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* संतानुसारेण शब्दार्घतादात्म्यपरिणामः * शब्दाः स्पृशन्त्यपि' ।। ( ) इति निरस्तम्, कश्चित्तादात्म्येनैव शब्देनार्थप्रतिपादनात् । तदुक्तं परमर्षिभिः "खुरअग्गेिमोअगुच्चारणमि, जम्हा उ वयणसवणाणं । णवि छेओ णवि दाहो ण पूरणं तेण भिण्णं तु ॥ जम्हा य मोअगुच्चारणम्मि, तत्थेत पच्चओ होइ । ण य होइ स अण्णत्थो, तेण अभिण्णं तदत्थाओ ॥ (बृहत्कल्पभाष्य)ति । न चैवमेकरमादपि
* यal * | प्रयुक्ते । निर्विकल्पमनस: शब्दाऽप्रयोक्तृत्वमेवेत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां विकल्पस्य शब्दकारणत्वं सिद्धम् । वक्तृविकल्पजन्यघटादिशब्दश्रवणेन श्रोतुः घटायाकारो विकल्पो जायते तदश्रवणे तु नेत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां शब्दस्य विकल्पकारणत्वं सिद्धमिति कार्यकारणता = कार्यकारणभावः तेषां = विकल्पशब्दानामेव परस्परं, नार्थ शब्दाः स्पृशन्त्यपि = नाऽर्थपरिणतिभाजः शब्दाः भवन्तीत्यर्थः, कल्पनाया वितथत्वात् । विसंवादिशब्दोपलम्भादपि न तस्याऽर्थतादात्म्यमिति बौद्धाभिप्राय: । तदयुक्तत्वमेव प्रकरणकृदुपदर्शयति - कथञ्चित्तादात्म्येन = कथञ्चित् अर्धस्य तादात्म्यं यस्मिन् स तथा तेन एव शब्देन अर्थप्रतिपादनात् = कथञ्चित्स्वाऽभिन्नार्थविषयकश्रोतृबोधजननात् । अन्यथा पदार्थोपस्थितिशाब्दबोधप्रवृत्तिप्रतिनियमानुपपत्तेः । शब्दार्थयोर्न सर्वथा भदोऽभेदो वा किन्तु कथञ्चिद्भेदाभेद एवेत्यत्र संवादमाह - तदुक्तं परमर्षिभिरिति । खुरेति । यदि च शब्दार्थयोः सर्वथाऽभेद: स्यात् तर्हि क्षुरशब्दस्योच्चारणेन वदनस्य तच्छ्बणेन कर्णस्य च छेदः स्याताम्, एवमग्निशब्दस्योच्चारेण वदनस्य तञ्छ्रवणेन श्रवणस्य च दाह: प्रसज्येताम् तथा मोदकपदोक्त्या वदनस्य तच्छ्रवणेन श्रोत्रस्य च पूरणं भवेताम् । न चैवमिति शब्दार्धयोर्भेदः न तु सर्वथा भेदः । तर्हि तयोः सर्वधा भेद एवाऽस्त्वित्याशङ्कायामाह - जम्हा य इत्यादि । यदि शब्दार्थयोः सर्वधा भेद एब स्यात् तर्हि मोदकशब्दोच्चारणे मोदक इब वटादावपि विषयतासम्बन्धेन बोध उपजायत । न च भवति स = मोदकशब्दजन्यशाब्दबोधः अन्यार्थः = घटादिगोचर: तेन कारणेन मोदकपदं अभिनं = कथञ्चिदभिन्नं तदर्थात् = !! स्वार्थतः । अतः शब्दार्थयोः भेदानुविद्धाभेद एवेति श्लोकद्वयार्थः सक्षेपतः ।।
न चेति । वाच्यमित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । एवं = शब्दार्थयोः कथञ्चित्तादात्म्याऽङ्गीकारे एकस्मादपि पदात् = पटादि
वह घट शन्द को बोलता है और श्रोता को वक्तृकल्पनाजन्य घट शब्द से घटाकारगाली कल्पना उत्पन्न होती है । इस तरह कल्पना और शन्द के बीच ही कार्य-कारणभाव है, मगर शब्द का वास्तव में अर्थ के साथ कोई संबंध नहीं होता है। गब्द तनिक भी वास्तविक अर्थ का स्पर्श नहीं करता है, केवल काल्पनिक अर्थ से ही उसका सम्बन्ध है' - मगर अभी हम स्याद्वादियों ने जो बताया कि 'शब्द अर्थपरिणाम से परिणत हो कर ही अर्थ का प्रतिपादन करता है। इससे ही यह बीद्धमत निरस्त हो जाता है। वास्तव में शब्द अर्थ के परिणाम से कथंचित् परिणत हो कर यानी कथंचित् अर्थ से अभित्र हो कर ही अर्ध का भान कराता है, अन्यथा घटपद से ताजमहल का भी बोध होने लगेगा । मगर ऐसा नहीं होता है। इसलिए शब्द को अर्थ से कथंचित् अभिन्न मानना आवश्यक है, भले वह सर्वथा अर्थ से अभित्र न हो । पूर्वाचार्यों ने भी कहा है कि -> शब्द सर्वथा अर्ध से अभिन्न हो तो तलवारशन्द का उच्चारण करने पर जिला का छेद हो जायेगा, 'आग' ऐसा बोलने पर ही जीभ जल जायेगी और 'लड रोलने पर ही मुँह ला से भर जायेगा, क्योंकि शब्द और अर्ध में सर्वथा अभेद पक्ष का अभी विचार चल रहा है। लक्ष्मी शब्द को बोलने पर भी लक्ष्मी की वर्षा नहीं होती है। इसलिए शब्द और अर्थ में कथंचित् भेद है, यह सिद्ध होता है । मगर शब्द और अर्थ में सर्वथा भेद भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि लडू शब्द का उच्चारण करने पर लडू का ही भान होता है, न कि दिल्ली का । विवक्षित शब्द से अर्थविशेष का ही भान होता है . इसीसे सिद्ध होता है कि शन्द और अर्थ में कथंचित् अभेद भी होता है। इसलिए शब्द और अर्थ में न तो सर्वथा भेद है और न तो सर्वथा अभेद, किन्तु कथंचित् भेदाभेद है - यह सिद्ध होता है।
* कथंचित् अर्थपरिणत शब्द संकेतज्ञानसहकार से घोषजनक है - स्यादादी
न चे. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> 'सर्व शब्द सभी अर्ध के वाचक = प्रतिपादक होने पर तो एक पद से ही सर्व अर्थ में प्रवृत्ति होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि एक ही पद का सभी अर्थ के साथ तादात्म्य मानते १. क्षुराग्निमांदकोचारणे पस्मात्तु बदनश्रवणानां । नापि छेदो नापि दाहो न पूरणं तन भिन्नं तु ।।
पस्मान मादको धारण तत्रब प्रत्यया भवति । न न भवति स अन्याधः तनाऽभित्रं तदर्थान् ।।