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* परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वं न विरुद्धत्वम् *
एकवृत्तित्वेन प्रमीयमाणत्वात्, नीलपीतादिवत् । विरुद्धत्वं = परस्परानधिकरणवृतिजातीयत्वमिति यथाश्रुतमेव सम्यगिति तु न युक्तं, स्वमते नित्यानित्यत्वादावेव तदभावात्, एकवर्णस्यापि निश्चयतः परावर्णत्वाच्च, अन्यथा शुक्लस्य पाकादिना पश्चात् श्यामत्वानुपपत्तेः,
* जयलता
नन्वेकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वसिद्धयर्थं मूलकृद्भिः विरुद्धत्वेन रूपेण नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुग्मप्रदर्शनं कृतं भवद्भिस्तु तत्परिहारेण नित्यानित्यतात्वादिकपक्षः प्रदर्शित इति किं तत्त्यागे प्रयोजनं ? इत्याशङ्कायामाह विरुद्धत्वमिति । विरुद्धत्वपदप्रतिपाद्यमित्यर्थः । परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वं = इतरेतरानधिकरणनिरूपितवृत्तित्वमद्वृत्तिजातिमत्त्वं इति हेतोः यथाश्रुतमेब = ‘विरुद्धं द्वयं' इत्येव सम्यगिति तु न युक्तम् । कुत: ? इत्याह- स्वमते = स्याद्वादिदर्शने, नित्यानित्यत्वादावेव
पक्षे एव तदभावात् = निरुक्तविरुद्धत्वाभावात् । ततश्चाश्रयाऽसिद्धिप्रसङ्गः, नित्यानित्यत्वादिलक्षणपक्षे पक्षतावच्छेदकीभूतनिरुक्तविरुद्धत्वविरहात् । एवकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थकः | जैनमते नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुगलानां परस्पराधिकरणाधिकरणकत्वेन परस्परानधिकरणवृत्तिजातीयत्वस्वरूपविरुद्धत्वाऽयोगात्, तनिश्चये वा बाधप्रसङ्गात् । नापि नीलपीतादिधर्मेषूदाहरणविधयोपदर्शितेषु निरुक्तविरुद्धवं सम्भवति, चित्रघटे एवं तेषां तदपगमात् । न च शुक्लघटे श्यामादिवर्णानामभावात्तत्र वेतिमा| कालिमा-पीतिमादीनां परस्परानधिकरणाधिकरणत्वसिद्धिरिति वक्तव्यम्, शुक्लघटेऽपि श्यामादिवर्णाभ्युपगमादित्याशयेनाऽऽह्एकवर्णस्यापीति । एक एवं प्रतीयमानो वर्णो यस्मिन् घटादी से घटादि: एकवर्ण:, तस्य किमुतानेकवर्णस्य १ इत्यपि - शब्दार्थः । निश्वयतः = परमार्थमवलम्ब्य निश्वयनयमाश्रित्य वा पञ्चवर्णत्वाच्चेति । पञ्च वर्णा यस्मिन् स तद्भावः तत्त्वं तत इत्यर्थ: । एकः शुक्लो वर्णो यत्र प्रतीयते तत्रापि निश्चयेन श्यामादयो वर्णाः सन्त्येवेति न ते परस्परानधिकरणवृत्तय इति भावः ।
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विपक्षदण्डमाह - अन्यथेति । शुक्लवर्णवति घटादों श्यामादिवर्णानङ्गीकारे सतीत्यर्थः । पूर्व वेतवर्णविशिष्टस्य घटादेः, पाकादिना पश्चात् श्यामत्वानुपपत्तेः = कृष्णवर्णसत्त्वाऽसङ्गतेः । यदि पाकपूर्वकाल
पाकपूर्वकालावच्छेदेन,
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शुक्लस्य
न किया जाय तब तो नील पीत आदि धर्मो का भी एक शबल वस्तु ( मयुरपंख आदि) में समावेश नहीं हो सकेगा । इसी बात को सूचित करने के लिए कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद्जी प्रस्तुत व कारिका के उत्तरार्ध में कहते हैं कि बिरुद्ध नील-पीत आदि वर्णों का समावेश मयूर पंख, गाय आदि मेचकबस्तु में प्रमाण से ज्ञायमान है । इसी तरह एक धर्मी में नित्यत्वअनित्यत्व आदि धर्मयुगल भी समाविष्ट हो सकते हैं । मतलब कि मूलकारश्री ने ७व कारिका के पूर्वार्ध में पक्ष, साध्य और हेतु का क्रमशः उल्लेख किया है और उत्तरार्ध में उदाहरण को बताया है । अतः यहाँ अनुमानप्रयोग इस तरह किया जा संकता है कि नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्मयुगल एक अधिकरणावृत्ति नहीं है, क्योंकि एक अधिकरणवृत्तित्वविधया प्रमाण से ज्ञायमान है, जैसे कि नील, पीत, श्रेत आदि वर्ण । यहाँ यह शंका हो कि → 'मूलकारश्री ने तो कारिका में 'विरुद्ध' पद का उल्लेख किया है, जिसका अर्थ है बिरुद्धत्वाला | व्याख्याकार श्रीमद्जी ने तो विरुद्धपद का त्याग कर के पक्षविधया नित्यत्व- अनित्यत्वादि धर्मयुगल का ही निर्देश किया है, जो मूलकारथी के आशय के खिलाफ प्रतीत होता है' - तो इसका समाधान व्याख्याकार श्रीमद्जी की ओर से इस तरह बताया जाता है कि विरुद्धत्व का अर्थ यह होता है परस्पर के अनधिकरण में रहने वाले धर्मों का साजात्य ( = समानजातिमत्त्व ) । मगर यह तो नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्मयुग्म, जिसका यहाँ पक्षविधया उल्लेख किया गया है, में ही स्वमत = स्याद्वाद के अनुसार नहीं रहने से आश्रय असिद्धि नाम का दोष प्रसक्त होता है । नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्मयुगल जैनदर्शन के अनुसार परस्पर के अनधिकरण में रहने वाले धर्म के सजातीय नहीं है, किन्तु विजातीय हैं, क्योंकि वास्तव में वे परस्पर के अधिकरण में रहते हैं । दूसरी बात यह है कि एकवर्णवाली वस्तु भी निश्चय नय से पाँच वर्णवाली होने से नील-पीत आदि वर्ण भी परस्पर के अनधिकरण में रहनेवाले नहीं होने से सदा परस्पर के अनधिकरण में ही रहनेवाली कोई चीज ही प्रसिद्ध नहीं होने से तत्सजातीयत्वस्वरूप विरुद्धत्व ही अप्रसिद्ध है । अन्धकार और प्रकाश भी देशावच्छेदकभेद से या कालावच्छेदकभेद से एक धर्मी में रहते हैं । अतः निरुक्त विरुद्धत्वपद के अर्थ की अनुपपत्ति होने से विरुद्धपद का त्याग उचित ही है । यहाँ यह शंका हो कि एक वर्ण वाले घट आदि में पाँच वर्ण का स्वीकार क्यों किया जाय ? क्योंकि प्रत्यक्ष से तो घट श्याम रूप वाला ही उपलब्ध होता है' - तो यह नामुनासिव है, क्योंकि यदि पाक से पूर्व काल में शुक्ल रूप वाले घट में श्याम रूप का अंगीकार न किया जाय तो पाक के पश्चात्काल में घट में श्याम वर्ण की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। श्याम रूप का कारण तो श्याम रूप ही होता है । अतः
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