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________________ * अष्टभङ्गीप्रसङ्गापाकरणम् वक्तव्यत्वेन परिणतिस्तु नित्यत्वादिविशेष एव विश्राम्यतीति न तदतिरेकावकाशः । वक्तव्यत्वेन बोधस्तु नित्यत्वविध्यादिकल्पनातों नित्यत्वादिनैव बोधानोदेति । २२६ ॐ जयलता *-- = 'विशेष्यताऽक्रान्ते घंटे के उपकारः ? नित्यत्वाऽनित्यत्त्वयोः युगपदुभयविवक्षायामवक्तव्यशब्दप्रतिपाद्यत्वेऽपि तत्र तयोः कः उपकारः ? इति प्रश्नार्थः । प्रकरणकृत प्रत्युत्तरयति अवक्तव्यत्वेन रूपेण परिणतिरित्येव त्वं गृहाण जानीहि । युगपदभयविवक्षायां सत्यां नित्यत्वाऽनित्यत्वधर्मौ स्वयमवक्तव्यत्वीभवन्ती घटमवक्तव्यत्वेन परिणामयति । अयमेव तदुपकारः । अत एवाऽवक्तव्यत्वमपि स्वतन्त्रपरिणामो न नित्यत्वादिग्रहणेन गृह्यत इति भावः ! - = नन्येवं सति वक्तव्यत्वमप्यवक्तव्यत्ववदतिरिच्येत घटस्य वक्तव्यत्वेनापि परिणामात् । ततो घटेऽष्टमधर्मप्रसङ्गो दुर्निवार इत्याशङ्कायामाह वक्तव्यत्वेन परिणतिः घटपरिणतिः । तुर्विशेषद्योतनार्थः । तदेवोपदर्शयति नित्यत्वादिविशेषे एव विश्राम्यतीति । एवकारफलमाह- इति हेतोः न तदतिरेकावकाशः = तस्य वक्तव्यत्वस्य नित्यत्वादिविशेषेभ्यो व्यतिरिक्तत्वसंभवः । अयं भावः वक्तव्यत्वेन रूपेण घटपरिणतिः स्यान्नित्यत्वादिविशेष परिणतिस्वरूपवेति नित्यत्वविधिनिषेधादिकल्पनायां 'नाष्टमधर्मावकाशो, नित्यत्वादिग्रहणेनैव तद्ग्रहात्, नित्यत्वादिधर्मविशेषः वक्तव्यत्वेन यस्य परिणामितत्वादेव 'घटः स्यान्नित्यः स्पादनित्य' इत्यादिकधनसंभवात् । अत एव स्यानित्यत्वादिधर्माणामपि स्याद्वक्तव्यत्वाभेदोऽपि सिद्धूयति । ननु वक्तव्यत्वपरिणामस्य स्यान्नित्यत्वादिधर्मविशेषभ्योऽनतिरिक्तत्वे यथा पटः द्रव्यत्वेन नित्य' इति बोधो जायते तथैव 'घटो द्रव्यत्वेन वक्तव्य' इत्यपि प्रतीयेतेत्याशङ्का निराकर्तुमाह- वक्तव्यत्वेन बोधस्त्विति । अन्वयश्चाऽस्य 'नोदेती' त्यत्र । अन 1 हेतुमाह नित्यत्वविध्यादिकल्पनातः = क्रमिकाऽक्रभिकनित्यत्वविधिनिषेधो भयविवक्षातः नित्यत्वादिनैव स्पान्नित्यत्वादिप्रकारेणैव, बोधात् = घटविशेष्यकबोधोदयात् । अयं भावः यादृशी अर्पणा तादृशी प्रतीतिः वस्तुन्युपजायते । अतो नित्यत्वयहाँ क्या उपकार हो सकता है ? क्योंकि नित्यत्व धर्म को प्रधान बना कर यहाँ प्ररूपणा की जा रही है । अतः नित्यत्व धर्म का उपकार होना जरूरी है" <- । इसका समाधान यह है कि नित्यत्व धर्म का अवक्तव्यरूप से घटपरिणाम होना ही नित्यत्व धर्म का उपकार है । युगपत् उभय अर्पणा होने पर नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म घट को अवक्तव्यतया परिणत करते हैं और स्वयं अवक्तव्यत्यात्मक बनते हैं । इससे यह फलित होता है कि अवक्तव्यत्व धर्म भी स्वतंत्ररूप से घट में रहता है, जो नित्यत्वादि के ग्रहण से गृहीत नहीं होता है । अतः घट में अवक्तव्यत्व धर्म को भी मानना जरूरी हो जाता है। ॐ अवक्तव्यत्व की भाँति वक्तव्यत्व स्वतंत्र आँठवा धर्म नहीं - स्यादादी वक्त इति । यहाँ यह शंका करना कि "जैसे घट में अवक्तव्यत्व धर्म स्वतंत्र है, ठीक वैसे ही वक्तव्यत्व भी एक स्वतंत्र धर्म होगा, जिसके फलस्वरूप में घट में सात धर्म नहीं किन्तु आठ धर्म का अंगीकार मान्य करना होगा " <- नामुनासिव है । इसका कारण यह है कि वक्तव्यत्वरूप से घटपरिणति नित्यत्वादिविशेष धर्म में ही विश्रान्त हो जाती हैं। मतलब कि नित्यत्वादि धर्म घट को वक्तव्यरूप से परिणत करते हैं, मगर वह वक्तव्यत्व धर्म 'स्यात् नित्यत्व, कथंचित् अनित्यत्व' आदि धर्म में ही पर्यवसित होता है । इसलिए तो 'घटः स्यान्नित्यः स्यात् अनित्यः' इत्याकारक प्रतीति एवं व्यपदेश मुमकिन है । अतः स्यात् नित्यत्व आदि धर्म से अतिरिक्तरूप से वक्तव्यत्वं धर्म का अवकाश नहीं है । कथंचित् नित्यत्व, कथंचित् अनित्यत्व आदि धर्म वक्तव्यत्वस्वरूप ही है । इसलिए 'कथंचित् नित्यत्व' आदि रूप से वक्तव्यत्व धर्म का भी कथन हो जाता है । अतः स्यानित्यत्वादि धर्म से अतिरिक्त वक्तव्यत्व धर्म की सिद्धि नहीं हो सकती है, जिसके | परिणाम में अष्टम धर्म की एवं अष्टभंगी की आपत्ति हो सके । यहाँ यह शंका करना कि "घट में कथंचित् नित्यत्व आदि धर्म है वही वक्तव्यत्व धर्म है ऐसा मानने पर आपत्ति यह आयेगी कि घट का जैसे कथंचित् नित्यत्वरूप से ज्ञान | होता है, ठीक वैसे ही वक्तव्यत्वरूप से भी मान होना चाहिए, क्योंकि वक्तव्यत्व स्यानित्यत्वादिस्वरूप ही है" <- तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि नित्यत्वविधान की विवक्षा होने पर स्यानित्यत्वप्रकारक बोध का ही उदय होता हैं, नित्यत्वनिषेध की जिज्ञासा होने पर स्यादनित्यत्वप्रकारक ज्ञान का ही जन्म होता है । जिज्ञासा के अनुसार ही बोधोदय होता है । अतएव वक्तव्यत्वेन यदज्ञान का तादृश अर्पणा के सहकार से जन्म नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि 'स्यानित्यः ' पद से घट का कथन होने से ही घट में वक्तव्यत्वप्रकारक जिज्ञासा का उदय नहीं होता है । विशेष धर्म का ज्ञान होने पर सामान्य धर्म की शंका नहीं होती है । 'यह ब्राह्मण है' ऐसा ज्ञान होने पर 'यह मनुष्य है या नहीं ? ऐसी शंका किसीको भी होती नहीं है | अतः वक्तव्यत्वप्रकारक ज्ञान उदय न होना ठीक ही है ।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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