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* सामान्य-विशेषयोः समुद्रोदाहरणेन वस्त्वंशत्वसमर्थनम् * || प्रतीयमाने सहश-विसहशपरिणती हि केवलानुवृत्ति-व्यावृत्तिधियावर्पयन्त्यो केवलसामान्यविशेषरूपे प्रमाणार्पणया प्रतीयमानं वस्तु पुनर्युगपभयधियं जनयत्कश्चिदनुगमव्यावृत्तिमज्जात्यन्तरमेवेत्याहुः ।
अथैवं सामान्य वस्तु न स्यादिति रोत् ? न वस्तु ताप्यवस्तु किन्तु वस्त्वेकदेश इत्येव सिदान्तः ।
-- ===* जयलता * न चानयोवस्तुस्वभावता ? भावो हि भवित्रधीनस्तदैव भवति तदा तद्वस्तुस्वभाव एवार्य स्यात्, अन्यथा यद्यनुवृत्तिव्यावृत्तिमिन्ने एव तदा न भावोऽनुवर्तते यावर्तते वा, तदा तदपरवस्त्वन्तरवत' - (उ.सि.पृ.१५४) इत्यादि व्याचक्षते ।
ननु नयभेदाचतारे सदृशाः सदृशपरिणतिरूपी सामान्यविशेषावित्यङ्गीकारे केवलं सामान्यं विशेषो वा कथं पूर्णवस्तुस्वरूपमासादयेत् ? अतः तयोः स्वतन्त्रयोरवस्तुत्वमेवापद्यतेत्याशयेन मुग्धः शङ्कते - अधेति । समाधानमाह- न बस्त्वित्यादि । वस्तुनोइनन्तधर्मात्मकत्वेनकेकभागस्य न वस्तुत्वं नाऽध्यवस्तुलम् । न च वस्तुत्वाइवस्तुत्वयोः परस्परबिरहरूपत्वे नकनिषधेडपरविधानमेव प्राप्तं बट-तदभावयोरिवेति वाच्यं यत्र प्रकारान्तराऽसम्भवः तवैकनिषेधे निषधेनकान्तविधानं, प्रकृते त समद्रांशदष्टान्तेन वस्त्वंशरूपप्रकारान्तरसम्भवेन तथाप्रसङ्गविरहात । तदक्तं - 'नायं वस्त न चाऽवस्तु वस्त्वंश: कथ्यते बुधैः । नाइसमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि ॥ ( ) न चोदाहरणमपि न नोऽभिमतमिति वक्तव्यम्, समुद्रैकदेशस्य समुद्रत्वे शेषांशानां समुद्रत्वानापत्तेः, विनिगमनाविरहेणांशांन्तराणामपि प्रत्येक समुद्रत्वे वेकत्रापि समुद्रे ‘बहवः समुद्रा' इति धीव्यवहारौ प्रसज्येताम् । समुद्रैकदेशस्याऽसमुद्रत्वे त्वंशान्तराणामप्यसमुद्रत्वापत्ती समूहिव्यतिरिक्तसमूहस्य विरहेण समुद्रधीन्यवहारावेवोच्छिद्येताम् । तस्मादनन्यगत्या तस्य समुद्रांशत्वमेवाऽभ्युपगन्तव्यम् । एवं वस्त्वंशस्याऽपि भावनीयं. युक्तरपक्षपातित्वात् । तदतं . 'एकांशस्य समुद्रत्वे शेषांशस्याऽसमुद्रता । समुद्रबहता वा स्यात्
को उत्पन्न करती है। अत: वह सदशपरिणति ही केवल सामान्यात्मक कही जाती है। मगर भेदनय की प्रवृत्ति होती है, तब वह अनेक घट में रही हुई विसदृशपरिणति को ग्रहण करता है। भेदनयविषयीभूत विसदृशपरिणति अनेक घट में 'पह रक्त है, यह श्याम है, यह अमदावादीय है, वह वापीय है' इत्याद्याकारक व्यावृत्तिबुद्धि को उत्पन्न करती है। इसी सबर वह केवल विशेपरूप कही जाती है । इस तरह प्रत्येक नय की विवक्ष होने पर अनुगतबुद्धिजनक सदृशपरिणति शुद्ध सामान्य
और न्यावृत्तिबुद्धिजनक विसदृशपरिणति शुद्ध विशेष कही जाती है । मगर जब प्रमाण की विवक्षा होती है तब अनेक वस्तुओं में एक ही काल में अनुवृत्ति और व्यावृत्ति की बुद्धि को सदृश-विसदृश परिणनि उत्पन्न करती है। इसकी वजह वस्तु कथंचित् अनुगमन्यावृत्तिवाली जात्यन्तरवाली ही कही जाती है । प्रमाण सर्वनयसमूहात्मक होता है । अतः प्रमाण की विवक्षा होने पर वह भेदनय और अभेदग्राही. नय के विषय को प्रधानरूप से ग्रहण करता है। अतएव नयविशेष की अपेक्षा बस्तु के अंशभूत होने की बजह परस्पराऽविरोधी सामान्य अंश और विशेष अंश ही मिलित हो कर प्रमाण की विवक्षा होने पर जात्यन्तररूप जातिविशेषात्मक बन कर एक ही काल में अनुवृत्तिव्यावृत्तिउभयप्रकारक = अन्वयव्यवच्छेदप्रकारक बुद्धि एवं व्यवहार के निमित्त बनते हैं . ऐसा प्राचीन जैनाचार्यों का वक्तव्य है।
अथे. इनि । यहाँ यह शंका हो कि -> 'यदि नय की अपेक्षा वस्तु की सदृश परिणति ही सामान्य है और विसदृश परिणति ही केवल विशेषपदार्थ है तो फिर सामान्य और विशेष दोनों वस्तुस्वरूप नहीं बन पायेंगे, क्योंकि वस्तु परिणाम नहीं है, किन्तु वह परिणामवाली = परिणत है । अतः सामान्य और विशेष अवस्तु बनने की वजह नरशुंग की भाँति असत् बन जायेंगे' - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्य या विदोष न तो वस्तु है और न तो अवस्तु यानी सर्वया वस्तुमिन नगीं है, किन्तु वस्तु का एक देश = अंश है - यही जैनसिद्धान्त है। जैसे समंदर का छोटा भाग न तो पूर्ण समंदर है और न तो सर्वथा समंदर से भिन है किन्तु उसका एक अंश कहा जाता है, ठीक वैसे ही समानपरिणामस्वरूप सामान्य पदार्थ एवं असमानपरिणामात्मक विवोध पदार्थ भी न तो संपूर्ण वस्तु है और न तो सर्वथा वस्तु से भिन्न है, किन्तु वस्तु का एक अंश है । समान परिणाम को पूर्ण चस्तुस्वरूप मानने पर वस्तु के शेष परिणाम सर्वथा वस्तुभिन्न बन जायेगे या जितने परिणाम हैं उतनी संख्या में वस्तुएँ बन जायेंगी और समानपरिणति को सर्वथा वस्तुभिन्न मानने पर शेष परिणाम भी वस्तु से सर्वथा भिन्न बनने की वजह वस्तु तत् तत् परिणाम से शून्य हो जायेगी और उसीकी वजह वस्तु की ही असिद्धि हो जायेगी। अतः मानना होगा कि सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तु के अंश हैं।