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________________ * ज्ञप्ती परस्पराश्यप्रकाशनम् * | आलोकजन्यत्वाऽज्ञाने तदजन्यत्वाऽज्ञानात् । 'आलोकाऽसंयुक्तचाक्षुषं प्रति तस्य हेतुत्वमि'त्यपि न वक्तुं युक्तम, महदुद्भूताऽनभिभूतरूपवत्तनिवेशे गौरवात् । -----* जयलता * चाक्षुषत्वमेवाऽऽलोकजन्यतावच्छेदकमिति वाच्यम्, चूकादिसमवेते द्रव्यचाक्षुधे ब्यभिचारात् । न च पक्षिदेवतेतरसमवेतद्रव्यचाक्षुषत्वमस्तु तथेति वक्तव्यम्, बिडालसमवेते द्रव्यचाक्षुषे व्यतिरेकन्यभिचारात् । न च पशुपक्षिदेवतेतरसमवेतद्रव्यचाक्षुषत्वे तत्त्वं बक्तुं युज्यते, गौरवात्, अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां चौरादीनां द्रव्यचाक्षुषे व्यभिचाराच्च । एतेन मनुष्यसमवेतद्रव्यचाक्षुषत्वस्याऽप्यालोकजन्यतावच्छेदकत्वं प्रत्युक्तम् । सत्कार्यताद छेदका प्रसिधा सवछिनकालानिरूपितकारणताया आश्रयत्वमालोकस्य कधं संभवेत् ? येनालोकजन्यवानुषं सिध्येत, आलोकनिष्ठजनकतानिरूपितजन्यतावच्छेदकाश्रया प्रसिद्धी च कधमालोकाऽजन्यद्रव्यचाक्षुषं सिद्भिसीधमारोहेत् : अप्रसिद्धनिषेधान्योगादित्याशयेनाऽऽह- आलोकजन्यत्वाऽज्ञाने इति । तदजन्य त्वाऽज्ञानात् = आलोकाऽजन्यत्वा प्रसिद्धेः । एतेन योग्यताविशेषा:जन्यचाक्षुषत्वमालोकजन्यतावच्छेदकमिति निरस्तम्, ज्ञप्ती परस्पराश्रयप्रसङ्गात् । नन्वस्त्वालोका संयुक्तद्रव्यचाक्षुषत्वस्यैव योग्यताविशेषजन्यतावच्छेदकत्वमिति नैयायिकाशङ्कायामाह- आलोकाऽसंयुक्तचाक्षुषं प्रतीति । आलोकसंयोगशून्यद्रव्यविषयकचाक्षुपत्वावच्छिन्नं प्रति । तस्य = योग्यताविशेषस्य, हेतुत्वं - निमित्तकारणत्वं, इत्यपि, किमुताऽऽलोका जन्यद्रव्यचाचपं प्रतीत्यपिशब्दार्थः, न वक्तुं युक्तम् । आलोकपरमाणुसंयुक्तयटादिद्रव्यस्य मन्दतमसि चाक्षुषोदयेनाइलोका संयुक्तद्रव्यचानुषत्वस्य योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदकत्वाऽसम्भवात् । न च महदाऽऽलोकाऽसंयुक्तद्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति योग्यताविशेषस्य कारणतेति वक्तव्यम्, त्वदभिमतमहदनुभूतचक्षूरदिमसंयुक्तयटादिद्रन्यस्य मन्दतमसि चाक्षुषोदयेन महदालोका संयुक्तचानुषत्वस्याऽप्यतिरिक्तवृत्तित्वात् । न च महदुद्भूतालोकाऽसंयुक्तचाक्षुषत्वस्य तथात्वं श्रद्धेयम्, मन्दतमसि महदुद्भूतरूपवदालोकलक्षणसुवर्णद्रव्यचाक्षुषस्यापि योग्यताविशेषजन्यत्वेन तद्दोषतादवस्थ्यात् । न च महदद्भतानभिभूतरूपबदालोका संयुक्तचाक्षषत्वस्वैव तत्त्वम् । सुवर्णरूपस्याऽभिभूतत्वेन सुवर्णगगनसंयोगस्याऽतधात्वान दोषः । ततश्च योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदकघटकीभूततादृशालोकसंयोगाश्रयत्वेनाऽऽलोकस्य