________________
५११ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ का ७
* रामरुद्रभट्ट - नृसिंहमत्तसमालोचना *
किस, एवमप्याकाशादौ न विशेषसिद्धिः शब्दादेरेव तत्र व्यावतर्कत्वाच्च ।
* जयलता है
परमाणुत्वलक्षणसाधनव्यापकत्वाभावात् । न हि परमाणुत्वशालिषु स्वतन्त्रपरमाणुषु गुणकर्मसामान्यातिरिक्तधर्मप्रतियोगिकसमवायवत्त्वं विशेषसिद्धेः प्राक् प्रसिद्धं । विशेषसिद्धिपूर्वमेव व्यापकीभूतद्रव्यसमवायित्वाभावेनानारब्धद्रव्ये परमाणौ गुणकर्म| सामान्यव्यतिरिक्तधर्मंसमवायित्वलक्षणव्याप्याभावसिद्ध्या तत्र परमाणुत्वहेतोः तत्साधनेऽप्रत्यत्वात् । यद्वा द्रव्यसमवायित्वस्यात्र संदिग्धोपाधित्वं स्वधिया भावनीयम् ।
एतेन
परमाणुभेदः किञ्चिलिङ्गज्ञाप्यः भेदत्वात्, कपालभेदज्ञाप्यघटभेदवदिति - ( मु. रा. प्र. १२२) रामरुद्रभोक्तं निरस्तम् घटादेः परस्परभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वेन दृष्टान्ते साध्यासिद्धेः असिषाधयिषितत्वविशिष्टसिद्धत्वाभावस्योपाधित्वाच । अत एव परमाण्वादीनां परस्परं योगिभेदप्रत्यचान्यथानुपपत्तेर्विशेषसिद्धिरित्यपि प्रतिक्षिप्तम्, योगजधर्म सहकृतमनोजन्धपरमाण्वादिगोचरसाक्षात्कारवतां योगिनां तद्भेदग्रहे व्यावर्त्तकधर्मदर्शनस्याऽहेतुत्वात् ।
दोषान्तरसमुच्चयार्थमाह- किश्चेति । एवमपीति । परमाणुत्वहेतुना स्वतन्त्रपरमाणौ साध्यस्वरूपसमवायित्वप्रतियोगिविधवा विशेष सामने, पालना आकाशादी गगनात्मदिक्कालमनरसु न विशेषसिद्धिः = साध्यवटकविध्या विशेषपदार्थसिद्धिः सम्भवति, तत्र परमाणुत्वहेतो: स्वरूपाऽसिद्धत्वात् । गगनादौ विशेषसाधने परेण निरवयवद्रव्यत्वहेतुप्रदर्शन दूषणान्तरमाह शब्दादेरेवेति । आदिपदेन ज्ञानादिग्रहणम् । तत्र गगनादी व्यावर्तकत्वात् परस्परं भेदकत्वादिति । ईश्वराकाशयां नित्यज्ञानशब्दाभ्यां व्यावृत्तेः सम्भवात्र तंत्र विशेष इत्यपि केचित् । यत्तु नृसिंहैण -> 'नित्यज्ञानस्येश्वरनिष्ठ भेदानुमापकत्वं न ज्ञानत्वेन व्यभिचारित्वात् न नित्यत्वविशिष्टज्ञानत्वेन तदूव्यक्तित्वेन वा सामान्याश्रयस्य सामान्यरूपेण भेदसाधनकत्वनियमात, नित्यज्ञानत्वस्य नित्यत्वघटितत्वेनोपाधिरूपतया तेन रूपेण व्यक्तित्वेन वा व्यावर्तकत्वासम्भवात् ' <- ( मु.प्र. पू. १३०) इत्युक्तं, तभ स्वसमानाधिकरणेश्वरत्वसम्बन्धेन ज्ञानत्वावच्छिन्नस्मैव तदुव्यावर्तकत्वसम्भवात् । न च तादृशस्य सम्बन्धत्वे मानाभाव इति वक्तव्यम् बाधकाभावात् परमाणुगतैकत्वमादाय
..
