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________________ ४२९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * कुलालकृतघंटं प्रत्यन्यथासिद्धत्वम् * सम्बन्धेत घटादौ कुम्भकारादिकृतेर्हेतुत्वेऽपि बाधकामाव' इति चेत् ? न, दण्डावयवस्याऽप्येवं घटं प्रति हेतुतापत्तेः । 'तनावश्यक्लुप्ते'त्याद्यन्यथासिन्देः न हेतुत्वमिति यदि, तदाज्ञाऽपि तुल्यम् । = =* जयलता * विलक्षणसंयोगो घटाद्यसमवायिकारणल्वेनाभिमतः, तादृशासम्बन्धेनेति । घटादी कुम्भकारादिकृतेः हेतुत्वेऽपि बाधकाभाव इति । समवाचन घटादिकं प्रति स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगेन कुलालादिकृतेः हेतुत्वमिति कार्य-कारणभावोपगमेऽपि न किञ्चिद्राधकमस्ति, कार्य-कारणसामानाधिकरण्यनिर्वाहात् । एतेन कृतेः चेष्टादिद्वारा विजातीयसंयोगत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुता न तु घटत्वावच्छिन्नं प्रत्यपीति प्रत्युक्तम् । प्रकरणकारः तन्निराकुरुते- नेति । दण्डावयवस्याऽपीति । एवं = स्वप्रयोज्यभ्रमणवत्त्वसम्बन्धेन, घटं प्रति हेतुता. पत्तेरिति । यथा कुलालकृतिः चेष्टादिद्वारा विजातीयसंयोगं सम्पादयति यः समवायेन कपाले वर्तते तथा दण्डावयवा अपि दण्डद्वारा भ्रमिक्रियां सम्पादयन्ति; या समवायेन कपाले वर्तते । ततश्च समवायेन घटं प्रति यधा स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगेन कुलालकृतेः हेतुत्वं तथैव समवायेन घटं प्रति स्वप्रयोज्यभ्रमिसक्त्त्वसम्बन्धेन दण्डावयबानामपि कारणत्वं सम्भवति । तत्र = दण्डावयवेषु, 'अवश्यक्लृप्ते' त्याद्यन्यथासिद्धेः' = 'अवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिन एव कार्यसम्भबे तद्भिनमन्यथासिद्धमि'त्यन्यथासिद्धृत्वग्रस्तत्वात्, न हेतुत्वं = घटकारणत्वमिति यदि नैयायिकेन विभाज्यत इति शेषः । प्रकृतकार्यनिरूपितलधुनियतपूर्ववृत्तित्ववद्भिन्नत्वं प्रकृतकार्यनिरूपितान्यधासिद्धत्वमिति लक्षणं बोध्यम् । दण्डावयवत्वापेक्षया दण्डत्वस्य कारणतावच्छेदकल्वे लाघवाद् स्वजन्यभ्रमिमवत्त्वसम्बन्धेन दण्डादेव घटसम्भवे तद्भिन्नानां दण्डावयवानां घट प्रत्यन्यथासिद्धत्वं, स्वसमवेतजन्यभ्रमिमत्त्वसंसर्गेण दण्डावयवानां घटकारणत्वे सम्बन्धगौरवाच न तद्धेतृत्वसम्भव इति यदि परेण विभाव्यते, तदा अत्र = कुलालकृतेः घटकारणत्वमते, अपि तुल्यं = समसमाधानमिति प्रकरणकारेणोच्यते । तथाहि घटं प्रत्यवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिनः कपालद्धय विजातीयसंयोगादेव घटसम्भवे तद्भिन्न-कुलालकृतेः बट प्रत्यन्यथासिद्धत्वम् । विजातीयसंयोगस्य कारणत्वे समबायस्य कारणतावच्छेदकसम्बन्धत्वं, कुलालकृतेः कारणत्वं तु स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगस्य कारणतावच्छेदकसम्बन्धत्व को स्वकृतिसाध्यतासम्बन्ध से विलक्षणसंयोग के प्रति कारण मानना और घटादि के प्रति प्रयोजक मानना इसकी अपेक्षा कुम्हारादि की कृति को स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्ध से घटादि का हेतु मानना उचित है । स्व : कुलालादिप्रयत्न, उससे प्रयोज्य कपालद्वयादिविजातीयसंयोग कपालादि में रहता है । कुलालादिप्रयत्न स्वप्रयोज्यविलक्षणसंयोगसम्बन्ध से कपालादि में रहेगा । अतः समवाय सम्बन्ध से घटादि भी वहाँ ही उत्पन्न होगा। इस तरह कुलासादिकृति घटादि की जनक हो सकती है, तो फिर घटादि में कुलालादि की स्वकृतिसाध्यताज्ञान से प्रवृत्ति होने में क्या बाथ है १ अतः 'कुलालादि स्वकृतिप्रयोज्यत्वज्ञान | से घटादि के उद्देश्य से प्रवृत्ति करते हैं। यह मानना ठीक नहीं हे" < कुलालादिप्रयत्न घटादि के प्रति अन्यथासिन्द ने, दण्डा, इति । तो यह नैयायिकवक्तव्य भी नामुनासिब है; क्योंकि कुलालादिकृति को स्वप्रयोज्यविजातीयरयोगसम्बन्ध से घटादि का कारण - जनक माना जाय, तर तो दण्डावयव को भी घट का हेतु मानने की आपनि आयेगी, क्योंकि स्वप्रयोज्यभ्रमणवत्वसम्बन्ध से दण्डाचयच भी घट का कारण कहा जा सकता है। स्व = दण्डावयव, वह दण्ड द्वारा भ्रमि क्रिया को उत्पन्न करता है । तथा वह भ्रमण क्रिया समवाय सम्बन्ध से कपाल में रहती है। अतः दण्डावयव स्वप्रयोज्यभ्रमित्त्वसम्बन्ध से कपाल में रहेंगे और समवाय सम्बन्ध से घट भी कपाल में उत्पन्न होता ही है। अतः कुलालादिप्रयत्न की भाँति दण्डावयव भी घट का हेतु हो सकता है। यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "दण्डावयव तो घट के प्रति अन्यथासिद्ध है, क्योंकि घट के प्रति अवश्यक्लप्त दण्ड से ही यट की उत्पत्ति सम्भवित है।।<-- तो यह समाधान कुलालप्रयत्न में भी समान है। घट के प्रति अवश्य कल्पनीय कपालद्वयविजातीयसंयोग से ही घट की उत्पत्ति सम्भावित है, तो कुलालादिप्रयत्न | घट के प्रति अन्यथासिद्ध हो जायेगा । घट के प्रति कपालद्वयधिजातीयसंयोग में कारणता अवश्य क्लुप्त है, क्योंकि केवल कुलालादिप्रयत्न से ही घट उत्पन्न नहीं होता है किन्तु कुलालप्रयत्न से कपालद्वयविलक्षणसंयोग उत्पन्न होने के बाद ही घट उत्पन्न होता है । इस तरह कुलालप्रयत्न में घटकारणता की कल्पना करने पर भी कपालयविजातीयसंयोग में यटकारणता मानना आवश्यक है और उसीसे घटोत्पाद का निर्वाह हो सकता है, तब कुलालप्रयत्न में क्यों घटकारणता का अंगीकार
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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