Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 312
________________ ५०९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. * विशेषपदार्थविचारे मञ्जूषाकारादिमतप्रकाशनम् * वहि तदाश्रयाणामपि स्वत एव साऽस्तु । 'वैधार्यव्याप्ता सा कथं तदविने 'ति चेत् ?, | अन्तत: तत्तद्व्यक्तित्वादीनामपि तत्त्वसम्भवात, प्रतिद्रव्यमनन्ताऽगुरुलधुपर्यायाणां सिदान्तसिन्दत्वाच्च । * जयता * इत्यों लभ्यते । अत्र व्यावृत्तत्वं भेदनिष्ठविधेयतानिरूपित्तोद्देश्यतारूपमिति (मु.प्र.पृ.१२१) नृसिंहो ब्याचष्टे । ___ मञ्जूषाकारस्तु → 'यथा वित्यकुरादिकं कृतिजन्यमित्यनुमितौ तस्याः कृतेरनित्यत्वे गौरवमिति गौरवज्ञानसहकाराज्जायमानानुमितिः कृतौ नित्यत्वमप्यवगाहमाना क्षित्यकुरादिकं नित्यकृतिजन्यमित्याकारिकैव जायत एवमेषां व्यावर्तकान्तरव्यावृत्तत्वेनवस्थागौरवमिति ज्ञानसहकाराज्जायमानानुमिति: परस्परभिन्नत्वमव्यवगाहमाना परमाणुषु परस्परभेदानुमिति: परस्परमित्रलिङ्गप्रमाजन्येत्याकारिक जायत इति न विशेषाणां परस्पर भेदसिद्धये लिङ्गान्तरमपेक्षणीयमिति भावः । तथा च स्वतो ज्यावृत्तत्वं स्वग्राहकमानसिद्धभेदकत्वं - (मु.मं.पृ.१२४) इत्याह । -> 'स्वतो व्यावृत्तत्वञ्च स्वभिन्नलिजन्यस्वविशेष्यकस्वसजातीयेतरभेदानुमित्यविषयत्वमि' - (मु.दि.पृ.११९)ति महादेवः । रामरुद्रस्तु 'स्वतो ज्यावृत्तत्वं स्वप्रयोज्यस्वनिष्ठस्वसजातीयप्रतियोगिकभेदकत्वमि' त्याह । प्रकरणकृत् प्रतिबन्धा प्राह - तहीति । विशेषाणां स्यतो ब्यावर्त्तकत्वे तदाश्रयाणां परमाण्वादीनां अपि स्वत एव = स्वात्मकलिङ्गादेव, सा = स्वसजातीयप्रतियोगिकव्यावृत्तिः अस्तु अनन्तातिरिक्तविशेषान् कल्पयित्वा तत्र स्वतो व्यावर्तकत्वकल्पनापेक्षया 'धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी तिन्यायात् क्लुप्तपरमाण्वादीनामेव स्वतो व्यावर्तकत्वधर्मकल्पनाया उचिनत्वात् । पर: प्रत्यवतिष्ठते - वैधर्म्यव्याप्ता = भिन्नधर्माभावनिरूपितवृत्तित्वाभावशालिनी सा = सजातीयच्यावृत्तिः कथं तत् । = वैधयं विना ? न हि सजातीयपरमाण्वादिषु वैधय॑मस्ति, न च तदृते परस्परच्यावृत्तिः सम्भवतीति तस्या अन्यथानुपपत्त्या तत्र विशेषपदार्थलक्षणवैधर्म्यमङ्गीकरणीयमिति नैयायिकाभिप्राय: । प्रकरणकृत्तन्निराकराति - नेति । परमाणुगततत्तक्रियाध्वंसादिभेदेनैव तद्व्यावृत्तिसम्भवात् । न च तत्तक्रियाध्वंसादेर्भेदोऽपि किमधीन: ? इति वाच्यम्, प्रतियोगिभेदेनेव तद्भेदो. पपत्तेः । तत्तक्रियालक्षणप्रतियोगिनां परस्परं व्यावृत्तिः कथं? इत्याशङ्कायामाह . अन्ततः तत्तव्यक्तित्वादीनामपि तत्त्वसम्भवात् = व्यावर्तकत्वसम्भवात् । सजातीयपरमाण्वादीनां तत्तव्यक्तित्वलक्षणप्रातिस्विकरूपेणैव परस्परं व्यावृत्ति: सम्भवति । तत्तव्यक्तित्वस्य कथश्चित्तत्तद्व्यक्त्यव्यतिरिक्ततया नातिरिक्तपदार्थगौरवमिति न विशेषकल्पनं न्याय्यमिति भावः । हेत्वन्तर माह - प्रतिद्रव्यं अनन्तागुरुलघुपर्यायाणां भिन्नानां सिद्धान्तसिद्धत्वाचेति । तैरपि परमाण्वादीनां परस्परं ब्यावृत्तिः सम्भव की अपेक्षा रहती है, मगर परमाणुगत विशेष पदार्थ को परस्परप्रतियोगिक भेद की सिद्धि के लिए अन्य विशेप पदार्थ की अपेक्षा नहीं है । वे स्वयं ही परस्परप्रतियोगिक भेद के निर्वाहक होते हैं, क्योंकि वे स्वतः विलक्षण हैं, न कि परतः' - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अतिरिक्त अनन्त विशेष की कल्पना कर के उनमें स्वतः ब्यावर्तकत्व की कल्पना करने की अपेक्षा विशेपाश्रयविधया अभिमत परमाणुओं में ही स्वत: ज्यावर्नकत्व की कल्पना क्यों न की जाय ? क्योंकि इस पक्ष में अनन्त विशेष की कल्पना अनावश्यक होने से लाघव है । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> 'न्यावृत्ति वैधर्म्यव्याप्त है । सजातीय परमाणुओं में विशेष के अतिरिक्त कोई वैधर्म्य नहीं है, जिसकी वजह उनमें परस्पर ब्यावृत्ति हो सके । अतः विशेष की कल्पना परमाणुओं में आवश्यक ही है, जिससे उनमें परस्परल्यावृत्ति की उपपत्ति हो सके । जब विशेप की कल्पमा परमाणुओ में आवश्यक ही है, तब उन्हें स्वतः ब्यावृत्त कैसे कहा जा सकता है ? बिना वैधयं के व्यावृत्ति = भेद मानने पर तो अपने में भी अपना भेद रहने लगेगा' - तो इसके खिलाफ स्याद्वादियों की ओर से यह भी कहा जा सकता है कि सजातीय परमाणुओं में दूसरा कुछ वैधर्म्य नैयायिक महाशय को भले ही ना मिले, मगर अंततः तत्तत् व्यक्तित्व आदि में भी परस्परभेदकत्व मुमकिन है । प्रत्येक परमाणुओं का व्यक्तित्व अलग-अलग होता है और वह प्रत्येक परमाणुस्वरूप ही होता है, न कि उससे अतिरिक्त । इस तरह सजातीय परमाणुओं में भी परस्परप्रतियोगिक भेद की उपपत्ति तत् तत् व्यक्तित्व आदि धर्म से मुमकिन होने से अतिरिक्त अनन्त विशेष पदार्थ की तदर्थ कल्पना करना अनुचित है। दूसरी बात यह है कि प्रत्येक वन्य में अनन्त अगुरुलघु पर्याय होते हैं, जो परस्पर विलक्षण होते हैं एवं कथंचित् स्वाश्रयस्वरूप होते हैं। उनसे परमाणुओ में परस्पर व्यावृत्ति की उपपत्ति हो सकती है। अतः परमाणुओं में परस्परभेद के निर्वाह के

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