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________________ * पुन उत्कटनीलस्योत्कटस्पर्शव्याप्त्यापादनम् * अथ द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदके कत्वनिष्ठजातिव्याप्यैव द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकजातिरभ्युपेयताम्, ३१२ * जयलता है स्पार्शनकारणतावच्छेदकीभूतप्रकृष्टत्वजातिशून्यत्वान्न नीलत्रसरेणुस्पर्शस्पार्शनप्रसङ्ग इत्यारेकणीयम्, नीलत्रसरेणुसमवेतैकत्वे घटादिसमवेतैकत्ववैजात्यकल्पने मानाभावात् । द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पाइनिकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वविशिष्टकत्वस्य घटना. सम्भवे बाधकाभावात् नीलत्रसरे गोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्शनस्य वज्रलेपायमानत्वात् । न चैवमस्ति एतेन नीलत्रसरेणोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वे तत्स्पर्शस्पार्यांना भाव एवं बाधक इति प्रदर्शितम् । अत एवोद्भूतनील-रूपस्योद्धृतस्पन्य यत्यमपि निराकृतम् । अतो न तमस उद्भूतनीलरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाभावस्य बाधकत्वम् । अत एव तमसो द्रव्यत्वं रूपवन्याद्धेतारव्याहतमिति स्याद्वादिनोऽभिप्रायः । एकान्तबादी पुनः प्रत्यवतिष्ठत अथेति । चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकै कत्वनिष्ठजातिव्याप्यैव = नैयायिकैकदेशिमतसिद्धा या द्रव्यविषयकचाक्षुषनिष्ठ जन्यतानिरूपिताया जनकताया अवच्छंदकीभूता एकत्वसंख्या निष्ठा | जातिः तदभावाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वशून्या एव, एवकारेण व्यापकव्यवच्छेदः कृतः । इव्याऽन्य- द्रव्यसमवेत स्पार्शनजनक - तावच्छेदकजातिः प्रकृष्टत्वविशेषलक्षणा अभ्युपेयतामिति । अयं पराशयः द्रव्यचाक्षुषं कार्यं तन्निष्ठकार्यतानिरूपितकारणताया अवच्छेदकीभूता जाति: एकत्वे वर्तते । षकाराचलत्रसंरंगी वर्तमानत्वात् विषयतासम्बन्धेन नीलनसरेणुचाक्षुषमपि तत्र जायत एव । परं स्याद्रादिना यदुक्तं द्रव्यान्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनजनकतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या एकत्ववृत्तित्वसम्भवे बाधकाभावात् नीलवसरेणुस्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गो दुर्निवार इति तन सम्यक्, नीलत्रसरेणु - ..... मत के अनुसार दन्यचाक्षुषकारणता अवच्छेदकजाति को एकत्वगत एवं द्रन्याऽन्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणता अवच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति को महत्त्वगत मानी जाती है, वैसे सांकर्य दोष का निराकरण करने के लिए द्रव्यगोचरचाक्षुषकारणता अवच्छेदक जाति को महत्त्वगत एवं द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेत स्पार्शनकारणता अवच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति को एकत्वसंख्यागत मानी जा सकती है, क्योंकि इन दोनों पक्ष में न तो कोई प्रमाण साधक है और न तो बाधक । अर्थात् घटद्रव्यविषयक चाक्षुष की कारणतावच्छेदक जाति घटगत महत्त्व में रहती है एवं घटसमवेतस्पर्शविषयक स्पार्शन की कारणतावच्छेदक प्रकर्ष जाति घटगत एकत्व में रहती है ऐसा मानने से सांकर्य दोष निराकृत हो जाता है । अतः द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक प्रकर्ष जाति को एकगत मानने में सांकर्य दोष की संभावना नहीं रहती है । जैसी एकत्वसंख्या घट में रहती है, तादृश ही एकत्वसंख्या पादित नील पट के त्रसरेणु में भी रहती है; न कि विजातीय। अतः जैसे घटगत एकत्वसंख्या द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेतविषयक : स्पार्शनकारणतावच्छेदक प्रकर्ष जाति का आश्रय है, ठीक वैसे ही नील त्रसरेणु में समवेत एकत्व संख्या भी तादृश प्रकर्ष का आश्रय बनेगी । अतएव घट के स्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की भाँति नीलत्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन की आपत्ति वज्रलेपायमान बनी रही है । मतलब की नीलत्रसरेणु में उद्भूत नील रूप का व्यापक उद्भूत स्पर्श एवं अद्रव्यस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकर्ष जाति दोनों रहने से नीलत्रसरेणुस्पर्श का स्पार्शन अवश्य होना चाहिए । मगर तादृश स्पार्शन नहीं होता है । इसलिए विषयविधया कारणीभूत उद्धृत स्पर्श का नील त्रसरेणु में अभाव मानना ही उचित है । ऐसा होने पर तो उत्कट नील रूप उत्कट | स्पर्श का व्यभिचारी हो जायेगा, क्योंकि उत्कट स्पर्श से शून्य त्रसरेणु में भी उत्कट नील रूप रहता है । उद्भूत नील रूप में उत्कट स्पर्श की व्याप्ति न होने की वजह अन्धकार में उद्भूत नील रूप के स्वीकार में उत्कटस्पर्शाभाव बाधक नहीं हो सकता है, क्योंकि उत्कट स्पर्श तो उत्कट नील रूप का व्यापक ही नहीं है । अव्यापक के अभाव से व्याप्याऽभाव की सिद्धि नहीं की जा सकती । अतएव 'नीलं तमः ' यह प्रतीति भी प्रमितिस्वरूप सिद्ध होती है । इसलिए रूपवत्त्व हेतु के द्वारा अन्धकार में द्रव्यत्वसिद्धि निर्वाध है । निष्कर्ष :- अन्धकार द्रव्यात्मक है । ॐ वायुचाक्षुषापति का निराकरण नैयायिक की ओर से एकान्तवादी :- अथ इति । जनाब ! हम यह मान लेते हैं कि द्रव्याऽन्य- द्रव्यसमवेत स्पार्शनकारणतावच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति एकत्वसंख्या में रहती है । इससे आपके वचन का हम स्वायत करते हैं । मगर साथ ही हम यह भी मानते हैं कि अन्यान्य- द्रव्यसमवेतविपयकस्पार्शनजनकतावच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति द्रन्यचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति की, जो एकत्वसंख्या में रहती है, व्याप्य है और द्रव्यचाक्षुपजनकतावच्छेदक जाति उसकी व्यापक है । इसलिए त्रसरेणुस्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि त्रसरेणुवृत्ति एकत्व संख्या में द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदक जाति होने पर भी द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेत
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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