=
-
1
तर्क न हो तब तक हजारों अनुमान प्रयोग किये जाय तो भी उनसे स्वाभिमत साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । यहाँ परमाणु में परमाणुसमवेतजातिगुणकर्मभिन्नधर्म समवायित्व की व्याप्ति का विपक्षवाधक कोई तर्क नहीं है अर्थात् ' स्वतन्त्र परमाणु में परमाणुत्व हेतु भले रहे, मगर परमाणुगतगुर्णकर्मजातिभिन्नधर्म समवायित्व न रहे तो क्या दोष है ? इस विपरीत कल्पना के निवर्तक किसी तर्क का सहारा नेयायिक को नहीं मिलता है, जिसके बल पर नैयायिक उपर्युक्त व्याप्ति को सुरक्षित बना सके । अतः असहाय व्याप्ति के आधार पर उक्त अनुमान के द्वारा स्वतन्त्र परमाणु में विशेषसमवायित्व की सिद्धि नहीं हो सकती। नैयायिक से प्रदर्शित व्याप्ति में कोई अनुकूल तर्क तो नहीं है, मगर उपाधिग्रस्तता ही है। वह उपाधि है द्रव्यसमवायित्व । जो साध्य की व्यापक एवं साधन की अव्यापक हो वह उपाधि कही जाती है। जहाँ जहाँ परमाणुगत गुणकर्म-जातिभिन्न धर्म समवायित्व होता है वहाँ वहाँ द्रव्यसमवायित्व होता है, जैसे पार्थिवद्व्यणुकसमवायी परमाणु, जलीययशुकसमवायी परमाणु आदि में । इस तरह द्रव्यसमवायित्व उपर्युक्त साध्य का व्यापक है। मगर जहाँ जहाँ परमाणुत्व होता है, वहाँ वहाँ द्रव्यसमवायित्व नहीं होता है, क्योंकि स्वतन्त्र परमाणुओं में परमाणुत्व होने पर भी किसी द्व्यणुक आदि द्रव्य का समवायित्व नहीं होता है । स्वतन्त्र परमाणुओं में कोई द्रव्य समवेत नहीं होने से द्रव्यसमवायित्व = द्रव्यप्रतियोगिकसमवायवत्त्व कैसे होगा ? अतः व्रन्यसमवायित्व परमाणुत्व हेतु का अब्यापक है । द्रव्यसमवायित्व में साध्य की व्यापकता एवं हेतु की अव्यापकता होने से वह उपर्युक्त अनुमान में उपाधि है । साध्यव्यापक उपाधि अपने अभाव का निश्रय कराती है । साध्याभावाधिकरणविधया निश्रित स्वतंत्र परमाणुस्वरूप पक्ष में परमाणुत्व हेतु कैसे स्वाभिमत साध्य की सिद्धि के लिए समर्थ हो सकेगा ? क्योंकि तब परमाणुत्व हेतु बाधित = बाधदोपग्रस्त होता है । इसलिए नैयायिकप्रदर्शित अनुमान विशेष पदार्थ की सिद्धि के लिए असमर्थ है यह फलित होता है ।
ॐ आकाशादि में विशेष की सिद्धि नामुमकिन- स्यादादी 3
किञ्च इति । दूसरी बात यह है कि भेदक धर्मान्तर = अन्य धर्म के अभाववाले परमाणुओं में परस्परप्रतियोगिक भेदगोचर योगिप्रत्यक्ष की अन्यथा अनुपपत्ति के बल पर विशेष पदार्थ की सिद्धि करने पर तो आकाश आदि पदार्थ में, जिनमें नथायिक विशेष पदार्थ को समवेत मानते हैं, विशेष पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि अन्य निरवयव पदार्थ