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________________ ३५५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ५ - का. * 'पश्यामी'तिविषयतानियामकविचारः * कर्षस्थाऽपि नियम्या, अव्यवहितोत्तरत्वस्य कार्यतावच्छेदककोटी दानेन व्यभिचाराऽप्रचारादिति चेत् ? न, स्फुटगौरवात; तथापि तामसेन्द्रियेण तमस इव घटादीनामपि पेचकादीना == गयलत!* पश्यामी' तिप्रतीतिनिरूपितशुक्तिनिष्ठविषयताया निवामकत्वं चक्षुःसन्निकर्षस्य 'रजतं पक्ष्यामी तिप्रतीतिनिष्ठप्रकारिताख्यविषयितानिरूपिताकारताभिधानविषयतायाश्च नियामकत्वं चाकचिक्यादिदोषविशेषस्येति यथा गौतमीयदर्शने प्रसिद्धं तथा 'पश्यामी' तिप्रतीतिनिरूपितविपयताया नियामकत्वं तामसेन्द्रियसन्निकर्षस्याऽपीति मम मतेऽभ्युपगतम् । अत एव 'तमः पश्यामीति प्रतीतेरामास्वं प्रत्याख्यातम् तमोनिष्ठविषयतायाः तामसेन्द्रियसन्निकर्षनियम्यत्वात् । इत्थञ्च चक्षुःसन्त्रिकर्षजन्यज्ञानविषयकानुव्यवसाय इव तामससन्निकर्षजन्यव्यवसायज्ञानविषयकानुव्यवसायेऽपि ‘पश्यामी' तिविषयिताया निराबाधत्वं प्रदर्शितम् । न चैवमपि व्यतिरेकव्यभिचारस्य दुर्निवारत्वं, 'घटं पश्यामी त्यस्याः तामसेन्द्रियसन्निकर्षमृते जायमानत्वात् 'नमः पश्यामी'तिप्रतीतेः चक्षुःसन्त्रिकर्षमन्तरैवोपजायमानत्वादिति वाच्यम्, तामसेन्द्रियसन्त्रिकर्षाव्यवहितोत्तरत्वविशिष्ट प्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति तामससन्निकर्षस्य चक्षुःसन्निकर्धाऽव्यवहितोत्तरत्वविशिष्टप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति च चक्षुःसन्निकर्षस्य कारणत्वमित्यभ्युपगमेन तदश्योगादित्याशयेन तामसेन्द्रियवादिनो वदन्ति - अव्यवहितोत्तरत्वस्येति । तत्तदव्यदहितोत्सरत्वस्य तत्तदभावाकालीनत्वस्येति यावत् । कार्यतावच्छेदककोटी = तत्तत्कार्यतावच्छेदककोटी, दानेन = निवेशेन, व्यभिचाराऽप्रचारात् = व्यतिरेकव्यभिचाराऽसम्भवात् । तामरससन्निकर्षाऽव्यवहितोत्तरत्वशून्यायाः 'घटं पश्यामी' तिप्रतीते: तामससन्निकर्षाऽकार्यत्वेन चक्षुःसन्निकर्षा व्यवहितोत्तरत्वविकलाया: 'तमः पश्यामी'तिप्रतीतेश्च चा:सन्निकर्षाऽकार्यत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारो दुरापास्त इति तामसेन्द्रियवाद्यभिप्राय: | प्रकरणकार: समाधत्ते - नेति । स्फुटगौरवादिति । नानाकार्यकारणभावकल्पनागौरवात्, कार्यतावच्छेदकधर्मशरीरगौर. । वाचेत्यर्थ: । यदि च परे फलाभिमुखत्वेन तददोषत्वं सोल्लण्ठं बंदयुः तदा प्रीढिवादेन प्रकरणकृदाह - तथापीति । = 'मैं देखता है ऐसी अदीति से मिति निमारमा जैसे चक्षसन्निकर्ष. एवं दोपविशेप से नियम्य है ठीक वैसे ही हमारे मत में तामसेन्द्रियसत्रिकर्ष से भी नियम्य है। मतलब यह है कि 'शुस्तिं पश्यामि' यानी 'मैं शीप को देखता