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________________ ---- - ४५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ - का.५ * दिगम्बरनयेन सर्वविषयकज्ञानसिद्धिः ** अथाऽऽलेख्ये न पुरुषाकारः, करचरणादिरूपस्य तस्य पुरुष एव भावात्, तत्र 'पुरुष' इति धीस्तु सादृश्यज्ञानदोषादिनिबन्धतत्वादधमरूव, तथा च ज्ञानेऽपि न ज्ञेयाकार इति चेत् ? न, न हि वयं ज्ञेयतदात्मानं आकारं ज्ञाने ब्रूमः, येन साकारवादपक्षनिक्षिप्तं दूषणं = जयलता * ज्ञेयाकारा ज्ञानेऽपि सम्भवन्तीति नातीतादिगोचरत्वं प्रत्यक्षे बाधितुं शक्यते । यच्चोक्तं -> "विज्ञानविषयोभयात्मक विषयत्वं' - तदसत् विषयताया ज्ञानरूपत्वे 'घटवद्भूतलमि' स्यादिज्ञाननिरूपितानां घटभूतलादिवृत्तिविषयतानामभेदापत्त्या तादृशज्ञानान्तरं 'बटप्रकारकज्ञानवानहमि' त्यादिप्रतीतिवद् 'भूतलप्रकारकज्ञानवानहमि'त्यादिप्रतीतिप्रसमात्, घटनिष्ठप्रकारत्वाऽऽख्यतज्ज्ञानस्वरूपविष्यताया व भूतलवृत्तित्वात, एवं 'घटपटावि' त्यादिसमूहालम्बनधियो भ्रमत्वापत्तिश्च । विषयस्वरूपत्वे च 'घटभूतलसंयोगा' इत्याद्याकारकसमूहालम्बनविशिष्टबुयोर्वेलक्षण्यानुपपत्तेरिति विज्ञानविषयाभ्यामतिरिक्तमेव विषयत्वमित्यनन्यगत्या स्वीकर्तव्यम् । अतो न विषयाःसत्त्वे तादृशज्ञानाकाराऽसम्भवः, योग्यताया एव तदाक्षेपकत्वात् । न च ज्ञानाकारता कथं सिद्धा ? इति वाच्यम्, घटत्वादिप्रकारतानिरूपितघटादिविशेष्यतास्थानाभिषिक्ताया घटाद्याकारतायाः 'सागारे नाणे हवई' इत्याधागमस्यारस्येनाऽभ्युपगतत्वात् । तथा च नाऽतीतादिगोचरताया निरूपकत्वसंसर्गेण ज्ञानेऽसम्भव इति फलितम् । परः शङ्कते- अधेति । 'चेदि' त्यनेनाऽस्यान्वयः | आलेख्ये = लेप्य-प्रतिमादी वस्तुतो न पुरुषाकारः, कुतः ? इत्याह - करचरणादिरूपस्य तस्य = पुरुषाकारस्य पुरुषे एव भावात् = सद्भावात् । 'तर्हि आलेख्ये पुरुषबुद्भिः किंनिबन्धना किंरूपा च' ? इत्याशङ्कायामाह - तत्र = आलेख्ये, 'पुरुष' इतिथीः = पुरुषत्वप्रकारिका बुद्भिस्तु सादृश्यज्ञानदोषादिनिवन्धनात् = संस्थानादिसादृश्यधी-भेदाग्रहादिदोष-तादात्म्याऽऽरोपादिनिमित्तकत्वात्, भ्रमरूपा = तदभाववति तत्प्रकारकत्वाऽवगाहित्येन विपर्ययात्मिका एच । न तु प्रमेत्येवकारार्थ: 1 तत: किं ? इत्याशङ्कायां निगमयति - तथा चेति । यथालेख्य न पुरुषाकार तथा च, ज्ञानेऽपि न ज्ञेयाकारः अस्ति, तस्य ज्ञेयवृत्तित्वात्, अज्ञेयाकारेऽपि झाने ज्ञेयाकारत्वेन भानाद्भमत्वमेवेति नातीतानागतविषयकत्वं ज्ञाने सम्भवति । अतीतादिपुरुषीयकरचरणादिरूपझेयाकाराणां ज्ञानवृत्तित्वे योगाचारमतप्रवेशप्रसङ्गादिति प्रकृते निर्गलितशङ्काभिप्रायः । समाधत्ते - नेति । न हीति । 'बूम' इत्यनेनाइन्वीयते । ज्ञेयतदात्मानं = ज्ञेयात्मकं आकार = ज्ञेयाकारं ज्ञाने मः, येन कारणेन साकारवादपक्षनिक्षिप्तं = योगाचारमतप्रविष्टं, दूषणं दुरुद्धरं स्यात् । तर्हि कीदृशो ज्ञेयाकारो भी प्रत्यक्ष ज्ञान में हो सकता है। इसमें कोई क्षति नहीं है। इसलिए ज्ञानावरणक्षय से सर्व विषयक ज्ञान की कल्पना यधार्थ ही प्रतीत होती है। अथाले. इति । यहाँ यह शंका हो कि -> "चित्र में पुरुषाकार का जो दृष्टान्त बताया गया है, वही असिद्ध है, क्योंकि पुरुषाकार का मतलब है हाथ, पाँच आदि । तादृश पुरुषाकार तो वास्तविक पुरुषशरीर में होता है, न कि उसकी प्रतिमा, चित्र आदि में । प्रतिमा आदि में होने वाली 'यह पुरुप है' इत्यागाकारक बुद्धि तो भ्रमात्मक ही है, क्योंकि सादृश्यज्ञान, पुरुषभेदाऽग्रहात्मक दोष आदि की बजह वह बुद्धि उत्पन्न होती है। इसलिए प्रतिमादि में पुरुषत्वप्रकारक बुद्धि के कर-चरणादिस्वरूप पुरुषाकार की सिद्धि नहीं हो सकती, दोपादि से अजन्य बुद्धि से ही पदार्थ की सिद्धि होती है। जैसे प्रतिमादि में पुरुषाकार नहीं होता है, ठीक वैसे ही ज्ञान में ज्ञेयाकार भी नहीं होता है। वह तो ज्ञेय विषय में रहता है । अत: अतीतादि ज्ञेय पदार्थ का आकार ज्ञान में कैसे मुमकिन होगा, जिससे सर्वविषयक ज्ञान की सिद्धि हो सके ? अतः सर्वविषयक | ज्ञान की कल्पना अप्रामाणिक है, अन्यथा साकारवाद की आपत्ति आयेगी" - ॐ ज्ञानात्मक ज्ञेयाकार का ज्ञान में स्वीकार ॐ न, न. इति । तो यह भी असंगत है, क्योंकि हम स्याद्वादी ज्ञेयतदात्मक = ज्ञेयाऽभिन्न आकार का ज्ञान में स्वीकार · नहीं करते हैं, जिसकी वजह साकारवाद की आपत्ति हो और उसकी वजह साकारयादमत = योगाचारपक्ष में प्राप्त दोष का उद्धार भी हमारे पक्ष में मुश्किल हो । किन्तु हम तो ज्ञान में ज्ञानतदात्मक = ज्ञानाभिन्न आकार को मानते हैं । आशय यह है कि ज्ञान में रहने वाला झेयाकार यदि ज्ञेयाऽभित्र माना जाय तर तो बाह्य वस्तु का लोप, ज्ञानाद्वैत आदि अनेक दोष प्रसस्त होते हैं, जो साकारज्ञानबादी योगाचार बौद्ध के मत में प्रसक्त होते हैं। मगर हम ज्ञान में रहने वाले ज्ञेयाकार को ज्ञानाऽभिन मानते हैं। अतः ज्ञेय की झान में वृत्तिता के मूलक दोषपरम्परा प्रसस्त नहीं होती है। यह ठीक उसी
SR No.090487
Book TitleSyadvadarahasya Part 2
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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