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________________ ३३७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ लघुसम्बन्धसम्भवे मुरुसम्बन्धकल्पनाया अन्याय्यत्वम् * वाऽदोषत्ववादिनाऽपि सम्भवति लघुसम्बन्धे गुरुसम्बन्धाऽकल्पनादिति चेत् ? न, तथापि | ==* जयलता - - - सम्बन्धवारीगीरवम् । स्वाश्रयसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेन चक्षुःसंयोगस्य चाक्षुषकारणत्वे तु बहलतमे तमसि घटचक्षुःसन्निकर्ष दशायां लचाक्षुषापत्तिरिति दर्शितगुरुसम्बन्धस्यैव कारणतावच्छेदकत्वं वायमिति गौरवमेवेति भावः | __ ननु चक्षु:संयोगकारणतावादिनो मम मते सम्बन्धगौरवस्य दोषत्वं नाऽड्रीक्रियते किन्तु धर्मगौरवस्यैवेति न तादृशचाक्षुषकारणतावच्छेदकसम्बन्धशरीरगौरवं दोष इति पुनर्विनिगमनाविरही दुरुद्धर इति नालोकसंयोगस्य तत्कारणत्वं सुघटघटाकोटिसण्टङ्कमाटीकते इत्याशङ्कायामालोकसंयोगकारणतावाद्याह - सम्बन्धगौरवाऽदोपत्ववादिनाऽपीति । किं पुनः सम्बन्धगौरव - दोषत्ववादिनेति अपिशब्दार्थः । सम्भवति लधुसम्बन्धे गुरुसम्बन्धाऽकल्पनादिति । आलोकसंयोगस्य लघुसम्बन्धेन तत्कारणलोपपत्ती चक्षुःसंयोगस्य गुरुतरसम्बन्धन तत्कारणत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वान्न प्रकते विनिगमनविरह ट्रयात्मनिषुप्रत्यासत्त्या आलोकसंयोगस्यैव तद्धेतुत्वकल्पनमुचितमिति तदाश्रयत्वेनालोकस्य द्रव्यत्त्वसिद्धिरित्यथाशयः । स्याद्वादी तन्निराकरोति - नेति । यद्यपि आलोकसंयोगस्य दर्शितसम्बन्धेन चाक्षुषकारणत्वे उद्योतस्थपुरुषस्य बहलान्धकारस्थवस्तुचाक्षुषसाक्षात्कारोदयापत्तिर्द्वारा, आलोकसंयोगस्य स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगवचक्षुःसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धेनाऽत्मनि सत्त्वात् । न च स्वानवच्छेदकानवच्छिन्नचक्षुःसयोगयचक्षुःसंयुक्तमन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धे- || ना लोकसंयोगस्य तद्धेतुत्यमिति वाच्यम्, गौरवात्, अन्धकारस्थपुरुषस्याउ लोकस्थवस्तुचाक्षुषानुदयप्रसगाच्च तथापि स्फुटत्वा मन:प्रतियोगिकविजातीयसंयोग सम्बन्ध से आत्मा में रह कर समवाय सम्बन्ध से आत्मा में चाक्षुष उत्पन्न करता है। गाढ अन्धकार में अवस्थित यदादि में जो चक्षुसंयोग है उसके अवच्छेदक घटादिद्रव्यावयव से अवच्छिन आलोकसंयोग ही नहीं होने से उससे घटित सम्बन्ध से चक्षुसंयोग भी आत्मा में नहीं रहता है । मगर जब घट के नयनाभिमुख भाग में आलोकसंयोग रहता है तभी चक्षुसंयोग दर्शित सम्बन्ध से आत्मा में रह सकता है, क्योंकि स्व = चक्षुसंयोग, उसके अवच्छेदक घटावयव |' से अवच्छिन्न = नियन्त्रित है आलोक संयोग, उसके अवच्छेदकीभूत उसी घटावयव से अवच्छिन्न है वही चक्षुसंयोग, जो ग्रन्थस्थ द्वितीय स्वपद