हूँ' इत्याकारक प्रतीति से निरूपित शुक्तिनिष्ट विषयता शुक्ति के साथ चक्षुसन्निकर्प से नियम्य है, चक्षुसम्बन्ध उसका नियामक है । यह हुई प्रमात्मक चाक्षुष साक्षात्कार की विषयता की बात । मगर कभी कभी भ्रमात्मक चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है, जैसे उसी शीप में चाकचिक्य (= चमक) आदि दोपविशेष की वजह 'रजतं पश्यामि' = 'मैं चाँदी को देखता हूँ' ऐसी प्रतीति । इस प्रतीति की विषयता का नियामक चक्षुसन्निकर्प नहीं है, क्योंकि दुकान में रही हुई चाँदी के साथ तब पुरुप की चक्षु इन्द्रिय का सन्निकर्ष नहीं है । उक्त विषयता का नियामक है उपयुक्त दोपविशेष । इस तरह न्यायमतानुस प्रनीति से निरूपित विषयता का नियामक चक्षुसन्निकर्प या दोपविशेप है । मगर हमारे मतानुसार तामसेन्द्रियसत्रिकर्प भी उक्त विषयता का नियामक है । अतः 'तमः पश्यामि' यानी 'में अन्धकार को देखता है। इस प्रतीति से निरूपित विपयता निरालम्बन होने की आपनि नहीं होगी, क्योंकि अन्धकार में उक्त विपयता का नियामक तामसेन्द्रियसंयोग रहता ही है। यद्यपि चक्षुसत्रिकर्ष एवं तामससन्निकर्प को उक्त विपयता का नियामक मानने पर व्यतिरेकन्यभिचार प्रसक्त होता है, क्योंकि 'घट पश्यामि' इस प्रतीति से निरूपित विषयता तामसेन्द्रियसंयोग के बिना एवं 'तमः पश्यामि' इस साक्षात्कार से निरूपित विषयता चक्षुसंसर्ग के बिना ही उत्पन्न होती है। बिना कारण के कार्य का होना ही व्यतिरेक व्यभिचार है तथापि कार्यतारच्छेदकधर्मशरीर में अव्यवहितोत्तरत्व का निवेश करने पर उसका निराकरण हो सकता है । मतलब कि चक्षुसनिकर्षाऽव्यवहितोत्तर प्रत्यक्ष के प्रति चक्षुसन्निकर्य कारण है एवं तामससन्निकर्षाऽन्यदहितोत्तरकालीन प्रत्यक्ष के प्रति तामसेन्द्रियसनिक कारण है, ऐसा मानने पर उक्त व्यभिचार दोप का निवारण हो सकता है, क्योंकि 'घटं पश्यामि' यह प्रतीति चक्सत्रिकर्षाऽन्यवाहितोत्तरकालीन है, जिसका कारण तामसमधिकर्प नहीं है किन्तु चक्षुसनिकर्प है, जो कार्यपूर्वक्षण में विद्यमान है । एवं 'तमः पश्यामि' यह साक्षात्कार तामसेन्द्रियमभिकर्पाऽज्यवहितोत्तरकालिक है, जिसका कारण चक्षुसन्निकर्प नहीं है किन्तु तामसेन्द्रियसन्निकर्प है, जो कार्योत्पाटपूर्वक्षण में उपस्थित है। इस तरह 'तमः पश्यामि' इस प्रत्यक्ष के भ्रमत्व की आपत्ति नहीं है" - Mसेन्द्रियवादिमत में दोषस्य - स्यादादी न, स्फु. इति । मगर तामसेन्द्रियरादी का उक्त प्रतिपादन इसलिए मान्य नहीं हो सकता है कि उस पक्ष में दो | कार्य-कारणभाव के अंगीकार का एवं कार्यतावच्छेदकधर्मशरीर में तदव्यविहितोत्तरत्व का निवेश करने का महागौरव है । दूसरा .
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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