द्रव्यत्वं सेत्स्यतीति वाच्यम्, कार्यता:बच्छेदककोटेरतिगुरुत्वापतेरित्याशयेनाऽऽह-महदुद्भूतानभिभूतरूपवत्तनिवेशे इति । महत्परिमाणोद्भूताऽनभिभूतरूपबदालोकस्य योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदककोटी निवेशे । गौरचात् = अप्रामाणिकमहागौरवात् । ततश्च द्रव्यचाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति योग्यताविशेषस्य कारणता स्वीकर्तन्या । अतो नालोकसंयोगाश्रयत्वना:लोकस्य द्रव्यत्वं सिंध्येत ।। सकती है" - तो यह उचित नहीं है। इसका कारण यह है कि योग्यताविशेष को आलोकाऽजन्य द्रव्यचाक्षुष का कारण कहने का मतलब यह होता है कि वह आलोकजन्य द्रव्यचाक्षुप से भिन्न द्रव्यचाक्षुप प्रत्यक्ष का कारण है । इसलिए जब तक आलोकजन्यत्व का किसी द्रव्यचाक्षुप में भान नहीं होगा तब तक एक भी द्रव्यचाक्षुप में आलोकाऽजन्यत्व (=आलोकजन्यभेद) का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि प्रतियोगी का ज्ञान अभावज्ञान में कारण होता है । तथा द्रव्यचाक्षुप में आलोकजन्यत्व का निश्चय तब हो सकता है, यदि द्रव्यचाक्षुषवृत्तित्वेन आलोकजन्यताअवच्छेदक नियत धर्म का बोध है । अवच्छेदक का ज्ञान न होने पर तदवच्छिन का ज्ञान नहीं हो सकता है । शाखा का ज्ञान न होने पर शाखावजिन्नत्वरूप से कपिसंयोग का अक्रोध नहीं होता है। मगर आलोकजन्यतावच्छेदक नियत धर्म अप्रसिद्ध है । कौन कौन द्रव्यचाक्षुष साक्षात्कार आलोक से ही जन्य है, न कि योग्यताविशेप से ? यह अभी तक अनिश्चित है । अतः आलोकाजन्य चाक्षुप के प्रति योग्यताविशेष को कारण नहीं माना जा सकता। आलोकासं. इति । यहाँ यह नैयायिककथन हो कि -> "आलोकाऽसंयुक्त द्रव्य के चाक्षुप के प्रति योग्यताविशेष को और आलोकसंयुक्त द्रव्य के चाक्षुप के प्रति आलोकसंयोग को कारण मानने में कोई बाध नहीं है। इस तरह भी आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि हो सकती है । इसलिए आलोकाऽसंयुक्तद्रव्यचाक्षुपत्व ही योग्यताविशेपकार्यतावच्छेदक हो सकता है" - तो यह नामुनासिब है । इसका कारण यह है कि योग्यताविशेषकार्यतावच्छेदक धर्म के घटकविधया जिस आलोक का प्रवेश किया गया है, वह आलोकसामान्य न हो कर आलोकविशेष है। आलोकविशेप का मतलब है महत्परिमाण एवं उद्भुत अनभिभूत रूपवाला आलोक, क्योंकि मन्द अन्धकार में आलोकपरमाणु, नेयायिकसंमत नयनरश्मिस्वरूप आलोक एवं सुवर्णात्मक आलोक के संयोग वाले घटादि द्रव्य का योग्यताविशेप से चाक्षप साक्षात्कार होता है। अतः योग्यताविशेषकार्यता
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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