SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ..'- . ** अन्धतमसाऽवतमसस्वरूपमीमांसा * तिदानीच बाह्यालोकस्य स्वाधिकसइख्यत्वानातिव्याप्तिरिति वाच्यम, तदिनातिरिक्तानन्तदिनवृत्तिबाह्यालोकाभावानामेवाऽधिकत्वात् । * गरालता भयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वाऽधिकसङ्ख्यकाऽऽलोकविशिष्टत्वानातिव्याप्तिः । निरुक्तोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया बाऽधिकसयका लोकविशिष्टत्वे सति निरुक्तालोकाभावस्यैव छायालक्षणत्वमामनन्ति नैयायिकप्रवराः । 'तथापि दिवा प्रकृष्टालोके सत्यपि कतिपयोक्तालोकाभावस्य सत्त्वेन कथं न तदानीमवतमसप्रतीतिप्रयोगो' ? इत्याशङ्काम - पनोदितमाह . तदानीधेति । दिनसमये चेति । बाह्यालोकस्य स्वाधिकसख्यत्वात = कतिपयमहदद्भतानभिभूतरूप बदालोकाभावस्य स्वसमानदेशत्वस्यसमानकालत्वोभयसम्बन्धेन स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया वाधिकसइख्याविशिष्टत्वात न | दोषः दिवा अवतमसप्रतीतिप्रयोगप्रामाण्यप्रसङ्गलक्षणः । इत्थश्चैकपरिष्कारेण दोषद्वयल्याहतिरिति पराभिप्रायः । प्रकरणकृत्तन्निरासे हेतुमुपदर्शयति - तदिनातिरिक्तानन्तदिनवृत्तिगह्यालोकाभावानामेवेति । अवतमसप्रतीतिप्रयोगप्रामाण्यापादनं यस्मिन् दिने क्रियते तस्मात् दिनात्, अतिरिक्तेषु अनन्तदिनेषु वृत्तीनां बाह्यालोकानामिति । एवकारो बाह्यालोकलक्षणान्ययोगव्यवच्छंदाधः । अधिकत्वात - स्वापेक्षया स्वप्रतियोग्यपेक्षया बाधिकसड़ख्यत्वात् । तदिवसे निरुक्तीभयसम्बन्धेन बाह्यालोकविशिष्टकतिपयनिरुक्तालोकाभावसङ्ख्यापेक्षया संवलितबाह्यालोकानां न्यूनसङ्गस्यत्वेन निरुक्तोभयसम्बन्धेन न्यूनसङ्ख्यकालोकविशिष्टस्य कतिपयनिरुक्तालोकाभावस्य दिवा भूतलादावक्षतत्वात् तदानीमवतमसप्रतीतिप्रयोगप्रामाण्यप्रसङ्गो दुर्निवार एवेति स्याद्वाद्यभिप्रायः । किश्चैतादृशरूपाऽप्रतिसन्धान प्यवतमसत्वानुभवान्न तस्यैतादृशाभावत्वम्, अभावज्ञाने स्वप्रतियोगितावच्छेदकप्रकारकप्रतियोगिज्ञानस्य हेतुत्वात् । एतेन रूपत्वग्राहकतेजःसंवलितस्तदवान्तरविशेषग्राहकयावत्तेजःसंसर्गाभावोऽवतमसम, रूपत्वावान्तरजातिग्राहकतेज:संवलितः प्रौढप्रकाशकयावत्तेजःसंसर्गाभावश्छाया, यावदालोकाभावश्चाऽन्धतमसमित्यपि प्रत्युक्तम्, ज्ञानगर्भतयाऽवतमसादीनामचराक्षषत्वप्रसगात्, तादृशजात्यसिद्ध्या ततज्ज्ञानविशेषपरिचापितजातिविशेषविशिष्टाऽऽलोकनिवेशाऽसम्भवाच्चेति भावनीयं सुधीभिः । विवक्षित देश में विवक्षित काल में अन्यत्र स्थित कतिपय प्रकृष्ट आलोक का अभाव सुचच है। ____ यदि नैयायिकादि मनीषियों की ओर से यह कहा जाय कि => 'महत्त्व एवं उद्भूत तथा अनभिभूत रूप जिस तेजों में होता है, उनमें से कतिपय तेज के अभाव को अवतमस मानने पर छाया में अतिव्याप्ति का चारण करने के लिए उक्त अभाव में उस अभाव से अथवा उसके प्रतियोगी से आपसङ्ख्यक बाह्यालोक के संचलन का निवेश करना होगा । संचलन का अर्थ है एक देश और एक काल में अस्तित्व । इस संचलन का निवेश करने पर अवतमस का लक्षण यह बनेगा कि स्व की अपेक्षा या स्वप्रतियोगी की अपेक्षा अल्पसङ्ख्यक वाह्यालोक से स्वसमानदेशत्व और स्वसमानकालत्व उभयसम्बन्ध से विशिष्ट जो कतिपय उक्त आलोक का अभाव है पह अवतमस है । अवतमस का यह लक्षण होने पर छाया में अतिव्याप्ति नहीं होगी, क्योंकि उक्त प्रकार के कतिपय आलोक के जितने अभाव के रहने पर छाया का व्यवहार होता है, उन अभावों से या उनके प्रतियोगियों से न्यूनसंख्यक वाद्यालोक का संचलन छाया में नहीं होता किन्तु अधिकसख्यक वाद्यालोक का संचलन होता है। अवतमस का यह लक्षण निप्पन्न होने पर दिन में प्रकार आलोक के समय अवतमस की प्रतीति एवं उसके व्यवहार की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उस समय उक्त प्रकार के आलोक का जितना अभाव होता है उससे अथवा उसके प्रतियोगी से अधिकसङ्ख्यक बाह्यालोक दिन के प्रकए आलोक के समय रहता है। अतएव उक्त समय में विद्यमान उक्त प्रकार के आलोकाभावों में उसकी अपेक्षा अथवा उसके प्रतियोगी की अपेक्षा न्यूनसंख्यक बाह्यालोक का संचलन नहीं रहता है" - तदिन. इति । तो यह कथन भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि जिस दिन प्रकृष्ट आलोक के समय अवतमस का आपादन करना है उस दिन केवल उस दिन के ही कतिपय तादृश बाह्यलोकों का अभाव नहीं है, किन्तु उस दिन से भिन्न अन्य अनन्त दिनों के वाह्य आलोकों का भी अभाव है। अत: उस दिन जितने बाह्य आलोक का संकलन उस अभाव में है उनकी संख्या उन अभावों अथवा उनके प्रतियोगिओं से न्यून ही है । अतः अवतमस का प्रस्तुत लक्षण स्वीकार करने पर भी दिन में प्रकृष्ट आलोक के समय अवतमस की प्रतीति एवं व्यवहार (= शब्दप्रयोग) की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy