Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 340
________________ ५३७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.७ मनरत्वसमाविष्टमिहत्वं = नरसिंहन्वम् * जातिरुपमभ्युपगम्यते इति चेत् ? ता, उपाधिसाकर्यस्येव जातिसाकर्यस्याऽप्यदोषत्वान्नरत्वसमाविष्टसिंहत्वस्यैव तत्त्वात्। 'जातिसाहकर्यस्याऽदोषत्वे शिशपात्वादेन्यत्र सम्भावनया 'वृक्षः शिंशपाया' इत्याद्यनुमानमप्युच्छिद्यत' इति चेत् ? न, उपाधिसाकर्येऽप्यस्य दोषस्य तुल्यत्वात, तकादिना संशयनिवृत्तेरुभयत्र सम्भवात् । = जयलता * ___ प्रकरणकृत्समाधने - नेति । एरेण प्रतिब्रह्मकल्पं नृसिंहावतारस्वीकारात् उपासनादृष्टवशेन नृसिंहशरीरोत्पादस्वीकाराच नृसिंहशरीरस्य " मल्लेग नृसिंहन्दनाय लागरमा इनि नरस्मृित्वमेकव्यक्तिवृत्ति न जात्यन्तरमि'त्यस्याऽयुक्तत्वं स्पष्टमेबेति तदुपेक्ष्य परेण 'नरत्यादिकमपि साङ्कर्यभिया न जातिरूपमभ्युपगम्यते' इति यदुक्तं तत्र समाधत्ते- उपाधिसार्यस्येवेति । यदि जातिसादयं दोषः स्यात् तर्हि तस्योपाधित्वेऽपि दोषत्वं तदवस्थमेव । न चोपाधिसाय दोषत्वेन परेगाऽभ्युपगम्यते । तद्वदेव जातिसाङ्कर्यस्याऽप्यदोषत्वमुपपत्स्यत इत्यर्थः । गुआफले रक्तत्व-कृष्णत्वयोरिवकत्र नित्यत्वाऽनित्यत्वयोः खण्डशो व्याप्त्या:वस्थानं नाभ्युपगम्यते, किन्तु दाडिमे स्निग्धत्वोष्णत्वयोरिख परस्परानुवेधेनाऽवस्थानमङ्गीक्रियते । एवमेव नरवसिंहत्वयोः स्वातन्त्र्येणाऽवस्थानं न स्वीक्रियते किन्तु परस्परव्यामिश्रितत्वेनैव. तथैव प्रत्ययात् । तदेव तत्र जात्यन्तरत्वमित्याशयेनाऽऽहनरत्वसमाविष्टसिंहत्वस्यैव तत्त्वात् = जात्यन्तरात्मकत्वात् । एतेन सर्वथा तदतिरिक्तत्वकल्पनागौरवमपि परिहृतम्, स्वरसवाहिसावलौकिकप्रत्यक्षस्यैव बलवत्त्वात । ____ परः शकते - जातिसार्यस्य = परस्परव्यधिकरणधर्मयोरेका समावेशस्य अदोषत्वे परापरभावानुपपत्तेः शिंशपात्वादेः व्याप्यत्वेनाऽभिमतजाते: अन्यत्र = वृक्षत्वशून्ये सम्भावनया = वृत्तित्वसम्भावनया, 'वृक्षः शिंशपाया' इत्याद्यनुमानमप्युच्छिद्यतेति । 'अयं वृक्षः शिंशपाया' इत्यत्र समवायेन वृश्नत्वस्य साध्यत्वं तादात्म्येन शिशपाया हेतुत्वम् । प्रसिद्धवेदमनुमानम् । परं जातिसार्यस्वीकारे शिशपात्व-वृक्षत्वयोप्प्य-व्यापकभावानुपपत्त्या समवायावच्छिन्नवृत्तिताकशिंदापात्वव्याप्यतादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नवृत्तिताकदिशंशपाहेतोः समवायसंसर्गावच्छिन्नवृत्तिताकवृक्षत्वसाधकत्वं न स्यादिति शङ्कातात्पर्यम् । ___ प्रतिबन्द्या प्रकरणकारः समाधत्ते - उपाधिसापर्येऽपि किम्पुनर्जातिसङ्कर इत्यपिशब्दार्थः, अस्य प्रसिद्धानुमानोच्छेदलक्षणस्य दोषस्य तुल्यत्वादिति । अयं चेष्टाश्रयः पशुत्वादित्याद्यनुमाने पशुत्वादिसंकीर्णोपाथे: पराऽपरभावानुपपत्त्या स्वाभिमतसाध्यसाधकत्वं न स्यादित्यस्यापि तुल्यत्वादित्यर्थः । न च विषक्षबाधकतर्कादिना सङ्कीर्णापोधिलक्षणहेतौ व्यभिचारसंशयो विलीयत इति नोक्तानुमानोच्छेदापत्तिरिति वाच्यम्, सङ्कीर्णजातिलक्षणहेतावपि प्रकृतसमाधानस्य तुल्यत्वादित्याशयेनाऽहतर्कानदनेति । संशयनिवृत्तेः = व्यभिचारसन्देहविलयस्य, उभयत्र = सङ्कीर्णजात्युपाध्योः तुल्यत्वादिति ।। न उपा. इति । तो यह भी नामुनासिब है, क्योंकि उपाधिसांकर्य की भाँति जातिसांकर्य भी दोषात्मक नहीं है। आशय यह है कि कल्पभेद से नरसिंह अवतार भी अनेक होने की वजह नरसिंहत्व केवल एक अधिकरण में नहीं रहता है । अतएव वह जातिस्वरूप हो सकता है। तथा नरत्व आदि को जातिविशेषस्वरूप मानने में जो पृथ्वीत्व आदि के साथ सांकर्य का दोपाद्भावन किया गया था, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सांकर्य होने पर भी भूतत्व को जैसे नैयायिक मनीषियों ने उपाधिस्वरूप माना है, ठीक वैसे ही सांकर्य होने पर भी नरत्व को जातिस्वरूप माना जा सकता है । यदि सांकर्य उपाधित्व का बाधक नहीं है, तो फिर जातित्व का बाधक कैसे हो सकता है ? संकर को जातिबाधक मानने पर उपाधिबाधक मानना भी न्यायप्राप्त है। अतः नरत्व आदि को भी जातिस्वरूप माना जा सकता है। दूसरी बात यह है कि हम नरसिंहत्व को जातिविशेषात्मक मानते हैं, वह भी सर्वथा नरत्व और सिंहत्व से भिन्न तृतीय जातिस्वरूप नहीं मानते हैं, किन्तु नरत्वसमा। विष्टसिंहत्त्व को ही हम नरसिंहत्व कहते हैं । एक अधिकरण में नरत्व और सिंहत्व जाति का सांकर्य दोषरूप नहीं होने से मरत्वमिश्रित सिंहत्व को ही नरसिंहवरूप जान्यन्तर कहा जा सकता है। यहाँ यह शंका हो कि -> 'सांकर्य को जातिबाधक न मानने पर तो एक जाति और दूसरी जाति के बीच पराऽपरभाव यानी व्याप्य ब्यापकभाव का ही उच्छेद हो जाने से शिंशपात्व जाति की वृक्षत्वशून्य में भी संभावना होने से 'अयं वृक्षः शिंशपायाः' इत्यादि अनुमान का भी उच्छेद हो जायेगा। तादात्म्यसंबंध से शिंशपाविशिष्ट व्यक्ति वृक्षभिन्न भी हो सकती है, क्योंकि जातिसांकर्य को निर्दोष मानने की आपने इजाजत दे दी है' <-तो यह दोष तो उपाधिसांकर्य को निर्दोष मानने पर भी समानरूप से प्रसक्त हो सकता है, क्योंकि संकीर्ण उपाधि में भी पराऽपरभाव = व्याप्य व्यापकभाव दुर्घट होने से 'अयं चेष्टाश्रयः पशुत्वादि'त्यादि अनुमान का उच्छेद होने वाला

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