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________________ ३११ मध्यमस्वावादरहस्ये खण्डः २ - का.. *विनिगमनाविरहेण सकरापाकरणम् * । शापि सा जातिमहत्वे कलप्यताम्, इयं त्वेकत्वे इत्यौव विनिगमकमन्वेषणीयम् । = --- --- --- = * जयलता. * === कार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदका भूतप्रकृष्टत्वजात्याश्च महत्त्वांनष्ठत्वेन ब्यधिकरणत्वात् । इत्यञ्च नीलत्रसरेणोरुद्भूतस्पर्शवत्त्वेऽपि तादृशप्रकृष्टत्वविशिष्टमहत्त्वविरहान्न तत्स्पर्शस्पार्शनप्रसङ्गः । अत एवोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शज्याप्यत्वमव्याहतम् । ततश्च सुषूक्तं 'तमस उद्भूतरूपवत्त्वे उद्भूतस्पर्शाऽभाव एव बाधक' इति (दृश्यतां ३०४ तमे पुटे) स्थितम् । अत्र स्याद्वादी प्राह- तथापीति । द्रन्येतर-द्रव्यसमवेतगोचररपार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या एकत्ववृत्तित्वोपगमे नैयायिकैकदेशिमतानुसारेणेकत्ववृत्त्या द्रव्यचाक्षषकारणतावच्छेदकीभतजात्या समं तत्साङ्कर्यस्य बाधकत्वे | गोचरचाक्षुषनिरूपितकारणताया अवच्छेदकीभूता, जातिः महत्त्वे = महत्त्ववृत्तिः कल्यतां = स्वीक्रियता, इयं = द्रव्येतरद्रव्य-समवेतगुभादिगोचरस्पार्शनकारणतावच्छेदकीभूता प्रकृष्टत्वजातिः, तुः विशेषार्थे । तदेवाऽऽह. एकत्वे = एकत्ववृत्तिः इत्यत्रैव विनिगमकं = नियामकं अन्वेषणीयं = मार्गणीयम् । यथा नैयायिकैकदेशीयमतानुसारेणकत्वसंख्यावृत्त्या द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकजात्या समं साकर्षस्य निराकरणकृते नैयायिकसिद्धान्तिना द्रव्यान्यद्रव्यसमवेतगुणादिस्पार्शनकारणताचच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या महत्त्ववृत्तित्वमुपकल्प्यते तथैव स्याद्वादिनाऽपि द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पानिकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजात्या एकत्ववृत्तित्वाऽङ्गीकारे सायपरिहारकृते द्रव्यगोचरचाक्षुषसाक्षात्कारनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताया अवच्छेदकीभूतायाःजात्या महत्त्ववृत्तित्वं कल्पयितुं ना शक्यम् । एतेन द्रव्यचाक्षुषकारणतावच्छेदकजातिरेकत्वे एव न तु महत्त्वे, द्रव्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातिश्च महत्त्वे व न त्वेकत्वे इति प्रत्युक्तम्, द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकजातिः महत्त्वे एब न त्वेकत्वे, द्रल्यान्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदकप्रकर्षजातिश्चैकत्ववृत्तिरेव न तु महत्त्ववृत्तिरित्यस्याऽपि विनिगमकाभावेन सुवचत्वात् । न चैवमपि सङ्करोऽपरिहार्य इति वक्तव्यम्, तयोः व्यधिकरणत्वात् । अत एव नीलत्रसरेणारुद्भुतस्पर्शवत्त्वेऽपि द्रव्याइन्य-द्रव्यसमवेतस्पानिकारणतावच्छेदकप्रकृष्टत्वजातिविशिष्टमहत्त्वशून्यत्वान्न तत्पशेविषयकस्पानिप्रसङ्ग इत्यपि प्रत्युक्तम्, नीलबसरेणुसमवेतैकत्वस्य द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारगनाश्रयत्वसम्भवात् । न च तस्य तत्कारणत्वेऽपि द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेत तावच्छेदक जाति एवं अन्यचाक्षुषजनकताअवच्छेदक जाति व्यधिकरण है, भिन्न भिन्न एकत्वसंख्या में रहती है । परस्पर असमानाधिकरण ये दो जाति घटगत एकत्वसंख्या में रहती है, क्योंकि घट का चाक्षुष प्रत्यक्ष भी होता है एवं घट के स्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष भी होता है। यही सांकर्य है, क्योंकि असमानाधिकरण जाति का एक धमी (= घटगत एकत्व संख्या) में समावेश होता है । इस सांकर्य दोप का निराकरण तब ही हो सकता है, यदि द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतविषयक स्यार्शनजनकतावदक प्रकृष्टत्व जाति को महत्त्वगत मानी जाय, न कि एकत्वगत । ऐसा होने पर सांकर्य दोष की संभावना नहीं है। इसका कारण यह है कि (नैयायिक एकदेशीव मतानुसार) द्रव्यविषयकचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति द्रव्यगत एकत्वसंख्या में रहती है और द्रव्याऽन्य-द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक जानि द्रव्यगत महत्त्व में रहती है। मतलब कि घटचाक्षुषजनकतावनोदक जाति घटगत एकत्व संख्या में रहती है और घटसमवेतस्पर्शविषयकस्पार्शनकारणतावच्छेदक जाति घटगत महत्त्व में रहती है। दोनों व्यधिकरण ही हैं, समानाधिकरण (= एकाधिकरणत्ति) नहीं है। इस तरह द्रव्याऽन्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणतावच्छेदक जाति को महत्त्ववृत्ति मानने में सांकर्य दोष अप्रसक्त है, जब कि एकत्ववृत्ति मानने में सांकर्य दोष प्रसक्त है । अतः तादृश प्रकृष्टत्व जाति की एकत्वगत मान्यता का सांकर्य ही विनिगमक (= बाधक) है, एवं महत्त्वगत मान्यता में सांकर्याऽभाव ही पिनिगमक (= साधक) है । उद्भूतस्पर्शाश्रय नीलवसरेणु में तादृश प्रकर्प (= प्रकृष्टत्व) जाति नहीं होने से नीलासरेणुस्पर्शविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का आपादन नहीं किया जा सकता । अतः उद्भुतनीलरूपाश्रय त्रसरेणु में भी उद्भत नीलरूप उद्भुत स्पर्श का व्यभिचारी नहीं है । अतः अन्धकार में उद्भूत नील रूप मानने में उद्भूतस्पर्शाऽभाव (= ब्यापकाऽभाव) ही गधक है। च्यापकाभाव से व्याप्याऽभाव की सिद्धि होती है। निष्कर्ष :- अन्धकार द्रव्य नहीं है । जैयायिक मत में विनिगमकाभाव दोष अनेकान्तवादी :- तथापि, इति । उस्ताद ! आपकी इस रामकहानी का मूलाधार है, द्रव्यविषयक चाक्षुषकारणतावच्छेदक जाति को एकत्वगत मानना । मगर द्रव्यविषयकचाक्षुषजनकतावच्छेदक जाति को महत्त्वगत एवं द्रव्याऽन्य द्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणता. वच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति को एकत्ववृत्ति क्यों न मानी जाय ? इस विषय का चिनिगमक = निर्णायक कौन होगा ? पही अभी तक खोज का विषय है। मतलब यह है कि घटगत एकत्व में द्रव्यविषयकचाक्षुषकारणतावच्छेदकजाति के साथ द्रव्याऽन्यद्रव्यसमवेतस्पार्शनकारणताअवच्छेदक प्रकृष्टत्व जाति के सांकर्य का निवारण करने के लिए जैसे स्वतंत्र (= नैयायिक एकदेशीय)
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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