________________
५५४७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का, * ज्ञानाद्वैतप्रतिपादने प्रमाणवार्तिकादिसंबादः * |' नीलादेः प्रतिभासत्वान्यथानुपपत्त्या विषयं विनापि वासनामात्रेण धियां विशेषाच्च ज्ञानादैतमेव स्वीकुरुते । तच्च ज्ञानं ग्राहकतयैकस्वभावमापि याह्यतयाऽनेकीभवतः स्वांशान्
..........- ---====* nical असिद्धेरिति ।
नन्वेवं विषयस्यैवाऽसिद्धी तत्सिद्धयश्रीनसिद्धिकस्य विषयगो ज्ञानस्याऽप्यसिद्धिरेवेत्याशङ्कायामाह- नीलादेः प्रतिभासत्वाऽन्यथानुपपन्या विषयं विनापि बासनामात्रेण = केवलं वितथविकल्पेन धियां विशेपाच ज्ञानाद्वैतमेव स्वीकुरुत इति । यदि हि विषयवत् ज्ञानमपि न स्यात् तर्हि प्रसिद्धप्रतिभासोऽपि नैव सम्भवेत् । न चैवम् । अतो ज्ञानमभ्युपगन्तव्यमेब, नीलादयस्तु तदाकारा एव न तु तद्व्यतिरिक्ताः सहोपलम्भादेः । तदुक्तं प्रमाणवार्त्तिके - नीलादिश्चित्रविज्ञाने ज्ञानोपाधिश्चानन्यभाक् । अशक्यदर्शनस्तं हि. पतत्यर्थे विवेचयन् ।। (प्र.या. ) इति । अयं तल्लेशार्थः -> यो नीलादिश्चित्रज्ञाने प्रतिभासते स ज्ञानोपाधिः ज्ञानविशेषणो ज्ञानात्मक इति यावत् । अनन्यभाक् = विज्ञानादन्यमर्थं न भजते, बाह्यवस्तुसमवेतो न भवति ज्ञानात्मभूतत्वात् । अत एव पीताकारविबेकेन केवलो नीलभागो न शक्यते द्रष्टुमित्यशक्यदर्शन उक्तः । यदि च नीलभागं पीतभागयिकेन पश्येत् पश्यन्नपि च विवेचयेत् प्रतिपत्ता पतत्यर्थे, ज्ञानात्मकः प्रतिपत्ता वस्तुन्येव प्रवृनो भवति, न त्वात्मभूते आत्मभूते वा कृष्णनीलादी प्रवर्तेत न वा क्वचिदपीति । न च विषयमृते ज्ञानाऽसम्भव इति वक्तव्यम् केशोण्डुकादिज्ञानस्य विषयं विनैव दर्शनात् । एतेन भ्रमगोचरस्य तत्राइसत्त्वेऽपि देशान्तरे सत्त्वान सर्वथाऽर्थाऽसिद्भिरित्यपि प्रत्युक्तम्, वन्ध्यापुत्रादिविकल्प तथाऽसम्भवात् । तदुक्तं योगसूत्रे 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:' (यो.सू. ) इति । अतो ज्ञेयाकारोऽपि ज्ञानस्वरूप एवेति न ज्ञानातिरिक्तज्ञेयसिद्धिः । तदुक्तं प्रमाणवात्तिकालङ्कारे - 'ग्राह्यग्राहकनीलायाकारा बुद्धिरेच चित्राद्वैत' (प्र.बा,अ. ) इति । ज्ञानाद्वैतनये कथमनेकान्ताभ्युपगम: ? इत्याशङ्कायामाह - तचेति । वासनामात्रप्रभवं ज्ञानं ग्राहकतया ग्रहणस्वभावतथा एकस्वभावमपि सत् ग्राह्यतया नीलाद्याकारविधया अनेकीभवतः स्वांशान्
ज्ञान से अतिरिक्त घट, पर आदि अवयविस्वरूप ज्ञेय पदार्थ अप्रामाणिक है, क्योंकि उनकी सिद्धि परमाणु की सिद्धि के अधीन है, जो प्रामाणिक नहीं है । परमाणु प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से सिद्ध नहीं है। यदि वह होता, तो वह चक्षु आदि से जन्य उपलब्धि का विषय होता । मगर चक्षु आदि से वह अनुपलब्ध होने से उसमें कोई प्रमाण नहीं है । जब परमाणु ही असिद्ध है, तब परमाणुसमहरूप या अनेकपरमाणुजन्य द्रव्यात्मक अवयवी भी असिद्ध हो जायेगा। अवयन के चिना अवयवी की सिद्धि कैसे हो सकती ? मगर विषय के बिना ज्ञान की असिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि नीलादिप्रकारक प्रतिभास की, जो सर्वजनविदित है. अन्यथा अनुपपत्ति होती है । अतः ज्ञान का अपलाप नहीं किया जा सकता। -> 'विषय के बिना ज्ञान में विशेषता नहीं हो सकती' - इस शंका का समाधान यह है कि वासनामात्र से ही ज्ञान में विशेषता हो सकती है। वितथ वासना के प्रभाव से ज्ञान में नील, पीत, रक्त आदि आकारविशेप की उपपत्ति होने से ज्ञान से अतिरिक्त ज्ञेय का स्वीकार करने में कोई प्रमाण नहीं है। अतएव ज्ञान ही केवल एक पारमार्थिक तत्त्व है। विशेषाकार : की संपादक वासना भी ज्ञान से अतिरिक्त नहीं है, किन्तु ज्ञानात्मक ही है । इस तरह ज्ञानाऽद्वैत की सिद्धि होती है। यह योगाचार नाम के बौद्धविशेष का मन्तब्य है।।
- योगाचार का स्याबाद में प्रवेश नच. इति । प्रकरणकार श्रीमद् कहते हैं कि उपर्युक्त रीति से ज्ञानाद्वैत का स्वीकार करने वाला बौद्ध एक ही ज्ञान में दो स्वभाव का स्वीकार करता है । ज्ञान में एक तो नील, पीत आदि का ग्राहकत्वस्वभाव है, जो एकस्वरूप ही है। दुसरा है ज्ञेयाकारस्वभाव । नील, पीत आदि ज्ञेयाकार भी झानस्वरूप होने से ज्ञान का स्वभाव ही है । नील, पीत आदि झेयाकार अनेक होने की वजह उससे अभिन्न ज्ञान भी अनेकात्मक हो जाता है । एक ही समुद्दालम्बन ज्ञान में नील, पीत, रक्त आदि अनेक ज्ञेयाकार का भान होता है । वे ज्ञेयाकार भी ज्ञान के अंशात्मक होने की वजह अनेकविध ज्ञेयाकार का ग्राहक ज्ञान भी अनेक स्वभाव वाला होता है । यह योमाचार चौद्ध का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त में अनेकान्तवाद का प्रतिबिंब स्पष्टतया प्रतीत होता है। ज्ञान में ग्राहकन्वरूप से एक स्वभाव और ग्राह्यत्वरूप से अनेक स्वभाव का स्वीकार सापेक्षवाद के अवलम्बन के बिना कथमपि संगत नहीं हो सकता। इस तरह ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्धविशेष का भी अनेकान्तवादी