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५३१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * विरुद्धवर्णानामेकत्र सत्वसमर्थनम् * | नीलत्वपीतत्वादिना । न च तत्राऽवयवनीलादिमत्तैव परम्परया प्रतीतेविषयः, एवं सति योग्यरूपादीनां शुदिमागतत्वायत्तेः । चित्रत्वव्यवहारस्तु नीलविशिष्टपीतादिना एकवृत्तिनीलपीतो
* जयला * लक्षणपरम्परासम्बन्धन घटे प्रतीयमानत्वादित्याशङ्को निराकर्त मापकमते - न चेति । तत्र = चित्रपटे अवयवनीलादिमत्ता = घटावयवसमवेतनीलादिः एव परम्परया = स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतीतेः विषय इति वाच्यमिति गम्यते । तयुक्तत्वमेव समर्थयति- एवं सतीति । अवयवसमवेतनीलपीतादीनामेवायवविनि भानाऽभ्युपगमे सति । योग्यरूपादीनामिति । अनुभूताभिभूतरूपादिव्यवच्छेदार्थं 'योग्ये 'ति । त्रुटिमात्रगतत्वापत्तेः = असरेणुमात्रसमवेतत्वस्वीकारप्रसङ्गात् । चित्रकपालारब्धघटे प्रतीयमानानां नीलपीतादिवर्णानां कपालिकासमवेतत्वं चित्रकपालिकाक्कपालारचघटे प्रतीयमानानां नीलपीतादिरूपाणां प्रकपालिकासमवंतत्वमित्येवं यावत्यसरेणुसमवेतत्वप्रसङ्गात् । यद्वा घट इन कपालस्याप्यवयवित्वात्तत्र प्रतीयमानानां रूपादीनां कपालिकासमवंतत्वं, तस्या अपि सावयवत्वात्प्रकपालिकपासमवेतत्वमित्येवं यावत्नसरेणुसमवेतत्वाःभ्युपगमापत्तेः । न चैवं परमाणुगतत्वमेवाऽस्त्विति वाच्यम्, परमाणोरतीन्द्रियत्वेन तद्रूपादेरेव भानाऽसम्भवान्न घटेऽपि परम्परया भानं स्यादतः त्रुटिगतत्वापादनमत्र कृतमित्यादि भावनीयम् ।
ननु यदि चित्रधटे नातिरिक्तं चित्राख्यं रूपं किन्तु नीलपीतादिरूपाणि तर्हि 'घटो नीलो रक्तः पीत' इत्यादिप्रतीतिय॑वहारश्च स्यातां न तु 'चित्रोऽयं घट' इति प्रतीतिव्यवहारौ । तदनुगपत्तिः स्याद्वादिसाम्राज्ये कलङ्कमित्याशङ्कायामाह- चित्रत्वव्यवहारस्त्विति । इदश्ची पलक्षणं चित्रत्वप्रकारकातीतेः । स्वसामानाधिकरण्यसम्बन्धेन नीलविशिष्टपीतादिना ए त्तिनीलचित्र रूप ही है, न कि नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप' - अन्यथा उपर्युक्त अतिप्रसिद्ध स्वाभाचिक लोकानुभव का अपलाप करने का दोष आयेगा । यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि --> "शबल (रंगबिरंगी = Colouring) घट में केवल एक चित्र रूप ही होता है, फिर भी लोगों को जो उपदर्शित प्रतीति होती है, उसकी उपपत्ति तो उस घट के भिन्न भिन्न अवयव के नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप का परंपरा सम्बन्ध यानी स्वाश्रयसमवेतत्वसंसर्ग से घट में भान मानने से भी हो सकती है। मगर एक ही घट में समवाय सम्बन्ध = साक्षात्संबंध से नील, पीत, झ्याम आदि विविध वर्ण का भान नहीं होता है । जैसे जपाकुसुम आदि उपाधि के रक्त रूप का परम्परासम्बन्ध से स्फटिक में ज्ञान होता है ठीक वैसे ही घटावधवगत विविध वर्ण का परम्परासंसर्ग से घट में भान होता है" <- ।
अत्यतगत विविधतर्ण का अवयवी में IIIMण - स्याहादी एवं स. इति । यह कथन अयुक्त होने का कारण यह है कि - 'अवयवगत विविध वर्ण का परम्परा संबंध से चित्र घट में भान मानने पर तो उसी चित्र घट के कपाल में विविध वर्गों का जो भान होता है उसे भी भित्र भित्र कपालिका में रहने वाले अनेक रूप को परम्परा सम्बन्ध से कपाल में विषय करने वाला मानना होगा, क्योंकि आपके मतानुसार तो कपालात्मक एक धर्मी में एक चित्र वर्ण ही रह सकता है, न कि अनेक नील, पीत आदि वर्ण । एवं जिस कपालिका में अनेक वर्ण का भान होता है, उस ज्ञान को भी भिन्न भिन्न प्रकपालिका में समवेत अनेक रूप को परम्परा संसर्ग से . कपालिका में विषय बनाने वाला मानना होगा । इस तरह प्रत्यक्ष के योग्य नील, पीत आदि रूप को त्रसरेणु में ही समवेत मानना होगा। मतलब कि एक अतिरिक्त चित्र रूप वाले घट में परम्परासम्बन्ध से विविधनसरेणुसमनेत विविध वर्ण का ही परम्परा संबंध से भान मानना होगा, जिसके फल में 'प्रत्यक्षयोग्य नील, पीत, श्याम आदि रूप केवल असरेणु में ही रहने वाले हैं। इस बात को मान्य करना होगा, जो प्रामाणिक नहीं है। इसलिए मानना होगा कि एक ही घट में नील, पीत, श्याम आदि विविध वर्ण का साक्षात्संबंध से समावेश हो सकता है । यहाँ यह शंका हो कि -> "यदि घट में एक अतिरिक्त चित्र वर्ण नहीं है, किन्तु नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप हैं, तो फिर 'यह घट चित्र रूप वाला है' यह प्रतीति कैसे हो सकेगी ! क्योंकि आप स्यागादी तो अतिरिक्त चित्र रूप का स्वीकार ही नहीं करते हैं। आपके मतानुसार सो घट में नील, पीत, श्याम आदि अनेक रूप रहने से केवल 'घट विविध वर्ण वाला है। ऐसी ही प्रतीति एवं व्यवहार होना चाहिए । अनः आपके मत में घट में चित्रत्वप्रतीति एवं चित्रत्वव्यवहार अनुपपन्न बनेगे" <
स्यादादाजुसार चित्रत्तव्यतहार मुमकिन चित्रत्व, इति । तो इसका समाधान यह है कि नीलविशिष्ट पीतादि रूप होने की वजह या तो एक धर्मी में रहनेवाले नीलपीतवर्ण उभय आदि के कारण घटादि में चित्रत्व का व्यवहार होता है। आशय यह है कि जो घट केवल नील रूपवाला |