से अभिमत है । तादृश चक्षुसंयोगवाली चक्षु है और उससे संयुक्त है मन, जिसका विजातीय संयोग आत्मा में रहता है। अतः दर्शित सम्बन्ध से चचसंयोग आत्मा में रह सकता है, जो उसी आत्मा में समवाय सम्बन्ध से घटगोचर चाक्षुष को उत्पन्न करता है । इस तरह चक्षुसंयोग और चाक्षुप में सामानाधिकरण्य एवं कार्यकारणभाव की उपपत्ति करनी होगी। अब महाशय ! चक्षुसंयोगकारणतावादी ! देखिये, आपके मत में कारणतावच्छेदक सम्बन्ध हुआ स्वावच्छेदकारच्छिनालोकसंयोगाबच्छेदकावच्छिन्त्रस्ववचक्षुसंयुक्तमनप्रतियोगिक विजातीयसंयोग और आलोकसंयोग को कारण मानने वाले हमारे मत में कारणतावच्छेदकसम्बन्ध हुआ स्वावच्छेदकावच्छिन्नसंयोगाश्रयचक्षुसंयुक्तमनप्रतियोगिक विजातीयसंयोग । स्पष्ट ही है कि आत्मनिष्टप्रत्यासति से चक्षुसंयोग को चाक्षुष का कारण मानने पर आपके पक्ष में हमारे मत की अपेक्षा गुरुभूत सम्बन्ध है 1 इसलिए आत्मनिष्टप्रत्यासति से चक्षुसंयोग को कारण न मान कर आलोकसंयोग को ही कारण मानना उचित है। यहाँ यह कहना अनुचित है कि -> "चक्षुसंयोगकारणतावादी हम सम्बन्ध के गौरव को दोषात्मक नहीं मानते हैं । अत: भले हमारे मत में आपके मत की अपेक्षा सम्बन्धशरीर में गौरव हो, फिर भी आत्मनिष्ठ उक्त प्रत्यासत्ति से चक्षुसंयोग को कारण माना जा सकता है" -। यह अनुचित न होने का कारण यह है कि सम्बन्धशरीप्रविष्ट गौरव को दूषण नहीं मानने वाले विद्वान भी गुरुभूत सम्बन्ध का स्वीकार तब करते हैं, जब लघुभूत अन्य सम्बन्ध से कार्यकारणभाव आदि की उपपत्ति न हो सके । जब लयु सम्बन्ध उपस्थित हो और उससे कार्यकारणभाव आदि की संगति हो सके तब तो वे भी गुरुभूत सम्बन्ध की क्लिष्ट कल्पना को मान्य नहीं करते हैं। प्रस्तुत में आलोकसंयोग को कारण मानने पर लयुभूत कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से चाक्षुपोत्पत्ति का समर्थन मुमकिन होने की वजह उसे छोड़कर गुरुभूत सम्बन्ध को कारणतावच्छेदक सम्बन्ध मान कर चाक्षुप की कारणता की चक्षुसंयोग में कल्पना करना नितांत अयोग्य है । इसलिए लाघव सहकार से आलोकसंयोग को ही तादृश चाक्षुप साक्षात्कार का कारण मानना मुनासिब है - यह फलित होता है । जब आलोकसंयोग में कारणता सिद्ध हो गई तब तो उसका आश्रय होने की वजह आलोक में द्रव्यत्व की सिद्धि अनायास ही हो जायेगी । अतः आलोक को अन्धकाराऽभावात्मक न मान कर अन्धकार को ही आलोकाभावात्मक मानना ठीक है। यह हम नैयायिक विद्वानों का तात्पर्य है।" ___ आलोकसंयोगाकारणतापक्षा में विजिगमनाविरह - स्यात्दादी उत्तरपक्ष :- न, तथा, इति । आत्मनिष्ठप्रत्यासतिवादी का उपर्युक्त कयन असंगत है । इसका कारण यह है कि
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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