जयलता है यितावच्चाक्षुषसाक्षात्कारे, तमः संयोगस्य प्रतिबन्धकत्वेन एवं उपपत्तेश्चेति । न च ' तमः संयोगाभावत्वेन न हेतुताऽपि तु आलोकसंयोगत्वेन, लाघवादिति वाच्यम्, महदुद्भूतानभिभूतरूपवदालोकसंयोगत्वापेक्षया महत्तमः संयोगाभावत्वस्य लघुत्वात्, परमते महत्वोद्भूतत्वादिविशेषणविशेष्यभावे विनिगमकाभावाच्च । इत्थञ्च नैयायिकमते आलोकद्रव्यत्वसिद्धिः दुर्घटा । मम तु प्रतिबन्धकीभूतसंयोगाश्रयत्वेन तमोद्रव्यत्वसिद्धिः । इत्थञ्च 'अस्तु तमस एवं द्रव्यत्वं आलोकव्यवहारस्य तु तमोऽभावेनैवोपपत्तेः' इति स्याद्वादिना पर्यनुयुङ्क्ते सति नैयायिकेन न किमपि विनिगमकमुपदर्शयितुं पार्यत इति प्रकरणकुदाशयः । किचालोकं बिना पेचकादिचाक्षुषोदयाद् विषयनिष्ठप्रत्यासत्या एव चैत्रादिचाक्षुषे तद्धेतुत्वोपगमो न्याय्यो न त्वात्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या इत्याशयेन प्रकरण दाह पेचकादिचाक्षुष इति । उलूकादिचाक्षुषसाक्षात्कार इति । तदुक्तं मूलकाररेव अभिधानचिन्तामणी 'घूके निशाद: काकारि: कौशिकोलूकपेचका:' (अभि.चि.लो. १३२४ ) इति । व्यभिचारः = व्यतिरेकव्यभिचार: सर्वत्र = आत्मनिष्ठप्रत्यासत्त्या आलोकसंयोगस्य चक्षुः संयोगस्य तमः संयोगाभावस्य वा तद्धेतुत्वोपगमे साधारणं दूषणम् । स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवच्चक्षुः संयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनालोकसंयोगस्य तमः सयोगाभावस्य च तथा स्वावच्छेदकावच्छिन्नालीकसंभोगावच्छेदकावच्छिन्नस्ववच्चक्षुः संयुक्तमनःप्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन चक्षुः संयोगस्य पेचादावसत्त्वेऽपि तत्र समवायेन घटादिचाक्षुषोदयाद् व्यतिरेकव्यभिचारः । दर्शितव्यतिरेकव्यभिचारश्चाऽऽत्मनिष्ठप्रत्यासत्या आलोकसंयोगस्य तमः सयोगाभावस्य तद्धेतुत्वेऽन्वयव्यभिचारस्योपलक्षणम्, आलोकस्थपुरुषस्याऽन्धकारस्थद्रव्यचाक्षुषानुदयादिति । नन्वस्त्वालोकसंयोगादेः नरचाक्षुषत्ववाच्छिन्नं प्रत्येव हेतुतेति न पेचकादिचाक्षुषे व्यतिरेकव्यभिचारः, तस्य तत्कार्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वादिति पराभिप्रायं दूषयितुमुपक्रमते न चेति । नरचाक्षुषं नरसमवेतचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रत्येव आलोक - प्रतियोगिक विजातीय संयोग सम्बन्ध से चाक्षुष साक्षात्कार का कारण माना जाता है, ठीक उसी तरह अन्यकारसंयोग को उसी सम्बन्ध से चाक्षुष का प्रतिबन्धक भी मानना आवश्यक है, क्योंकि अन्धकारसंयुक्त द्रव्य के जिस भाग में अन्धकारसंयोग हो उसी भाग में चक्षुसंयोग होने पर उस द्रव्य का चाक्षुप नहीं होता है। आत्मा में तब समवाय सम्बन्ध से चाक्षुप नहीं होता है। इसलिए अन्धकारसंयोग भी स्व ( = अन्धकारसंयोग) अवच्छेदकावच्छिन्नचक्षुसंयोगाश्रयीभूतचक्षुसंयुक्तमनप्रतियोगिक विजातीय संयोग सम्बन्ध से आत्मा में रहेगा । इस तरह चानुष साक्षात्कार के प्रति आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से अन्धकारसंयोग को प्रतिबन्धक एवं उसके अभाव को कारण मानना आवश्यक है । अब तो आलोकसंयोग को चाक्षुष का कारण मानने की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अन्यकारसंयोगाभावस्वरूप प्रतिबन्धकाभाव से ही चाक्षुपोदय हो सकता है। द्रव्य के साथ चक्षु का संयोग जिस भाग में हो उस भाग में अन्धकाराभाव रहने पर ही आत्मा में दर्शित सम्बन्ध से प्रतिबन्धकाभाव रहता है और तभी आत्मा में समाय सम्बन्ध से चाक्षुप का उदय भी होता ही है। इस तरह अन्धकारसंयोगाभाव को ही चाप का कारण माना जा सकता है जिसके फलस्वरूप में प्रतिबन्धकीभूत संयोग का आश्रय होने की वजह अन्धकार में द्रव्यत्व की सिद्धि निराबाध होगी । प्रत्युत आलोकसंयोग में चाक्षुपकारणता असिद्ध रहने से आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि नैयायिक के लिए दुर्घट बनती है । आलोकसंयोगकारणतापक्ष में व्यभिचार पेचका इति । दूसरी बात यह है कि आत्मनिष्ठप्रत्यासत्ति से चाहे आलोक को या आलोकसंयोग को या चक्षुसंयोग को या अन्धकारसंयोगाभाव को चाक्षुषसाक्षात्कार का कारण माना जाय, मगर उल्लू आदि के चाक्षुप प्रत्यक्ष में व्यतिरेक व्यभिचार तो आवश्य रहेगा ही, क्योंकि आलोकादि के विरह में भी गाद अन्धकार में घटादि का साक्षात्कार उन्हें होता है । कारणाभाव में भी कार्योत्पाद होने से प्राप्त व्यभिचार दोष आलोक, आलोकसंयोगादि में कारणता का निश्चय नहीं होने देगा, क्योंकि व्यभिचार दोष कार्य कारणभाव का विघटक है। इस व्यभिचार दोप का निवारण करने के लिए नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'आलोकसंयोगादि का कार्यतावच्छेदक धर्म चानुपत्य नहीं है किन्तु मनुष्यचाक्षुपत्व है। अर्थात् आलोकसंयोग आदि का कार्य सघ चाक्षुष साक्षात्कार नहीं है किन्तु मनुष्यवृत्ति चाक्षुप ही है । उल्ल, बिल्ली आदि का चाक्षुष मनुष्यवृत्ति नहीं है । इसलिए उसकी उत्पत्ति आलोकसंयोग आदि के बिना हो तो भी व्यभिचार दोष नहीं होगा । जो कार्य अपना
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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