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५४६ माध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ - का.७
* विवरणेऽपीनरुक्त्यम्
ननुगमः ।
अथैवं चित्रो घटो रूपविशिष्टरूपवानिति सहप्रयोगो न स्यादिति चेत् ? न, विवरणादिरूपतया तदुपपत्तेः ॥७॥ अथानेकान्ते परेषामपि संमतिमुपदिदर्शयिषव: प्रथमतस्ताथागतसंमतिमाविष्कुर्वान्ते ->
==. जयलता * चित्रपदात् = चित्रपदं श्रुत्वा, रूपविशिष्टरूपत्वेनैव = उद्भूतरूपविशिष्टाऽपरोद्भूतरूपत्वेनैव बोधः = शाब्दबोधः न तूद्भूतनीलविशिष्टपीतत्वादिना उद्भूतपीतविशिष्टनीलारादिलोवकारर्थ: । न ... दिपायजन्य अपमिशिष्टरूपत्वप्रकारकशाब्दबोधाभ्युपगमेन न चित्रपदजन्यशाब्दबोधविशेष्यतावच्छेदके अननुगमः । एतेन चित्रपदप्रवृत्तिनिमिनाननुगमोऽपि प्रत्याख्यातः । न : हि 'चित्रो घट' इति वाक्यात् उद्भूतनीलविशिष्टोद्भुतपीतत्वादिप्रकारिका उद्भूतपीतविशिष्टोद्भुतनीलत्वादिप्रकारिका वा शाब्दी प्रमोपजायते किन्तूद्भुतरूपविशिष्टापरोद्भूतरूपप्रकारिकैव । न च लाघवाच्चित्रत्वमतिरिक्तमेवाभ्युपगन्तव्यं, न तूद्भूतरूपविशिष्टापरोद्भूतरूपत्वं गौरवादिति वक्तव्यम्, लक्ष्यतावच्छेदकत्वस्येव शाक्यतावच्छेदकत्वस्यापि गुरुधर्मे स्वीकारात् । न हि निरुक्तविशिष्टरूपत्वं विहायातिरिक्तं चित्रत्वं स्वप्नेऽपि प्रतीयते प्रेक्षावद्भिः ।
परः शकते - अथेति । एवं = रूपविशिष्टरूपत्वस्यैव चित्रपददशक्यतावच्छेदकत्वेऽभ्युपगम्यमाने, 'चित्रो घटो रूप| विशिष्टरूपवानि ति सहप्रयोगः = रूपविशिष्टरूपवत्पदसमभिव्याहृतचित्रपदप्रयोगः न स्यात्, पौनरुक्त्यात् । अतः चित्र । रूपमतिरिक्तमेवेत्यथाभिप्राय: । प्रकरणकृत्तन्निराकरोति - नेति । विचरणादिरूपतया तदुपपत्तेः = प्रदर्शितवाक्यप्रयोगस्य सम्भवात् । तत्समानार्थकपदान्तरेण तदर्थकथनं विवरणमुन्यते । यथा 'नात्रालोकः किन्तु तम' इतिप्रयोगो विवरणेच्छयोचरितत्वेनाऽदुष्टः तथैव 'चित्रो घटो रूपविशिष्टरूपवानिति प्रयोगोऽपि दोषानावह इति भावः । ततश्च नास्ति नीलपीतादित: सर्वधा व्यतिरिक्तं विजातीयं चित्ररूपमिति प्रघट्टकार्थः ।
अष्टमकारिकाप्रस्तावार्थमुपक्रमते . अथेति । परेषां = अनेकान्तद्वेषिणामेकान्तवादिनां, अपि संमतिमुपदिदर्शयिषवः
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उद्भूतपीतवर्णत्वरूप से चित्र वर्ण का भान घट में नहीं होता है किन्तु रूपविशिष्टरूपत्व प्रकार से ही चित्र वर्ण का बोध होता है। अतः चित्रपदजन्य प्रतीति का प्रकार कभी उद्भुतनीलविशिष्ट उद्भुतपीतत्व आदि बनने की वजह जो अननुगम दोष प्रसक्त होता था, वह निराकृत हो जाता है । 'घट का वर्ण चित्र है' इस वाक्य से यट में अनेक रूप का यानी एकरूपसमानाधिकरण अपर रूप का ही भान होता है-यह तो सर्वविदित ही है। अतः चित्रपद के प्रवृत्तिनिमित्तविधया रूपविशिष्टरूपत्व का ही स्वीकार करना उचित है, न कि नीलत्वादि से व्यतिरिक्त चित्रत्व जाति का . यह फलित होता है। यहाँ यह शंका करना कि -> "यदि चित्रपद का प्रवृत्तिनिमित रूपविशिष्टरूपत्व है, तब तो 'चित्रो घटो रूपविशिष्टरूपवान्' इत्यादि स्थल में चित्रपट
और रूपविशिष्टरूपवान् पद का सहप्रयोग = एक वाक्य में पूर्वोत्तर प्रयोग नहीं हो सकेगा, क्योंकि रूपविशिष्टरूप पद से जिस वर्ण का भान कराना है उसका भान नो चित्रपद से ही हो चुका है। मतलब कि 'शुक्लो घटः कुम्भः' यह वाक्य जैसे पुनरुक्ति दोष से ग्रस्त है, ठीक वैसे ही उपर्युक्त वाक्यप्रयोग भी पुनरुक्तिदोष से कलंकित होगा । अतः चित्रपद के प्रवृत्तिनिमित्तविधया अतिरिक्त चित्रत्व जाति का स्वीकार करना होगा, जो रूपविशिष्टरूपत्व से भिन्न होने की वजह उपर्युक्त वाक्य से जन्य शान्दबोध को अधिकांशावगाही बनायेगा। फलतः पुनरुक्ति दोप का निवारण हो जायेगा" - भी नामुनासिब है, क्योंकि उपर्युक्त सहप्रयोग की उपपत्ति तो उक्त वाक्य को विवरणरूप मानने से भी हो सकती है। मतलब यह है कि 'घटपदार्थ क्या है ?' इस जिज्ञासा के समाधानार्थ 'घटः कुम्भः' इत्याकारक वाक्यप्रयोग होता है, जो विवरणात्मक होने की वजह पुनरुक्ति दोष का आपादक नहीं है । विवरण का अर्थ है 'तत्समानार्थकपदान्तरेण तदर्थकथनं' यानी तत् पद का जो अर्थ है, उसके समान अर्थ के वाचक अन्य पद से उसी अर्थ का कथन करना । प्रस्तुत में चित्रपद का प्रयोग होने के बावजूद भी रूपविशिष्टरूपवान् पद का प्रयोग निरुक्त विवरणस्वरूप होने की वजह पुनरुक्ति दोप का आक्षेपक नहीं है । अतः रूपविशिष्टरूपत्व को चित्रपद का प्रवृत्तिनिमित्त मानने में कोई क्षति नहीं है - यह ध्वनित होता है ॥७॥
E Iodi कारिका की त्यास या EX अथा. इति । सातवी कारिका में नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्मयुगल का एक धर्मी में समावेश सिद्ध कर के अनेकान्तवाद की प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतिष्ठा की गई है। अब मूलकार श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अन्य दर्शनीओं की अनेकान्तबाद में