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* दिनकरीयतरङ्गिणीमतखण्डनम् ** || सिदयसिन्दिव्याघातेन तु विशेषस्येव द्रव्यस्यैव व्यावृत्तिस्वभावत्वं न्याय्यमिति विग।।
=.. ... - * जयलता * | समानाधिकरणताद्दौकत्ववत्त्वसम्बन्धेन। सत्तारूपलिङ्गेनैव परमाण्वन्तरभेदसाधनसम्भवे विशेषासिद्धेरिष्टत्वात् ।
ननु प्रमाणेन विज्ञातो विशेषो भवता प्रतिक्षिप्यतेऽविज्ञातो वा ? इति विकल्पयुगली प्रकृते समुज्जृम्भते । तत्र नाद्यः श्रोदनमः, प्रमाणेन सिद्धस्य प्रतिक्षेप्तमशक्यत्वात, अन्यथा घटादीनामपि प्रतिक्षेपप्रमहगात । नापि द्वितीयः राणां चेतसि चकास्ति, अप्रसिद्धस्य निषेद्धमशक्यत्वात् अभावस्य प्रसिद्धप्रतियोगिकत्वनियमात् । इदमेवाऽभिप्रेत्य -> असओ पत्थि णिसेहो' (वि.आ.भा.गा. ) इति श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमगोक्तिः । विकल्पान्तरस्य चाऽसम्भवान्न विशेषपदार्थखण्डनस्य युक्तत्वमिति विशेषस्य म्रता न्यावर्तकत्वमच्याहनमेवेति नैयायिकाशङ्कायां प्रकरणकृदाह - सिद्भयसिद्धिच्या- । घातेन = प्रसिद्धचप्रसिद्धिविकल्पद्धविकल्पद्वयविरोधेन तु विशेपस्येव द्रव्यस्यैव व्यावृत्तिस्वभावत्वं न्याय्यं = न्यायानपेतम् । स्वभावतः परस्परं व्यावृत्तानि एव द्रव्याण्युत्पद्यन्त इति परेण स्वतो व्यावृत्तं द्रव्यं प्रमाणेनाऽज्ञायि न बा ? इति बिकल्प. द्वयावतारे तु द्रव्यस्य व्यावृत्तिशालित्वं निराबाधम् । युक्तश्चैतत् अनन्तविशेषाऽकल्पनलाघवात् । न हि स्वभावतोऽव्यावृनस्य सतः कस्यचित् केनचिद् व्यावृत्तिः कर्तुं पार्यते । तच्छङ्कानिवृत्त्यर्थं क्वचिद् व्यावर्तकधर्मदर्शनभुपयुज्यते व्यभिचारगड़कानिवृत्तौ तर्कस्येव । एतेन -> त्र्यणकाययवः साश्यव: महदारम्भकत्वादित्यनुमानेन परमाणोरन्यावृत्तस्यापि सिद्धिसम्भवन निताद्रव्याणां व्यावृत्तत्वस्य धर्मिग्राहकमानः सिद्धत्वमेवेति – (मु.रा. पृ.१२३) दिनकरीयतरङ्गिणीकृवचनं निरस्तम्, प्रकृतानु. मानेन सिध्यतो व्यावर्तकान्तरव्यावृत्तत्वेऽनवस्थागौरवमिति ज्ञानसहकारानव स्वतो ज्यावृत्तत्वमप्यवगाहमानैवानुमिति; सम्भवति, से आकाशादि का व्यावर्तक शब्द आदि विशेप गुण ही हो सकते हैं। परमाणु में शब्द गुण नहीं होता है और आकाश में शब्द गुण होता है - यह तो नैयायिक ही कहते हैं। सब तो निरवयव परमाणु से आकाश को व्यावृत्त करने वाला शब्द गुण ही होगा, फिर क्यों आकाशादि निरवयव द्रव्य में विशेष पदार्थ का स्वीकार किया जाय । अनारन्यद्रव्यवाले परमाणु को पक्ष बना कर जो विशेष पदार्थ सिद्धि की गई है, उसके मुताबिक तो आकाशादि में विशेष पदार्थ की सिद्धि हो ही नहीं सकती है, मगर भेदगोचर योगिप्रत्यक्ष की अनुपपति से भी आकाशादि में विशेष पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि शब्द आदि गुण ही उनके भेदक = घ्यावनक हो सकते हैं - यह अभी ही हम बता चुके हैं । अत: स्वतंत्र विशेष पदार्थ की कल्पना अप्रामाणिक है।
का द्रा ही प्यात्तिस्वभावताला है - स्यादादी । सिद्धय, इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि > 'आप स्याद्वादी जोर-शोर से नैयायिकसम्मत विशेष पदार्थ का खण्डन कर रहे हैं, मगर हम आपसे यह प्रश्न करते हैं कि 'क्या आप स्यावादी विशेप पदार्थ को प्रमाण से जानते हैं या नहीं ? यदि प्रमाण से विशेष पदार्थ को जानते हैं, तो फिर आप विशेष पदार्थ का खंडन कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि प्रमाणसिद्ध पदार्थ को खंडित करने का दुःसाहस कोई भी बुद्धिमान् पुरुप नहीं करता है। यदि आप विशेष पदार्थ को नहीं जानते हैं, तब तो उसका खंडन नितरां नहीं कर सकते, क्योंकि कोई भी अक्कलमंद आदमी अज्ञात पदार्य का निराकरण करने में प्रवृत्त नहीं होता है। अतः स्याद्रादी न तो प्रमाण से ज्ञात विशेष पदार्थ का खंडन कर सकते हैं और न तो अज्ञात विशेष पदार्थ का । इसलिए हम नैयायिक विद्वान् विशेष को स्वतः च्यावृत्तस्वभाववाला मानते हैं । वह युक्तिसंगत ही है" - द्रव्य, इति । तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सिद्धि और असिद्धि से इस तरह विशेष पदार्थ में न्यावृत्तिस्वभाव
ना करने की अपेक्षा तो यही मुनासिब है कि सिद्धि और असिद्धि के द्वारा उक्त रीति से द्रव्य में ही व्यावृत्तिस्वभाव = भेदकत्व की कल्पना करना युक्तियुक्त है। मतलब यह है कि द्रव्य ही विशेषपदार्थ की भांति स्वतः व्यावृत्तिस्वभावबाला है - यह मानना सुसंगत है। यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "व्यावृत्तिस्वभाववाला द्रव्य अप्रामाणिक है। -तो नैयायिक से हमारा यह प्रश्न है कि -> 'स्वतः व्यावृत्तिस्वभाववाले द्रव्य को आप नैयायिक प्रमाण से जानते हैं या नहीं ?' यदि स्वत: व्यावृत्ति स्वभाव वाले द्रव्य को आप प्रमाण से जानते हैं, तब उसका निरास :: कैसे कर सकते है ? स्वयं प्रमाण से सिद्ध पदार्थ को जान-बूझकर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता । यदि आप । स्वतः व्यावृत्तिस्वभाव वाले द्रव्य को नहीं जानते तब तो नितरां उसका अशकरण नहीं कर सकते । क्या घट को नहीं