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________________ ३२७ मध्यमस्पाद्वादरहस्ये खण्डः २ - का... * योग्यतारिशंषापेक्षाऽऽविष्कारः * त्वात् । न च ताशयोग्यतां विनाऽपि किचिदंशेन तमःसंयुक्तद्रव्यग्रहाद व्यभिचार इति वाच्यम्, तमःसंयुक्तांशग्रहे तादृशयोग्यताया अवश्याऽयेक्षणात्, =-= -=-... - ---* जरालता * = =.. | क्षिप्ता, तं विनव मन्दान्धकारस्थितद्रव्यचाशुषोदयात् । गाढान्धकारावरिधनद्रव्यगोचरज्ञानावरगकर्मक्षयोपशमविरहादेव नाऽस्माकं || तचाक्षुषमिति नान्वयव्यभिचारः । गेषश्चैतत्यस्तावे भाबितमेव । ननु माऽस्त्वन्वययभिचारः, व्यतिरकव्यभिचारस्तु कथं पराकार्थः :, एकावच्छेदेन्बा मावति अपरभागावच्छेदेन तमोवति द्रव्ये आलोकावच्छेदकाबच्छेदेन चाक्षुषोदयात् । न च तत्रालोकावच्छेदेन तच्चाक्षुषोदय गोलोकसंयोगस्यैव हेतुत्वस्वीकारान्न अभिचार इति वाच्यम्, मन्दतभासंयोगावच्छेदकावच्छेदेन तच्चाक्षुषोदयस्याप्यानुभविकत्वात, निरवच्छिन्नतमःसंयुक्तद्रव्यविषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यताविरहेऽपि तादृशतमःसंयुक्तचाक्षुषोदयेन व्यतिरेकव्यभिचारो दुरुद्धरः इति शङ्कां निरसितुमुप ते । वान्यमित्यनेना स्यान्वयः । तादृशयोग्यतां = आलोकसंयोगानाश्रय-निरवच्छिन्नतमःसंयोगाश्रयाऽन्यतर विषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणयोग्यतां विनाऽपि किश्चिदंशेन तमःसंयुक्तद्रव्यग्रहात् अमुकावच्छेदकावच्छिन्नतमःसंयोगाश्रयद्रव्यविषयकचाक्षुषोदयात्, व्यभिचारः = व्यतिरेकन्यभिचारः । अतः तादृशयोग्यताविदोषस्य न तमःसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं भवितुमर्हतीति शङ्काशयः ।। प्रकरणकारो व्यतिरेकव्यभिचारमपाकरोति । तमःसंयुक्तांशग्रहे इति । तमःसंयोगावच्छेदकावच्छेदेन द्रव्यचाक्षुषोदये सति । तादृशयोग्यतायाः = तमःसंयुक्तांशविषयक-ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमस्वरूपयोग्यतायाः अवश्यापेक्षणात् । न हि वयं तमःसंयुक्तगोचरचाक्षुष प्रति कारणविधया तमःसंयोगावच्छेदकीभूतांशविषयकं निरवच्छिन्नतमःसंयुक्तद्रव्यविषयकं वा ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम योग्यताशब्देन प्रतिपादयामः येन व्यतिरेकव्यभिचार: प्रतिष्ठां लभेत किन्तु चाक्षुषविषयविषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमं योग्यताशब्देनाऽभिदधामः । स च मन्दान्धकारसंयोगावच्छेदकावच्छेदेन द्रव्यचाक्षुषोदयदशायामयस्त्येवेति न व्यभिचारः | न होकावच्छेदेनालोकसंयोगवतो द्रव्यस्य मन्दान्धकारसंयोगावच्छेदकविषयकज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविरहे मन्दतमासंयोगावच्छेदकांशगोचरलौकिकचाक्षुषं भवितुमर्हति । भी चाक्षुषजनक संयोग (गुण) का आश्रय होने से द्रव्यात्मक ही है, न कि अन्धकाराभावस्वरूप । इसलिए आलोक को द्रव्यात्मक एवं अन्धकार को आलोकाभावस्वरूप मानना मुनासिन है" - तो यह भी ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि नैयायिकसम्प्रदाय में चक्षु को प्राप्यकारी मानी जाती है, न कि जैनमत में । हम चक्षु को अप्राप्यकारी ही मानते हैं। इस विषय का विवेचन पूर्व में किया गया है। चक्षु अप्राप्यकारी होने से चक्षुःसंयोगावच्छेदकावच्छिन्न आलोकसंयोग को चाक्षुषप्रत्यक्ष का कारण नहीं मानते हैं। दूसरी बात यह है कि प्रकाश न होने पर भी मन्द अन्धकार में अवस्थित द्रव्य का चाक्षुष होता है । इसलिए आलोकसंयोग को स्वतन्त्ररूप से भी चाक्षुष प्रत्यक्ष का कारण नहीं माना जा सकता। अन्धकारस्थित द्रव्य के चाक्षुप के प्रति तो योग्यताविशेष को ही कारण माना जा सकता है। जब कि तमःसंयुक्तद्रव्यविषयक चाक्षुषमात्र के प्रति आलोकसंयोग की कारणता वाचित है। तब चाक्षुपत्वावच्छेदेन (= सभी चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति आलोकसंयोग को कैसे कारण कहा जा सकता है ? जिसकी वजह उसका आश्रय होने के सबब प्रकाश में द्रव्यत्व की सिद्धि नैयायिक महाशय की ओर से हो सके । मंद अन्धकारस्थित द्रव्य का चाक्षुष भी अनुभवसिद्ध होने से यही मानना उचित है कि तमासंयुक्तद्रव्यविषयकचाक्षुपत्यावच्छेदेन योग्यताविशेष ही कारण है । म योग्यताविशेष चाक्षुष का अव्यभिचासी कारण है - स्यादादी न च नाद. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह शंका की जाय कि -> "तमःसंयुक्त द्रव्यविषयक चाक्षुष के प्रति योग्यताविशेप को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि तब व्यतिरेक व्यभिचार उपस्थित होता है । वह इस तरह, जब द्रव्य के एक भाग में आलोकसंयोग होता है और अन्य भाग में अन्धकारसंयोग होता है तब उस द्रव्य का चाक्षुष साक्षात्कार होता है। मगर उसके प्रति आलोकसंयोग को ही कारण माना जा सकता है, न कि योग्यताविशेप को, क्योंकि सर्वथा मन्द अन्धकार में स्थित द्रव्य के चाक्षुष की जैसी योग्यता होती है, वैसी योग्यता तो अमुक भाग में प्रकाश से एवं अन्य भाग में अन्धकार से संयुक्त द्रव्य के चाक्षुषस्थल में नहीं हो सकती है। तादृश योग्यताविशेष के अभाव में भी अमुक १. देखिये पृष्ट, ५२-७२ ।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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